AYUR VED (5) आयुर्वेद :: PROPOUNDERS OF AYURVED आयुर्वेद के जनक

PROPOUNDERS OF AYURVED
आयुर्वेद के जनक
AYUR VED (5) आयुर्वेद
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]
धन्वंतरी महाआरोग्य मंत्र ::
ॐ नमों भगवते सुदर्शन वासुदेवाय, धन्वंतराय अमृतकलश हस्ताय, सकला भय विनाशाय, सर्व रोग निवारणाय, त्रिलोक पठाय,  त्रिलोक लोकनिथाये,  ॐ श्री महाविष्णु स्वरूपा,  ॐ श्री श्री ॐ  औषधा चक्र नारायण स्वाहा
परम भगवान् को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिए हुए हैं, सर्व भय नाशक हैं, सर्व रोग नाशक हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरुप धन्वंतरी को सादर नमन् है। 
वेद मंत्रों में देव शब्द के प्रयोग द्वारा देवताओं की सामूहिक स्तुति की गई है। रोग मुक्त शतायु जीवन की कामना के साथ उपयुक्त मंत्र अथर्ववेद एवं यजुर्वेद में है। दोनों ही वेदों में तत्संबंधी मंत्र ‘पश्येम शरदः शतम्’ से आरंभ होते हैं। 
आयुर्वेद आयुर्विज्ञान की प्राचीन भारतीय पद्धति है। यह आयु का वेद अर्थात आयु का ज्ञान है। जिस शास्त्र के द्वारा आयु का ज्ञान कराया जाय उसका नाम आयुर्वेद है। शरीर, इन्द्रिय सत्व और आत्मा के संयोग का नाम आयु है। प्राण से युक्त शरीर को जीवित कहते है। आयु और शरीर का संबंध शाश्वत है। यह मनुष्य के जीवित रहने की विधि तथा उसके पूर्ण विकास के उपाय बतलाता है, इसलिए आयुर्वेद अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह एक चिकित्सा पद्धति मात्र नही है, अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है।
आयुर्वेद में आयु के हित (पथ्य, आहार, विहार), अहित (हानिकर, आहार, विहार), रोग का निदान और व्याधियों की चिकित्सा कही गई है। हित आहार, सेवन एवं अहित आहार त्याग करने से मनुष्य पूर्ण रुप से स्वस्थ रह सकता है। आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन के चरम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। पुरुषार्थ चतुष्टयं की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है अतः उसकी सुरक्षा पर विशेष बल देते हुए आयुर्वेद कहता है कि धर्म अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है। अतः मनुष्य को हर तरीके से शरीर की रक्षा करना चाहिए।
भाव प्रकाश में कहा गया है कि जिस शास्त्र के द्वारा आयु का ज्ञान, हित और अहित आहार विहार का ज्ञान, व्याधि निदान तथा शमन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसको आयुर्वेद कहते हैं। आयुर्वेद आयुर्विज्ञान की प्राचीन भारतीय पद्धति है। यह आयु का वेद अर्थात आयु का ज्ञान है। जिस शास्त्र के द्वारा आयु का ज्ञान कराया जाय उसका नाम आयुर्वेद है। शरीर, इन्द्रिय सत्व और आत्मा के संयोग का नाम आयु है। प्राण से युक्त शरीर को जीवित कहते है। आयु और शरीर का संबंध शाश्वत है। यह मनुष्य के जीवित रहने की विधि तथा उसके पूर्ण विकास के उपाय बतलाता है, इसलिए आयुर्वेद अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह एक चिकित्सा पद्धति मात्र नही है, अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है।
आयुर्वेद का उद्देश्य :: आयुर्वेद का मुख्य लक्ष्य व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी हो जाने पर उसके विकार का प्रशमन करना है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ शरीर से ही सम्भव है। अतः आत्मा के शुद्धिकरण के साथ शरीर की शुद्धि व उत्तम स्वास्थ्य भी जरूरी है।
आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ :: चरक संहिता-चरक, सुश्रुत संहिता-सुश्रुत, अष्टांग हृदय-वाग्भट्ट, वंगसेन-वंगसेन, माधव निदान-माधवाचार्य, भाव प्रकाश-भाव मिश्र। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त वैद्य विनोद, वैद्य मनोत्सव, भैषज्य रत्नावली, वैद्य जीवन आदि अन्य वैद्यकीय ग्रन्थ हैं। वैद्य जीवन के रचयिता पंडितवर लोलिम्बराज हैं। उनके इस ग्रन्थ को अतीत में एवं आधुनिक काल में अधिक श्रद्धा के साथ वैद्यों ने अपनाया है।
आयुर्वेद अवतरण :: इसकी उत्त्पत्ति ब्रह्मा जी से है, जिन्होंने ब्रह्मसंहिता की रचना की थी। ब्रह्मसंहिता में दस लाख श्लोक तथा एक हजार अध्याय हैं। आयुर्वेद का वर्णन सभी चारों वेदों में किया गया है। अथर्ववेद में इसकी गहन व्यख्या-वर्णन है। आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। ऋग्वेद में आयुर्वेद को उपवेद की संज्ञा दी गयी है। महाभारत में भी आयुर्वेद को उपवेद कहा गया है। पुराणों में भी आयुर्वेद का वृहद-विस्तृत वर्णन है। आयुर्वेद को पांचवां वेद कहा गया है।  
चरक संहिता के अनुसार ब्रह्मा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान दोनों अश्विनी कुमार को दिया, अश्वनी कुमारों ने यह ज्ञान इन्द्र को दिया, इन्द्र ने यह ज्ञान भरद्वाज को दिया, भरद्वाज ने यह ज्ञान आत्रेय पुनर्वसु को दिया, आत्रेय पुनर्वसु ने यह ज्ञान अग्निवेश, जतूकर्ण, भेल, पराशर, हरीत, क्षारपाणि को दिया।
सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान अश्वनी कुमारों को दिया, अश्वनीकुमारों से यह ज्ञान धन्वन्तरि को दिया, धन्वन्तरि ने यह ज्ञान औपधेनव, वैतरण, औरभ, पौष्कलावत पौष्‍कलावत, करवीर्य, गोपुर रक्षित और सुश्रुत को दिया। कश्यप संहिता के अनुसार ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद का ज्ञान अश्वनीकुमारों को दिया और अश्वनीकुमारों ने यह ज्ञान इन्द्र को दिया और इन्द्र ने यह ज्ञान कश्यप, वशिष्ठ, अत्रि, भृगु आदि को दिया।अत्रि ने यह ज्ञान अपने एक पुत्र और अन्य शिष्यों को दिया। सृष्टि के प्रणेता ब्रह्मा जी के द्वारा एक लाख सूत्रों में आयुर्वेद का वर्णन किया गया और इस ज्ञान को दक्ष प्रजापति द्वारा ग्रहण किया गया तत्पश्चात् दक्ष प्रजापति से यह ज्ञान सूर्यपुत्र अश्विन कुमारों को और अश्विन कुमारों से स्वर्गाधिपति इन्द्र को प्राप्त हुआ। इन्द्र के द्वारा यह ज्ञान पुनर्वसु आत्रेय को यह प्राप्त हुआ। शल्य शास्त्र के रुप में यह ज्ञान आदि धन्वन्तरि को प्राप्त हुआ और स्त्री एवं बाल चिकित्सा के रुप में यह ज्ञान इन्द्र से महर्षि कश्यप को दिया गया। चिकित्सा कार्य को करने के लिए स्वर्गाधिपति इन्द्र की अनुमति आवश्यक थी। चरक संहिता को कश्मीर के आयुर्वेदज्ञ दृढ़बल नें पुर्नसंगृहित किया। इस समय के प्रसिद्ध आयुर्वेदज्ञों में मत्त, मांडव्य, भास्कर, सुरसेन, रत्नकोष, शम्भु, सात्विक, गोमुख, नरवाहन, इन्द्रद, काम्बली, व्याडि आदि रहे हैं।
महात्मा बुद्ध के समय में आयुर्वेद विज्ञान नें सबसे अधिक प्रगति रस चिकित्सा विज्ञान और रस विद्या में किया है। 
रस विद्या तीन भाग :: (1). धातु विद्या (2). रस चिकित्सा (3). क्षेम विद्या।
शल्य विद्या पर प्रतिबन्ध :: कलिंग विजय के पश्‍चात सम्राट अशोक ने भगवान बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर अपनें राज्य में रक्तपात और रक्तपात से संबंधित समस्त कार्यकलापों पर पूर्ण प्रतिबन्ध  लागु कर दिया।
रसौषधियों के बल पर साध्य, कष्ट साध्य और असाध्य रोंगों की चिकित्सा विधियों का विकास हुआ। नागार्जुन तृतीय ने रस विद्या के उत्थान में बहुत योगदान किया। आठ नागार्जुन हुये हैं और आयुर्वेद रस-चिकित्सा विज्ञान के उत्थान और शोध में इन सभी का अमूल्य योगदान रहा।
भगवान् धन्वतरि :: समुद्र मन्थन से अन्य रत्नो के साथ भगवान् धन्वतरि हाथ में अमृत कलश लिये हुए प्रकट हुए। भगवान् श्री हरी 
विष्णु संसार की रक्षा करते हैं; अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को उनका विष्णु का अंश माना गया है। समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने भगवान् श्री हरी विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है; अत: यह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजाति गण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुन: जन्म लोगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान भगवान् ने उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया।
भगवान् धन्वन्तरि :: जब देवगणों से महर्षि दुर्वासा का अपराध बन पड़ा था और इसके परिणाम स्वरूप न केवल देवता अपितु त्रिलोक श्री हीन हो गया था। दैवी सम्पत् के विलुप्त हो जाने से सर्वत्र आसुरी साम्राज्य स्थापित हो चुका था। दुःखी हो देवता, ब्रह्माजी को साथ लेकर भगवान् नारायण की शरण में पहुँचे और नारायण ने उन्हें असुरों को साथ लेकर समुद्र मन्थन का परामर्श दिया और बताया कि इस मन्थन से अमृत का कलश लेकर स्वयं मैं धन्वन्तरि नाम से प्रकट होऊँगा और फिर उसी अमृत के बल पर आप लोग सदा के लिये अमर हो जायँगे। नारायण की ऐसी अमृतमयी वाणी सुनकर सभी को बड़ा ही आनन्द हुआ।
देवताओं के समझाने पर अज्ञानी असुर भी अमृत के लोभ से समुद्र मन्थन के लिये राजी हो गये और फिर समुद्र का मन्थन प्रारम्भ लगे। नारायण के कहे अनुसार रत्नों का प्रादुर्भाव हुआ, जिनमें भगवान् धन्वन्तरि अमृत का कलश लेकर प्रादुर्भूत हुए।
उस समय समुद्र के मध्य से जो दिव्य पुरुष प्रकट हुए, वे बड़े ही सुन्दर तथा मनोज्ञ थे। उन्होंने शरीर पर पीताम्बर धारण कर रखा था। सभी अङ्ग अनेक प्रकार के दिव्य आभूषणों तथा अलङ्करणों से अलंकृत थे। उन्होंने कानों में मणियों के दिव्य कुण्डल पहिने हुए थे। उनकी तरुण अवस्था थी तथा उनका सौन्दर्य अनुपम था। शरीर का रंग बड़ा ही सुन्दर साँवला-साँवला था। चिकने और घुंघराले बाल लहराते हुए उनकी छबि बड़ी अनोखी थी। उन्होंने अमृत से पूर्ण कलश धारण कर रखा था। वे साक्षात् भगवान् विष्णु के अंशांश अवतार थे और आयुर्वेद के प्रवर्तक तथा यज्ञभोक्ता धन्वन्तरि के नाम से सुप्रसिद्ध हुए।[वेदव्यास श्रीमद्भागवत] 
अमृतापूर्णकलशं बिभ्रद् वलयभूषितः। 
सवै भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसम्भवः॥ 
धन्वन्तरिरिति ख्यात आयुर्वेददृगिज्यभाक्। 
[श्रीमद्भा. 8.8.34-35] 
महर्षि वाल्मीकि ने उन्हें आयुर्वेदमय कहा है।[वाल्मी.बाल. 45.31]
जिस समय वे समुद्र से प्रकट हुए उस समय भगवान् विष्णु के नामों का जप कर रहे थे और प्राणियों के आरोग्य का चिन्तन कर रहे थे। उनकी बड़ी दिव्य आभा छिटक रही थी, वे नारायण के स्वरूप प्रतीत हो रहे थे। 
भगवान् श्री हरी विष्णु (इल) से उत्पन्न होने के कारण उनका यह नाम रखा गया। भगवान् श्री हरी विष्णु ने अनेक वर प्रदान करते ना इनसे कहा, "तुम्हारा आविर्भाव तीनों लोकों को का कल्याण करने के लिये हुआ है"। 
असुरों ने तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मचा रखी इतने प्रभावशाली हो गये हैं कि उन्होंने देवताओं को भी भयभीत कर रखा है, बिना अमृत के वे कैसे स्वस्थ रह सकते हैं, अतः अमृतरूप अमोघ औषध प्राप्ति के लिये ही तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। इस समय तुम अब अमरावती में प्रतिष्ठित होओ। दूसरे जन्म में तुम लोक में अति प्रसिद्धि प्राप्त करोगे, वहाँ गर्भावस्था में ही तुम्हें अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायँगी तुम उसी शरीर से देवत्व प्राप्त कर लोगे और ब्राह्मण लोग चरु, मन्त्र, व्रत एवं जपनीय मन्त्रों द्वारा तुम्हारा यजन करेंगे। तुम आयुर्वेद को प्रवर्तित कर उसे आठ अङ्गों में विभाजित कर आरोग्य के अवदान से जीवमात्र का कल्याण करोगे।  
द्वितीयायां तु सम्भूत्यां लोके ख्यातिं गमिष्यसि। 
अणिमादिश्च ते सिद्धिर्गर्भस्थस्य भविष्यति॥ 
तेनैव स्वं शरीरेण देवत्वं प्राप्स्यसे प्रभो। 
द्विजातयः अष्टधा त्वं पुनश्चैवमायुर्वेदं विधास्यसि॥ 
(हरिवंश.हरि. 29.18-20]
धन्वन्तरि को ऐसा वरदान देकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये (इमं तस्मै वरं दत्त्वा विष्णुरन्तर्दधे पुन:।) और भगवान् धन्वन्तरि देवलोक में अत्यन्त महिमा को प्राप्त हुए।
भगवान् धन्वन्तरि ने अमृतरूपी औषध का सृजन कर  देवताओं को भी सब प्रकार से सदा के लिये अजर-अमर और निरोग बना दिया। देवताओं का अजराः (वृद्धावस्था से राहत) प्रकार की आधि-व्याधि और रोग-शोक से मुक्त) आदि नाम सार्थक हो गये और भगवान् धन्वन्तरि आयुर्वेद के प्रवर्तक तथा आरोग्य के देवता रूप में प्रतिष्ठित हो गये।
दूसरे द्वापर युग में काशी में एक महान् धर्मात्मा राजा हुए उनका नाम थे। सभी सुख होने पर भी वे पुत्र न होने से दुःखी रहते थे। उन्होंने मन ही मन चिन्तन किया कि मैं उस देवता की आराधना करूँ, जो मुझे पुत्र प्रदान कर सके। तब उन्हें नारायण के अवतार भगवान् धन्वन्तरि (अब्जदेव) का स्मरण हो आया। वे उनकी दयालुता को अच्छी तरह समझते थे।
काशिराज धन्व तपस्या आराधना में संलग्न हो गये। सच्ची आराधना अवश्य फलवती होती है। प्रसन्न हो भगवान् धन्वन्तरि ने उन्हें दर्शन दिया। दर्शन पाकर राजा धन्व कृतार्थ हो गये। भगवान् ने कहा, "राजन्! मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ, वर माँगो"। राजा धन्व ने कहा, प्रभो! आप तो अन्तर्यामी हैं, फिर भी मेरी इच्छा है कि आप पुत्र रूप में मेरे यहाँ अवतीर्ण हों और इसी नाम-रूपमें आपकी प्रसिद्धि भी हो"।
भगवान् तो ऐसा चाहते ही थे; क्योंकि उस समय प्रजा रोगों से आक्रान्त हो गयी थी, सब प्राणि जगत् बड़ा दुःखी था। अपनी प्रजा का कष्ट भगवान् से कैसे देखा जाता? अतः वे बोले, "राजन्! ऐसा ही होगा"। वर देकर वे अन्तर्धान हो गये। 
कुछ समय पश्चात् भगवान् विष्णुके अवतार भगवान् धन्वन्तरि ही काशिराज धन्वके यहाँ पुत्र रूप से अवतीर्ण हुए और उनका नाम भी धन्वन्तरि ही पड़ा। वे भी नारायण के ही परम्परा प्राप्त अवतार थे, उनमें सब प्रकार के रोगों को दूर करने की शक्ति प्रतिष्ठित थी। 
कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र, आयुर्वेद, अतिव्य का उपदेश करने के लिये ही इस पृथ्वी पर आया हूँ। 
आहे वो जरुजामृत्युहरोऽमराणाम्।
प्राप्तोऽस्मि गां भूय इहोपदेष्टुम् 
[सुश्रुत.सं. 1.21]
काशिराज धन्वन्तरि आयुर्वेद शास्त्र के ज्ञान से का सब प्रकार से सम्पन्न थे, तथापि मर्यादा है कि प्रतिष्ठ गुरु मुख से ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, अत: उन्होंने महर्षि भरद्वाज जो कि से सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र के जानकर-विद्वान थे, से  कर्म का ज्ञान प्राप्तकर आयुर्वेद को शल्य, शालाक्य आदि आठ भागों में विभक्त किया और अनेक शिष्य प्रशिष्यों को आयुर्वेद की शिक्षा प्रदान की। 
आयुर्वेदं भरद्वाजात् प्राप्येह भिषजां क्रियाम्। 
तमवृधा पुनर्व्यस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत्॥ 
[हरिवंश हरि. 29.27]
कृपावतार धन्वन्तरि की अनन्त महिमा है। उन्होंने भी आरोग्य शास्त्र का प्रवर्तन कर जीवों का महान कल्याण किया। 
धन्वन्तरि ने कहा है कि देवताओं की वृद्धावस्था, रोग तथा मृत्यु को दूर करने वाला आदि देव धन्वन्तरि मैं ही हूँ। आयुर्वेद के अन्य अङ्ग सहित शल्य तन्त्र का उपदेश करने के लिये फिर से इस पृथ्वी पर आया हूँ। 
अहं हि धन्वन्तरिरादिदेवो जरारुजामृत्युहरोऽमराणाम्। 
शल्याङ्गमङ्गैरपरैरुपेतं प्राप्तोऽस्मि गां भूय इहोपदेष्टुम्॥ 
[सुश्रुत सं.सू. 1.21] 
भक्ति पूर्वक इनके स्मरणमात्र से सब प्रकार के रोग, शोक, आधि-व्याधि दूर हो जाते हैं, "स्मृतमात्रार्तिनाशन:" [श्रीमद्भा. 9.17.4]
भागवत आदि में इन्हें दीर्घतमा का पुत्र कहा गया है। शल्य शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में यह निर्देश है कि काशिराज धन्वन्तरि से ही महर्षि सुश्रुत ने सम्पूर्ण आयुर्वेद ग्रहण किया। वहाँ धन्वन्तरि को दिवोदास धन्वन्तरि कहा गया है।[सुश्रुत सं.सूत्र. 113-5]
भगवान् नारायण पहले अब्ज धन्वन्तरि के रूप में और पुनः काशिराज धन्वन्तरि के रूप में अवतरित हुए। उनके समुद्र से अवतरण की तिथि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी 'धन्वन्तरि जयन्ती' के रूप में प्रतिष्ठित है। आरोग्य के अधिष्ठातृ देवता के रूप में इस तिथि को इनका विशेष पूजन-आराधन आदि बड़े समारोह से किया जाता है और इनसे आरोग्य के अवदान तथा उनकी कृपा प्राप्ति की प्रार्थना की जाती है।
दक्षिण भारत में विशेष रूप से केरल आदि में तो भगवान् धन्वन्तरि के अनेक मन्दिर और विग्रह प्रतिष्ठित हैं। भक्तों ने अनेक स्वरूपों में उनका ध्यान किया है, जिनमें मुख्य रूप से चतुर्भुज भगवान् नारायण के रूप में उनकी आराधना विशेष रूप से होती है। ऐसे वे कृपालु भगवान् धन्वन्तरि सदा हमारी रक्षा करते रहें। 
धन्वन्तरिः स भगवानवतात् सदा नः।
भगवान् धन्वंतरि की परम्परा ::
 
काश, दीर्घतपा, धन्व, धन्वंतरि, केतुमान्भी, मरथ (भीमसेन), दिवोदास, प्रतर्दन, वत्स, अलर्क। [हरिवंश पुराण] काश, काशेय, राष्ट्र, दीर्घतपा, धन्वंतरि, केतुमान्भी, रथ, दिवोदास।[विष्णु पुराण]
 सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:
विष विद्या के सम्बंध में महर्षि कश्यप और महात्मा तक्षक का महाभारत में और भगवान् धन्वंतरि और मनसा माता का संवाद ब्रह्मवैवर्त पुराणमें आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है। 
धन्वंतरी साधना ::
ॐ धन्वंतरये नमः।
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतरये
अमृतकलशहस्ताय सर्वभयविनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूपाय
श्रीधन्वंतरीस्वरूपाय श्रीश्रीश्री औषधचक्राय नारायणाय नमः। 
ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय सर्व आमय
विनाशनाय त्रिलोकनाथाय श्रीमहाविष्णुवे नम:। 
परम भगवान् को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिये हैं, सर्वभय नाशक हैं, सररोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरी को नमन है।
धन्वंतरी स्तोत्रम् :: 
ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम्॥
कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम्।
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम्॥
तक्षेश्वर मन्दिर मध्य प्रदेश के मंदसौर में है। भगवान् धन्वंतरि की पूजा-अर्चना के बाद ही वैद्य जड़ी-बूटियों की खोज शुरू करते हैं।  
अश्विनी कुमार-
देव वैद्य (चिकित्सक) :: 
उत्तरकुरु क्षेत्र में अश्व रूपी सूर्य और अश्वा रूप धारी संज्ञा से अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई। अश्व रूपी भगवान् सूर्य और अश्वा रूप धारी संज्ञा के मिथुन से अश्वनी कुमारों की उत्पत्ति हुई। भगवान् सूर्य के तेज से क्लांत संज्ञा ने अश्वा रूप ग्रहण किया, तब सायंकाल होने पर भगवान् सूर्य अश्व बनकर आहवनीय अग्नि में प्रवेश कर गए। इसके अतिरिक्त, अमावास्या काल में भी भगवान् सूर्य अश्व रूप में रहते हैं। चूँकि अमावास्या तथा सायंकाल से आगे रात्रि को समाधि की अवस्था कहा जा सकता है। अतः कार्तिक शुक्ल द्वितीय को अश्वनी कुमारों का जन्म हुआ। शुक्ल पक्ष समाधि से व्युत्थान का प्रतीक हो सकता है।
ये दोनों भगवान् सूर्य के पुत्र हैं, जो देव वैद्य-चिकित्सक हैं, जिन्हें देवता नहीं माना गया, मगर च्यवन ऋषि ने उन्हें यह स्थान दिलवाया और सोमरस पान करने का अधिकार दिलवाया। 
च्यवन ऋषि के लिये च्यवानं का प्रयोग हुआ है।[ऋग्वेद 10.17.1] 
आश्विन् ग्रह के संदर्भ में च्यवन-सुकन्या आख्यान  है। [शतपथ ब्राह्मण 4.1.5.1]
अश्विनी कुमार पितरद्वय हैं, जो सोम के कच्चे रूप सुरा को पीकर अपने यजमान रूपी पुत्र इन्द्र की रक्षा करते हैं। यह संदर्भ आश्विन् मास के कृष्ण पक्ष की पितृ पक्ष के रूप में प्रतिष्ठा के कारणों पर विचार करने के लिए उपयोगी है।[ऋग्वेद 10.131.5] 
अश्विनौ शब्द द्विवचन है। यह एक देवमिथुन है। इन्हें देवभिषजौ कहा जाता है। इनके अन्य नाम नासत्य और दस्र आते हैं। वृद्ध से युवा बना देना, टूटी जाँघ के स्थान पर लोहे की जाँघ लगा देना, अन्धकार से प्रकाश में ले जाना, समुद्र से डूबते को बचा लेना आदि उनके लिये सामान्य बातें हैं। 
यह चेतना की पराक् और अर्वाक् गति का प्रतीक हैं। अश्व अर्थात जिसका कल नहीं है, जो सदा वर्तमान है वह अश्व परमात्मा है। परमात्मा की शक्ति जीवात्मा को अजर-अमर कर सकती है और यदि अश्व का दूसरा अर्थ है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हें प्राणापानौ कहा गया है। प्राणों की यह पराक् और अर्वाक् गति ही अन्नमय, प्राणमय आदि कोशों को जोडने-सेतु तैयार करने वाली है। 
अश्विनी कुमारों के अंश, विश्कर्मा के पुत्र नल-नील ने रामेश्वर सेतु निर्माण किया।
इनका रथ तीन चक्रों-पहियों वाला है। दो चक्रों को तो ब्राह्मण लोग ऋतुथा जानते हैं, लेकिन तीसरे को सत्य की खोज करने वाले योगी ही जान सकते हैं। रथ के तीन पहिए हैं :– एक स्थूल शरीर में, एक सूक्ष्म शरीर में और एक कारण शरीर में। तीनों में एक ही चेतना एक साथ चलेगी। जब तक जीवात्मा अश्व नहीं बनता, तब तक वह अधिक से अधिक मन तक पहुँच सकता है। तब तक रथ के दो ही चक्र हैं :– स्थूल और सूक्ष्म शरीर। मन ऊर्ध्वमुखी होने पर तीन चक्रों का रथ बन जाता है। समाधि लग जाने पर अश्विनौ दिखाई नहीं पडते। सत्य हिरण्यय कोश है, वही समाधि है। अश्विनौ का नाम नासत्य (न-असत्य) है, जो संकेत करता है कि यह समाधि से नीचे की स्थिति है।
संज्ञा ::  मन रेतस्या बन जायें, प्राण गायत्री, चक्षु त्रिष्टुप्, श्रोत्र जगती, वाक् अनुष्टुप् छन्द बन जायें, यह संज्ञाएं हैं।[जैमिनीय ब्राह्मण 1.269]
आदित्यों ने अंगिरसों को श्वेत वडवा लाकर दी, लेकिन अङ्गिरसों ने अस्वीकार कर दिया। तब वडवा क्रोध में उभयमुखी सिंही हो गई। बाद में देवों द्वारा उसे स्वीकार कर लेने पर वह उत्तरवेदी बन गई। जब आदित्यों ने श्वेत अश्व के द्वारा स्वर्ग लोक प्राप्त कर लिया, तो अङ्गिरसों ने भी श्वेत वडवा को स्वीकार करके स्वर्ग लोक की प्राप्ति की। उत्तरवेदी, उत्तरकुरु है, जहाँ संज्ञा ने तप किया।[जैमिनीय ब्राह्मण 2.115-121] 
कुरुक्षेत्र में सृष्टि की रचना हुई। यही खाण्डव वन और देवों की यज्ञवेदी है। खाण्डव वन ही बाद में इन्द्रपस्थ बना। यही नागभूमि है और यही रावण का जन्म स्थल बिसरख। वडवाग्नि द्वारा समुद्र जल पान का उल्लेख पृथ्वी या संज्ञा के एक रूप वडवाग्नि के रूप में विकसित होकर असुरों का नाश करता है। उत्कृष्ट रूप में यही यज्ञ की उत्तरवेदी है। यहीं अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ।[ब्राह्मण ग्रन्थ] 
ऋग्वेद की ऋचा 10.17.1  इस कथा को जोड़ती-समर्थन करती है।  
अश्विनी कुमार हमें अपनों से और परायों से संज्ञान प्राप्त करायें। संज्ञा के विराट रूप संज्ञान को प्राप्त होना ही अश्विनौ का जन्म लेना है।[अथर्ववेद 7.54.1]
प्रवर्ग्य नामक यज्ञ में भगवान् श्री हरी रूपी विष्णु का सर कटने पर भी  देवगणों के द्वारा कुरुक्षेत्र में शीर्ष रहित यज्ञ का अनुष्ठान हुआ, जिससे वांछित फलों की प्राप्ति नहीं हुई, तब अश्विनी कुमारों सर्वता की प्राप्ति के लिए यज्ञ के अध्वर्यु नामक ऋत्विज बने और दधीचि से प्राप्त मधु विद्या द्वारा यज्ञ के शीर्ष को जोडा गया।[तैत्तिरीय आरण्यक 4.1.1  तथा शतपथ ब्राह्मण 14.1.1.1]
दधीचि बताते हैं कि मधु विद्या क्या है? रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव इत्यादि अर्थात् कण-कण में उसी परमात्मा के रूप का दर्शन करना मधु विद्या है। इस यज्ञ में अध्वर्यु ऋत्विज यजमान रूपी सूर्य के तेज का क्रमशः विकास करता है। उस सूर्य को आकाश में विचरण करने योग्य, पतन रहित, 12 मास के 12 सूर्यों और 13वें मास के सूर्य को धारण करने वाला, चन्द्रमा, नक्षत्रों और ऋतुओं को धारण करने वाला बनाते हैं। [बृहदारण्यक उपनिषद 2.5.19]
प्रतिप्रस्थाता, अध्वर्यु ऋत्विज का एक सहायक, आसुरी पक्ष, आग्नीध्र तथा अन्य ऋत्विज यजमान-पत्नी या पृथ्वी  को दसों दिशाओं में व्याप्त होने वाली, मनु को वहन करने वाली अश्वा का रूप देते हैं। सूर्य के तेज, जिसे इस यज्ञ में घर्म या प्रवर्ग्य कहते हैं, का विकास पूर्ण हो चुकने पर यज्ञ में काम आने वाले मिट्टी से निर्मित महावीर पात्र तथा अन्य सहायक उपकरणों जैसे परीशास-संडासी आदि को उत्तरवेदी में स्थापित कर दिया जाता है। अश्विनी कुमारों द्वारा मिट्टी का शिवलिंग बनाना गया जो कि यज्ञ रूपी उत्तरवेदी में महावीर सर का प्रतीक है। परीशास आदि यज्ञ के उपकरणों से शरीर की बाहुओं आदि का प्रतीक लिया जाता है। प्रत्येक यज्ञ का एक शीर्ष होता है, जैसे अग्निहोत्र में आहवनीय अग्नि शीर्ष है, दर्श पूर्णमास यज्ञ में आज्यभाग द्वय व पुरोडाश शीर्ष हैं, सोम यज्ञ में हविर्धान यज्ञ का शीर्ष है, चातुर्मास्य में पयस्या यज्ञ की शीर्ष है।[त्वष्टा का रूप, तैत्तिरीय आरण्यक 3.3.1]
अतिथि को भी यज्ञ का शीर्ष कहते हैं। प्रवर्ग्य यज्ञ देवों के यज्ञ में अश्विनौ अध्वर्युओं द्वारा स्थापित शीर्ष अन्य सब यज्ञों को समाहित करता है।[शतपथ ब्राह्मण 14.2.2.48] 
सौत्रामणी यज्ञ :: देवराज इन्द्र ने त्वष्टा विश्वरूप का वध करके उसके यज्ञ कलश में उपलब्ध समस्त सोम को पी लिया। वह सोम इन्द्र के विभिन्न अङ्गों से विभिन्न हिंसक पशुओं के रूप में प्रकट हुआ। अश्वनी कुमारों और सरस्वती ने उसकी चिकित्सा की। [शतपथ ब्राह्मण 12.7.1.1; तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.6.1.1] 
भेषज्य कर्म :: जिस सोमरस का, भक्तिरस का, आह्लाद का इन्द्र ने अचानक पान किया है, वह उसे आत्मसात् करने में समर्थ नहीं हो रहा है। अतः वह आह्लाद नमुचि असुर के रूप में (नमुचि अर्थात् जो एक बार पकड कर मुक्त न करे) तथा हिंसक प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट हो रहा है। उस शक्ति को प्रवाहित होने का सम्यक् मार्ग कैसे दिया जाए? यह जो अतिरिक्त सोम है, यह आश्विन है। अश्वनी कुमारों  के पास इसकी भेषज यह है कि वह इसे ओंकार रूपी रथ पर आरूढ करके उसका वहन करते हैं।[शांखायन ब्राह्मण 18.1] 
अश्वनी कुमार और सरस्वती को भेषज कर्म में संयोग भक्ति के मुख्य रूप से चार प्रकार होते हैं :- हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ और प्रतिहार। इनसे सम्बन्धित पशु क्रमशः अज, अवि, गौ और अश्व हैं। ऋतुओं की दृष्टि से यह चार अवस्थाएं वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा व शरद होती हैं। [जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण 1.3.2.7] 
अज अवस्था अश्विनौ का और अवि अवस्था सरस्वती का ग्रह है, वह यहां आकर स्थित हो सकते हैं। [शतपथ ब्राह्मण 12.7.1.11] 
भक्ति मार्ग में अज और अवि अवस्था को पार करने के पश्चात् गौ और अश्व अवस्थाएं परस्पर मिश्रित हैं। अश्विनी कुमार ही गोमत् और अश्ववत् हैं। जब वह गोमत् होंगे तब उनका नाम नासत्य होगा और वह इन्द्रियों की पुष्टि गौ प्राणों द्वारा करेंगे। [ऋग्वेद 2.41.7, तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.6.13.3 
उनका रथ अरिष्टनेमि प्रकार का होगा। [ऋग्वेद 1.180.10]
अग्नि के वाहन अज रूपी तेज का विकास प्रतिहार अवस्था में चक्षु के तेज के रूप में हो जाता है, ऐसा चक्षु जिसे कण-कण में उस परमात्मा का ही रूप दिखाई पडने लगे, में अश्वनी कुमारों को शरद या प्रतिहार  हैं। [जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण 1.18.2.9]
प्रतिहार से अगली निधन अवस्था में चक्षु ग्रह के बदले श्रोत्र ग्रह बन जाता है। अतः अश्वनी कुमारों कहीं छाग, कहीं चक्षु तो कहीं श्रोत्र हैं। [शतपथ ब्राह्मण 12.8.2.22, 4.1.5.1]
वे कपिला गौ के कर्णों में स्थिति हैं। उन्हें कर्णवेध संस्कार करने वाला कहा गया है। सरस्वती के ग्रह अवि वीर्य  हैं,  जिनका विकास प्राण, अपान, उदान, व्यान आदि अन्य रूपों में होता है। [शतपथ ब्राह्मण 12.8.2.22]
योग की दृष्टि से अवि और असि, वरुणा नदी अथवा इडा या पिङ्गला नाड़ी  हैं, जिनके मिलने से तीसरी सरस्वती या सुषुम्ना नाडी का विकास होता है। 
अन्य सब नदियाँ तो पर्वतों से निकल कर समुद्र में विलीन होती हैं, लेकिन सरस्वती नदी ऐसी है जो विज्ञानमय कोश रूपी सिन्धु से निकलती है। यह सरस्वती या सुषुम्ना या सिन्धु नदी ऐसी है जो हिरण्यवर्तनी है, हिरण्यय कोश के, समाधि अवस्था के बार-बार चक्कर लगाती रहती है और अपने साथ अश्विनौ को भी ले जाती है और रस का आस्वादन कराती है।[ऋग्वेद 5.75.2 तथा 8.26.18] 
अश्विनौ से  प्राणों का उद्धार करने वाली वर्ति में स्थापित करने की प्रार्थना की गई है। [ऋग्वेद 8.26.15] 
अश्विनौ ने वर्तिका को वृक के मुख से बचाया। यह वर्तिका, दीपक की बत्ती यही सरस्वती नाडी है। अश्विनौ का तेज उसे जलाता है।[ऋग्वेद 1.111.6.14] 
अश्विनौ अङ्गों की चिकित्सा आत्मा में की  तथा सरस्वती ने आत्मा को अङ्गों से युक्त किया, अङ्गों द्वारा धारण किया।[तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.6.4.6; शतपथ ब्राह्मण 12.9.1.4]  
यज्ञ के अङ्गों का निर्माण उच्छिष्ट से, अतिरिक्त शक्ति से होता है।[अथर्ववेद 11.9.6]
दिवस काल में अश्विनौ और रात्रि काल में सरस्वती हमारी रक्षा करें।[तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.6.12.3;  2.6.12.6]  
अश्विनौ के रथ को प्रातःकाल में जुडने वाला कहा गया है जो उषा को अपने रथ पर बैठा कर ले जाते हैं।[ऋग्वेद]
नकुल और सहदेव की उत्पति अश्विनी कुमारों से हुई। नकुल अश्वों के विशेषज्ञ और सहदेव गायों के विशेषज्ञ थे।[महाभारत]
विराट के राज्य में सहदेव का नाम अरिष्टनेमि  है। जब अश्विनी कुमार अश्वावत् होंगे तो वे वीर्य और बल की पुष्टि करेंगे। जैसे अश्विनी कुमार रूपवान् हैं, ऐसे ही नकुल व सहदेव भी बहुत रूपवान् हैं, विशेषकर नकुल, क्योंकि स्वर्गारोहण के समय जब नकुल मृत होकर गिर पडते हैं तो युधिष्ठिर उसका कारण बताते हैं कि उनको अपने रूप पर बहुत गर्व था। सहदेव के मृत होने पर उन्होंने कहा कि उनको अपनी प्रज्ञा पर बहुत गर्व था। 
प्रज्ञा द्वारा ही चक्षु पर आरूढ होकर सब रूपों के दर्शन होता है। अतः गौ और अश्व या नकुल और सहदेव को एक दूसरे से अभिन्न हैं।[कौशीतकि उपनिषद 3.4] 
प्राण-अपान का प्रजापति के शरीर को त्यागना और फिर द्वितीया तिथि को अश्विनौ के रूप में पुनः शरीर धारण करने के संदर्भ में अश्विनौ देवता का उल्लेख है।[वराह पुराण]
प्राण-अपान का सम्बन्ध सरस्वती से है।[अथर्ववेद 7.55]
"सवितुः प्रसवितृभ्यां अश्विनौर्बाहुभ्यां पूष्णोः हस्ताभ्यां" इत्यादि। सविता से सव प्राप्त करना ही अश्विनौ का सर्व बनना है। अश्विनौ उस शक्ति को पूषा रूपी वत्स को देते हैं, जो उस शक्ति का सर्वत्र च्यावयन करता है, उसे वितरित करता है।[ऋग्वेद 10.17.1] 
चरक संहिता :: जगत के पालन हार भगवान् विष्णु समुन्द्र मन्थन के परिणाम स्वरूप हाथ में अमृत कलश लेकर धन्वन्तरि के रूप में प्रकट हुए। उन्हें आयुर्वेद का मूल-प्रतिपादक माना जाता है। पुराणों में आयुर्वेद का विस्तृत वर्णन है। इस चिकित्सा पध्यति के अनेकानेक विद्वानों में चरक, शुश्रुत प्रमुख हैं।
चरक वो चिकित्सक थे, जिन्होंने पाचन, चयापचय और शरीर प्रतिरक्षा की अवधारणा दुनिया के सामने रखी। चरक का यह मानना था कि चिकित्सक अपने ज्ञान और समझ का दीप लेकर पहले रोगी के शरीर और मन स्थिति को समझे। उसे उन सब कारणों का अध्‍ययन करना चाहिए, जो कि रोगी को प्रभावित करते हैं। तत्‍पश्‍चात उसका उपचार किया जाना चाहिए।
उन्होंने बताया कि शरीर के कार्य के कारण उसमें तीन स्थाई दोष पाए जाते हैं, जिन्हें पित्त, कफ और वायु के नाम से जाना जाता है। ये तीनों दोष शरीर में जब तक संतुलित अवस्‍था में रहते हैं, व्यक्ति स्वस्थ रहता है। लेकिन जैसे ही इनका संतुलन बिगड़ जाता है, व्यक्ति बीमार हो जाता है। इसलिए शरीर को स्वस्थ करने के लिए इस असंतुलन को पहचानना और उसे फिर से पूर्व की अवस्था में लाना अति आवश्यक है।
भारतवर्ष ही नहीं बल्कि सम्‍पूर्ण विश्व में चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ का सम्पादन किया। चरक संहिता आयुर्वेद का वर्तमान कल में उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ है, जिसमें रोगनिरोधक एवं रोगनाशक दवाओं का उल्लेख है। इसके साथ ही साथ इसमें सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि धातुओं से निर्मित भस्मों एवं उनके उपयोग की विधि बताई गयी है। कुछ लोग भ्रमवश आचार्य चरक को ‘चरक संहिता’ का रचनाकार बताते हैं, पर हकीकत यह है कि उन्होंने आचार्य अग्निवेश द्वारा रचित ‘अग्निवेश तन्त्र’ का सम्पादन करने के पश्चात उसमें कुछ निदान तथा अध्याय जोड़कर उसे नया रूप प्रदान किया। ‘अग्निवेश तंत्र’ का यह संशोधित एवं परिवर्धित संस्‍करण ही बाद में ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना गया।
भारतीय संस्‍कृति में ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता माना गया है। कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने मनुष्यों सहित समस्त जीवधारियों को पैदा किया। जब मनुष्य पैदा हुए, तो उनके साथ भाँति-भाँति के रोग भी उत्त्पन्न हुए। ‘चरक संहिता’ के अनुसार एक बार धरती पर अनेक महामारियों का प्रकोप हुआ। इससे चिंतित होकर तमाम ऋषियों ने हिमालय की तराई में एक बैठक बुलाई। इस बैठक में असित, अगस्त्य, अंगिरा, आस्वराथ्य, आश्वलायन, आत्रेय, कश्यप, कपिंजल, कुशिक, कंकायण, कैकशेय, जमदाग्नि, वसिष्ठ, भृगु, आत्रेय, गौतम, सांख्य, पुलत्स्य, नारद, वामदेव, मार्कण्डेय, पारीक्षी, भरद्वाज, मैत्रेय, विश्वामित्र, भार्गव, च्वयन, अभिजित, गार्ग्य, शाण्डिल्य, कौन्दिन्य, वार्क्षी, देवल, मैम्तायानी, वैखानसगण, गालव, वैजवापी, बादरायण, बडिश, शरलोमा, काप्य, कात्यायन, धौम्य, मारीचि, कश्यप, शर्कराक्ष, हिरण्याक्ष, लौगाक्षी, पैन्गी, शौनक, शाकुनेय, संक्रित्य एवं वालखिल्यगण आदि ऋषियों ने भाग लिया। बैठक में सर्वसम्मति से भरद्वाज को अगुआ चुना गया और बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए उन्हें इन्द्र के पास भेजा गया। इन्द्र ने आयुर्वेद का सम्पूर्ण ज्ञान ऋषि भरद्वाज को दिया। बाद में भरद्वाज ने अपने शिष्य आत्रेय-पुनर्वसु को इस महत्वपूर्ण ज्ञान से परिचित कराया। 
बाद में भारद्वाज ने अपने शिष्‍य आत्रेय-पुनर्वसु को इस महत्‍वपूर्ण ज्ञान से परिचित कराया।
आत्रेय-पुनर्वसु के छ: शिष्य :: अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि। बाद में इन शिष्यों ने अपनी-अपनी प्रतिभानुसार आयुर्वेद ग्रन्थों की रचना की। इनमें से ज्यादातर ने आत्रेय के ज्ञान को ही संग्रहीत किया और उनमें थोड़ा-बहुत परिमार्जन किया। आत्रेय के इन तमाम शिष्‍यों में अग्निवेश विशेष प्रतिभाशाली थे। उनके द्वारा संग्रहीत ग्रन्थ ही कालांतर में ‘चरक संहिता’ के नाम से जाना गया। चूँकि चरक संहिता के रचनाकार अग्निवेश थे, इसलिए उसे ‘अग्निवेश संहिता’ के नाम से भी जाना जाता है।
चरक संहिता का संगठन: चरक संहिता की रचना संस्‍कृत भाषा में हुई है। यह गद्य और पद्य में लिखी गयी है। इसे आठ स्‍थानों (भागों) और 120 अध्‍यायों में विभाजित किया गया है। चरक संहिता के आठ स्‍थान निम्‍नानुसार हैं:
(1). सूत्र स्‍थान :: इस भाग में औषधि विज्ञान, आहार, पथ्‍यापथ्‍य, विशेष रोग और शारीरिक तथा मानसिक रोगों की चिकित्‍सा का वर्णन किया गया है।
(2). निदान स्‍थान :: आयुर्वेद पद्धति में रोगों का कारण पता करने की प्रक्रिया को निदान कहा जाता है। इस खण्‍ड में प्रमुख रोगों एवं उनके उपचार की जानकारी प्रदान की गयी है।
(3). विमान स्‍थान :: इस अध्‍याय में भोजन एवं शरीर के सम्‍बंध को दर्शाया गया है तथा स्‍वास्‍थ्‍यवर्द्धक भोजन के बारे में जानकारी प्रदान की गयी है।
(4). शरीर स्‍थान :: इस खण्‍ड में मानव शरीर की रचना का विस्‍तार से परिचय दिया गया है। गर्भ में बालक के जन्‍म लेने तथा उसके विकास की प्रक्रिया को भी इस खण्‍ड में वर्णित किया गया है।  
यह खण्‍ड मूल रूप में रोगों की प्रकृति एवं उसके उपचार पर केन्द्रित है।
(6). चिकित्‍सा स्‍थान :: इस प्रकरण में कुछ महत्‍वपूर्ण रोगों का वर्णन है। उन रोगों की पहचान कैसे की जाए तथा उनके उपचार की महत्‍वपूर्ण विधियाँ कौन सी हैं, इसकी जानकारी भी प्रदान की गयी है।
(7) व (8). साधारण बीमारियाँ :: ये अपेक्षाकृत छोटे अध्‍याय हैं, जिनमें साधारण बीमारियों के बारे में बताया गया है।
आनुवंशिकी (GENETICS) :: बच्चों में आनुवांशिक दोष जैसे अंधापन, लंगड़ापन, शारीरिक विकृति आदि उनके माता-पिता के किसी अभाव के कारण नहीं, बल्कि उनके शुक्राणु और अण्डाणु के कारण होते हैं।
मनुष्य के शरीर में दाँतों सहित कुल हड्डियों की संख्‍या 360 बताई है। हृदय को शरीर का नियंत्रण केंद्र माना है। हृदय शरीर से 13 मुख्य धमनियों द्वारा जुड़ा रहता है। शरीर में इसके अतिरिक्त भी सैकड़ों छोटी-बड़ी धमनियाँ होती हैं, जो ऊतकों तक भोजन का रस पहुँचाती हैं तथा मल व व्यर्थ पदार्थों को शरीर के बाहर निकालने का कार्य करती हैं।
Brahma Ji evolved the science of medicine-surgery with the process of evolution. Very comprehensive and detailed knowledge pertaining to human body, child formation, growth, development, diseases and cure has been illustrated in Purans. Use of herbs for longevity has been described at length. Chapters on Ayurved of these blogs contain useful knowledge. It has now spread all over the world. No scientific studies are available either in support or to disapprove it. How ever it is still in use in India almost in every nook and corner. A number of Allopathic medicine or Allopathy, are observed to have the basic components of Ayurvedic medicines.
Charak is a term for a wandering recluse-ascetic.
The extant text has eight Sthan (sections), totalling 120 chapters. These sections are :- 
Sutr (General principals) :: 30 chapters deal with Healthy living, collection of drugs and their uses, remedies, diet and duties of a physician.
Nidan (Pathology) :: 8 chapters discuss the pathology-determination of eight chief diseases.
Viman (Specific determination) :: 8 chapters contain pathology, various tools of diagnostics & medical studies and conduct.
Sharir (Anatomy) :: 8 chapters describe embryology & anatomy of a human body.
Indriy (Sensorial prognosis) :: 12 chapters elaborate on diagnosis & prognosis of disease on the basis of senses.
Chikitsa (Therapeutics) :: 30 chapters deal with special therapy.
Kalp (Pharmaceutics and toxicology) :: 12 chapters describe usage and preparation of medicine.
Siddhi (Success in treatment) :: 12 chapters describe general principles of Panch Karm.
Seventeen chapters of Chikitsa Sthan, complete Kalp Sthan and Siddhi Sthan were added later.The text starts with Sutr Sthan which deals with fundamentals and basic principles of Ayurved practice.
Unique scientific contributions credited to the Charak Sanhita include :- a rational approach to the causation and cure of disease introduction of objective methods of clinical examination. 
Direct observation is the most remarkable feature of Ayur Ved (आयुर्वेद), though at times it is mixed up with metaphysics. The Sanhita emphasises that of all types of evidence the most dependable ones are those that are directly observed by the eyes.
Successful medical treatment crucially depends on four factors :: (1). The physician, (2). Substances (drugs or diets), (3). Nurse and (4). Patient.
The qualifications of physician are :- clear grasp of the theoretical content of the science, a wide range of experience, practical skill and cleanliness; qualities of drugs or substances: abundance, applicability, multiple use and richness in efficacy. 
Qualifications of the nursing attendant are :- knowledge of nursing techniques, practical skill, attachment for the patient and cleanliness.
Essential qualifications of the patients are :- good memory, obedience to the instructions of the doctors, courage and ability to describe the symptoms.
Charak (Vol I, Section xv) states :: "These men should be, of good character & behaviour, distinguished for purity, possessed of cleverness and skill, imbued with kindness, skilled in every service a patient may require, competent to cook food, skilled in bathing and washing the patient, rubbing and massaging the limbs, lifting and assisting him to walk about, well skilled in making and cleansing of beds, readying the patient and skilful in waiting upon one that is ailing and never unwilling to do anything that may be ordered".
Charak Sanhita dedicates Chapters 5, 6, 25, 26 and 27 to Ahar Tattv (dietetics-food), stating that wholesome diet is essential for good health and to prevent diseases, while unwholesome food is an important cause of diseases. It suggests that foods are source of heat, nutritive value as well as physiological substances that act like drugs inside human body. Furthermore, along with medicine, Charak Sanhita in Chapters 26 and 27, states that proper nutrition is essential for expedient recovery from sickness or surgery.
Ayurved has been described as the science of eight components-organs (अष्टांग).
Kaya Chikitsa (General medicine) :- Cure of diseases affecting the body.
Kaumar-Bharty and Bal Rog :- Treatment of children.
Shaly Tantr :- Surgical techniques.
Salaky-Tantr (Ophthalmology) :- Cure of diseases of the teeth, eye, nose or ear etc.
Bhut-Vidya :- It deals with the causes, which are directly not visible and not explained directly from tri-dosh (Pitt, Cough and Vayu), pertaining to micro-organisms or spirits-ghosts.
Agad-Tantr :- Gad means Poison, doctrine of antidotes.
Rasayan-Tantr (Geriatrics, Anti Ageing) :- Doctrine of Rasayan, Rejuvenation.
VAJIKARAN TANTR (Aphrodisiacs) :- Deals with healthy and desired progeny.
Ayurved has taken the approach of enumerating bodily substances in the framework of the five classical elements Panch Tattv, Panch Maha Bhoot viz. earth, water, fire, air and ether. Moreover, Ayurveda name seven basic tissues (Dhatu). They are plasma (Ras), blood (Rakt), muscles (Mams), fat (Meda), bone (Asthi), marrow (Majja), and semen (Shukr, Veery).
Panch Maha Bhoot: Ayurveda states that a balance of the three elemental substances, the Dosh, equals health, while imbalance equals disease. There are three dosh: Vat, Pitt and Kaph. One Ayurvedic theory states that each human possesses a unique combination of these dosh-defects-imbalances which define this person's temperament and characteristics. Each person has a natural state, or natural combination of these three elements and should seek balance by modulating their behavioUr or environment. In this way they can increase or decrease the dosh they lack or have an abundance of them respectively. Another view present in the ancient literature states that dosh equality is identical to health, and that persons with imbalance of dosh are proportionately unhealthy, because they are not in their natural state of balance. Prakrati-nature is one of the most important concepts in Ayurved.
DOSH-DEFECTS :: There are 20 qualities or characteristics (Gun, गुण), which are inherent in all substances. They can be arranged in ten pairs of antonyms :- heavy-light, cold-hot, unctuous-dry, dull-sharp, stable-mobile, soft-hard, non slimy-slimy, smooth-coarse, minute-gross, viscous-liquid.
GUN :: Ensuring the proper functions of channels (shrot, source) that transport fluids is one part of Ayurvedic treatment, because a lack of healthy channels is thought to cause diseases. Practitioners treat patients with massages using oils and Swedan (fomentation) to open up these channels.
DIAGNOSIS :: Ayurved has 8 ways of diagnosis. They are Nadi (Pulse, नाड़ी), Mootr (Urine, मूत्र), Mal (Stool, मल), Jivha (Tongue, जिव्हा), Shabd (Speech, शब्द), Sparsh (Touch, स्पर्श), Druk (Vision, द्रक), Akrati (Appearance, आकृति).
Treatment procedures :: Ayurvedic practitioners approach diagnosis by using the five senses. Hearing is used to observe the condition of breathing and speech. The study of the lethal points or marm, (मर्म) is of special importance.
Head massage is used to apply oils.
TREATMENT & HEALTH PROTECTION :: While two of the eight branches of classical Ayurveda deal with surgery (Shaly Chikitsa-Surgery, Salaky -Tantr), contemporary Ayurvedic theory tends to emphasise that building a healthy metabolic system, attaining good digestion and proper excretion lead to vitality. Ayurved also focuses on exercise, Yog, and meditation. To maintain health, a Satvic diet can be prescribed to the patient.
Concepts of Dincharya (Daily Routine, दिनचर्या) are followed in Ayurved. It emphasises the importance of natural cycles (waking, sleeping, working, meditation etc.) for a healthy living. Hygiene, too, is a central practice of Ayurvedic medicine. Hygienic living involves regular bathing, cleansing of teeth, skin care, and eye washing.
Ayurveda stresses the use of plant-based medicines and treatments. Plant-based medicines are derived from roots, leaves, fruits, barks and seeds such as cardamom and cinnamon. Some animal products like milk, bones, and gallstones, may be used. In addition, fats are used both for consumption and for external use. Minerals, including sulphur, arsenic, lead, copper sulphate, gold, silver etc. are also consumed as prescribed.This practice of adding minerals to herbal medicine is known as Ras Shastr (रस शास्त्र, रसायन).
A variety of alcoholic beverages known as Mady (मद्य, अर्क, आसव, काढ़ा) are used in Ayurved. It enhances Pitt dosh and mitigates Vat and Kaph dosh. They are grouped by the raw material and fermentation process and classified as :: sugar based, fruit based, cereal based, cereal base with herbs, fermentation of vinegar and tonic wines. Mady are used for various purposes including to cause purgation, improve digestion and taste, to create dryness and to produce looseness of joints. Ayurved texts describe it as non-viscid, quick in action, enters into minute pores of the body and cleaning them, spreads quickly.
Purified opium the dried latex from the plant capsule is used in eight Ayurvedic preparation. It balances Vat and Kaph Dosh and enhance Pitt Dosh. Used for treatment of certain conditions of diarrhoea and dysentery and also to increase the sexual and muscular powers and produce stupefaction of brain. But, sedative and pain-relieving properties of opium on the human organ was not considered for Ayurvedic treatment purposes. The use of Opium is not found in the ancient Ayurved texts. The therapeutic usage of opium is first mentioned in Sarngadhar Sanhita, as an ingredient of aphrodisiac to delay seminal ejaculation.
Bhaisajya Ratnavali, suggests the use of opium along with camphor for the treatment of acute Gastro-enteritis. In this drug, the respiratory depressant action of Opium was counteracted by the respiratory stimulant property of Camphor. Later books have included the narcotic property for use as analgesic pain reliever.
Cannabis Indica, a plant of Indian origin is use as medicine is first mentioned in Sarngadhara Sanhita, for the treatment of diarrhea. Bhaisajya Ratnavali it has been described as an aphrodisiac.
Both oil and tar were used to stop bleeding. Traumatic bleeding was said to be stopped by four different methods :: ligation of the blood vessel; cauterisation by heat; using different herbal or animal preparations locally which could facilitate clotting; and different medical preparations which could constrict the bleeding or oozing vessels. Various oils could be used in a number of ways, including regular consumption as a part of food, anointing, smearing, head massage, prescribed application to affected areas and oil pulling. Also, liquids may be poured on the patient's forehead, a technique which is called Shirodhara (शिरोधारा).
CATARACT :: Cataract in human eye–magnified view seen on examination with a slit lamp. Cataract surgery is mentioned in the Sushrut Sanhita, as performed with a special tool called the Jaba Mukhi Salaka, a curved needle used to loosen the obstructing phlegm and push it out of the field of vision. The eye would later be soaked with warm butter and then bandaged.
Panch Karm :: Practice of the cleansing, known as Panch Karm, (पंचकर्म‌) is a therapeutic way of eliminating toxic elements from the body. It includes Vaman, Virechan, Basti, Nasy and Rakt Mokshan. Panch Karm is preceded by Poorv Karm (Preparatory Step) and is followed by Pashchat Karm and Peyadi Karm.
SUSHRUT 
SANHITA :: The Sushruta Sanhita is among the most important ancient medical treatises and is one of the fundamental texts of the medical tradition in India along with the Charak Samhita.
It has 184 chapters, listed 1,120 diseases 700 medicinal plants, 64 preparations, from mineral sources and 57 preparations from animal origin. There is evidence to prove that surgical operations were carried out successfully. Anaesthesia was in use and orthopaedic surgery was also conduced with ease, in ancient India much-much before 5,000 years.
600 ईसा पूर्व में सुश्रुत हुए थे। भारत में प्लास्टिक सर्जरी की शुरुआत सुश्रुत ने की। सुश्रुत संहिता में 650 प्रकार की दवाओं का जिक्र है, 42 किस्म की सर्जरी और 300 तरह से ऑपरेशन की व्याख्‍या है। पुराने ऐतिहासिक दस्तावेजों में ये भी कहा गया है कि सर्जरी और ऑपरेशन करने के लिए इस ग्रंथ में चाकू, सुइयां, चिमटे इत्यादि सहित 121 प्रकार के औजारों का इस्तेमाल किया जाता था। इससे पहले भारतीय चिकित्सा शास्त्र के बारे में जानकारी वेदों और चरक संहिता जैसी किताबों से ही मिली थी। कहा जाता है कि इन किताबों में ये जानकारी 3,000 से 1,000 ईसा पूर्व दर्ज हो गई थी।
Statue of Sushrut,  in Royal Australasian College of Surgeons, Melbourne.

सुश्रुत ने अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए। आधुनिक विज्ञान केवल 400 वर्ष पूर्व ही शल्य क्रिया करने लगा है, लेकिन सुश्रुत ने 2,600 वर्ष पर यह कार्य करके दिखा दिया था। सुश्रुत के पास अपने बनाए उपकरण थे जिन्हें वे उबालकर प्रयोग करते थे।
(1). सुश्रुत संहिता दो खण्डों में विभक्त है :: पूर्वतंत्र तथा उत्तरतंत्र। 
पूर्वतंत्र :: पूर्वतंत्र के पाँच भाग हैं :- सूत्रस्थान, निदानस्थान, शारीरस्थान, कल्पस्थान तथा चिकित्सास्थान। इसमें 120 अध्याय हैं, जिनमें आयुर्वेद के प्रथम चार अंगों (शल्यतंत्र, अगदतंत्र, रसायनतंत्र, वाजीकरण) का विस्तृत विवेचन है। (चरकसंहिता और अष्टांगहृदय ग्रंथों में भी 120 अध्याय ही हैं।)
उत्तरतंत्र :: इस तंत्र में 64 अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के शेष चार अंगों (शालाक्य, कौमार्यभृत्य, कायचिकित्सा तथा भूतविद्या) का विस्तृत विवेचन है। इस तंत्र को 'औपद्रविक' भी कहते हैं क्योंकि इसमें शल्यक्रिया से होने वाले 'उपद्रवों' के साथ ही ज्वर, पेचिस, हिचकी, खांसी, कृमिरोग, पाण्डु (पीलिया), कमला आदि का वर्णन है। उत्तरतंत्र का एक भाग 'शालाक्यतंत्र' है जिसमें आँख, कान, नाक एवं सिर के रोगों का वर्णन है।
सुश्रुतसंहिता में आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन है ::
(1). छेद्य (छेदन हेतु),
(2). भेद्य (भेदन हेतु),
(3). लेख्य (अलग करने हेतु),
(4). वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए),
(5). ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए),
(6). अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए),
(7). विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए) और 
(8). सीव्य (घाव सिलने के लिए)
सुश्रुत संहिता में शल्य क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इस महान ग्रन्थ में 24 प्रकार के स्वास्तिकों, 2 प्रकार के संदसों, 28 प्रकार की शलाकाओं तथा 20 प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। ऊपर जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं :-
अर्द्धआधार, अतिमुख, अरा, बदिशा, दंत शंकु, एषणी, कर-पत्र, कृतारिका, कुथारिका, कुश-पात्र, मण्डलाग्र, मुद्रिका, नख शस्त्र, शरारिमुख, सूचि, त्रिकुर्चकर, उत्पल पत्र, वृध-पत्र, वृहिमुख तथा वेतस-पत्र
आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने विशेष जोर दिया है। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है।
इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने 14 प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थिभंग के 12 प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, सुश्रुतसंहिता में कान संबंधी बीमारियों के 28 प्रकार तथा नेत्र-रोगों के 26 प्रकार बताए गए हैं।
सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (ऊतकों) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है। शल्य क्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। ‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।
अस्थिभंग, कृत्रिम अंगरोपण, प्लास्टिक सर्जरी, दंतचिकित्सा, नेत्रचिकित्सा, मोतियाबिंद का शस्त्रकर्म, पथरी निकालना, माता का उदर चीरकर बच्चा पैदा करना आदि की विस्तृत विधियाँ सुश्रुत संहिता में वर्णित हैं।
शल्य चिकित्सा (Surgery) के पितामह और 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व में काशी में हुआ था। 
सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी। सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोडऩे में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। मद्य संज्ञाहरण का कार्य करता था। इसलिए सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शारीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर सरंचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी।
(2). सुश्रुत राजर्षि शालिहोत्र के पुत्र कहे जाते हैं (शालिहोत्रेण गर्गेण सुश्रुतेन च भाषितम्-सिद्धोपदेशसंग्रह)। सुश्रुत ने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। काशीपति दिवोदास का समय ईसा पूर्व की दूसरी या तीसरी शती संभावित है। 
(2.1). बकरे के अंडकोष  से 100 पुरूष की शक्ति प्राप्ति :: 
पिप्‍प्‍लीलवणोपेते बसण्‍डे क्षीर्रस‍पिषि साधिते भक्ष्‍येमद्यस्‍तु स गच्‍छेत् प्रमदाशतम।  [सुश्रुत संहिता, चिकित्‍सा स्‍थानम 26.20]
दूध से निकाले घी में पिप्‍पली और लवण के साथ बकरे के अंडकोशों (read sperms of goat not the kidneys or testicles) को अंड सिद्ध करके जो पुरूष खाता है वो एक सौ त्रियों से रमण कर सकता है। 
पिप्‍प्‍लीलवणोपेते बस्‍ताण्‍डे घृतसाधिते शिशुमारस्‍य वा खदेत्ते तु वाजीकरे भृशम; कुलारकूर्मनक्राणाण्‍डान्‍येवं तु भक्षयेतृ महिषर्षभबस्‍तानां पिबेच्‍दुकाणि वा नर। [सुश्रुत संहिता, चिकित्‍सा स्‍थानम 26.25-27]
घी में तले हुए बकरे के या शिशुमार (उदबिलाव) नामक जंतु के अंडकोशों को पिप्‍पली और सैंधा नमक के साथ खाएं, ये अतिशय वा‍जीकर (सेक्‍स शक्ति बढाने वाले) हैं, केंकड़ा, नक्र (घड़ियाल ) के अंडकोशों को भी इसी प्रकार  खायें अथवा, भैंसे, बैल या बकरे के वीर्य को पीयें। 
(2.2). हाथी, चीते और साँप की खाल से त्वचा के रोग दूर किये जा सकते हैं, तो सांप की खाल से फुल बैरी, अस्थियों की राख से शर्करा नष्‍ट किया जा सकता है, जिन्‍दा मछली से अस्‍थमा का इलाज भी किया जाता है।
Hinduism is purely scientific in nature, is grossly against meat, fish, egg eating or killing of animals or animal or human sacrifice. Only those animals can be killed which eat humans or cattle or destroy crops. The error which has creeped in is due to wrong translation or misinterpretation of words which have several meanings.
(3). गन्ना :: गन्ने को दाँतों से चबाकर उसका रस चूसने पर वह दाहकारी नहीं होता और इससे दाँत मजबूत होते हैं। अतः गन्ना चूस कर खाना चाहिए।
गन्ना रक्तपित्त को नष्ट करने वाला, बल वर्धक, वीर्य वर्धक, कफ कारक, पाक तथा रस में मधुर, स्निग्ध, भारी, मूत्र वर्धक व शीतल होता है। [भावप्रकाश निघण्टु] 
(3.1). पथरी :: ईख चूसते रहने से पथरी टुकड़े -टुकड़े हो कर निकल जाती हैं। 
(3.2). रक्त विकार :: खाने के बाद एक गिलास गन्ने का रस पीने से रक्त साफ होता है। गन्ना नेत्रों के लिए भी हितकर है। 
(3.3). पीलिया :: जौ का सत्तू खाकर ऊपर से गन्ने का रस पियें।  एक सप्ताह में पीलिया ठीक हो जायेगा।  
(3.4). हिचकी :: गन्ने का रस पीने से हिचकी बंद हो जाती है।  
(3.5). शक्तिवर्धक :: ईख भोजन पचाता है।  शक्तिदाता है। पेट की गर्मी, हृदय की जलन को दूर करता है। 
यकृत की कमजोरी वाले, हिचकी, रक्तविकार, नेत्ररोग, पीलिया, पित्त प्रकोप व जलीय अंश की कमी के रोगी को गन्ना चूसकर ही सेवन करना चाहिए। इसके नियमित सेवन से शरीर का दुबलापन दूर होता है और पेट की गर्मी व हृदय की जलन दूर होती है। शरीर में थकावट दूर होकर तरावट आती है। पेशाब की रुकावट व जलन भी दूर होती है।
सावधानी :: मधुमेह, पाचनशक्ति की मंदता, कफ व कृमि के रोग वालों को गन्ने के रस का सेवन नहीं करना चाहिए। कमजोर मसूढ़े वाले, पायरिया व दाँतों के रोगियों को गन्ना चूसकर सेवन नहीं करना चाहिए। 
महर्षि कश्यप :: Maharishi Kashyap wrote a treaties known as the Kashyap Sanhita, which is also known as Vraddh  Jivakiy Tantr, is an important treatise on Ayur Ved written in ancient India by Maharishi Kashyap, which is one of the first Ayur Vedic texts of the ancient world. Kashyap Sanhita is considered, a classical reference book on Ayur Ved especially in the fields of Ayur Vedic Paediatrics, Gynaecology & Obstetrics. It is also now a part of the Ayur Ved teaching syllabus especially in Kaumar Bhratyal Bal Rog (Paediatrics). In the Kashyap Sanhita, the Ayur Ved is taught using question and answer style. The questions relate to the commencement of diseases, diagnosis, treatment, and management, which were asked by his student disciples and then answered by the Sage Kashyap himself.
भारत के कुछ सर्वश्रेष्ठ आयुर्वेद चिकित्सक :: 
(1). अश्विनीकुमार, (2). धन्वंतरि, (3). चरक, (4). च्यवन, (5). सुश्रुत, (6). ऋषि अत्रि, (7). ऋषि भारद्वाज, (8). दिवोदास (काशिराज), (9). नकुल-सहदेव (पांडव पुत्र), (10). अर्कि, (11). जनक, (12). बुध, (13). जावाल, (14). जाजलि, (15). पैल, (16). करथ, (17). अगस्त्य, (18). अथर्व, (19). अत्रि ऋषि के छः शिष्य, (20). अग्निवेश, (21). भेड़, (22). जातूकर्ण, (23). पराशर, (24). सीरपाणि, (25). हारीत, (26). जीवक, (27). बागभट्ट, (28). नागार्जुन, (29). पतंजलि, (30). दक्ष प्रजापति, (31). वरुण देव। 
आयुर्वेद के जन्म दाता ::
(1). अश्विनी कुमार :: ऋग्वेद में इन दो कुमारों का उल्लेख मिलता है। इन्हें आयुर्वेद का आदि आचार्य कहा जाता है। कुछ जगहों नर 33 देवताओं की लिस्ट में इनका भी नाम है। इन्हें सूर्य का औरस पुत्र भी कहा जाता है। ये मूल रूप से चिकित्सक थे। ये कुल दो हैं। एक का नाम 'नासत्य' और दूसरे का नाम 'द्स्त्र' है। ये वताओं के चिकित्सक और रोग मुक्त करने वाले माने जाते हैं। उल्लेखनीय है कि कुंती ने माद्री को जो गुप्त मंत्र दिया था उससे माद्री ने इन दो अश्‍विनी कुमारों का ही आह्वान किया था। 5 पांडवों में नकुल और सहदेव इन दोनों के पुत्र हैं।
वे कुमारियों को पति, वृद्धों को तारुण्य, अंधों को नेत्र देने वाले कहे गए हैं। दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पतिव्रत से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का इन्होंने वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था। कहते हैं कि दधीचि से मधु-विद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर रख दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी।
(2). धन्वंतरि :: भगवान् धन्वंतरि की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुए थी। वे समुद्र में से अमृत का कलश लेकर निकले थे जिसके लिए देवों और असुरों में संग्राम हुआ था। समुद्र मंथन की कथा श्रीमद्भागवत पुराण, महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण आदि पुराणों में मिलती है। इसके बाद काशी के राजवंश में धन्व नाम के एक राजा ने उपासना करके अज्ज देव को प्रसन्न किया और उन्हें वरदान स्वरूप धन्वंतरि नामक पुत्र मिला। इसका उल्लेख ब्रह्म पुराण और विष्णु पुराण में मिलता है। यह समुद्र मंधन से उत्पन्न धन्वंतरि का दूसरा जन्म था। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे।
एक धन्वंतरि काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे। उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए। दिवोदास के काल में ही दशराज्ञ का युद्ध हुआ था। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का स्वर्ण कलश जुड़ा है। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था।
उन्होंने कहा कि जरा-मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। धन्वंतरि आदि आयुर्वेदाचार्यों अनुसार 100 प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही आयुर्वेद निदान और चिकित्सा हैं। आयु के न्यूनाधिक्य की एक-एक माप धन्वंतरि ने बताई है। धन्वंतरि वैद्य को आयुर्वेद का जन्मदाता माना जाता है। उन्होंने विश्वभर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उसके अच्छे और बुरे प्रभाव-गुण को प्रकट किया। धन्वंतरि के हजारों ग्रंथों में से अब केवल धन्वंतरि संहिता ही पाई जाती है, जो आयुर्वेद का मूल ग्रंथ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वंतरिजी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। बाद में चरक आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। धन्वंतरि नाम से और भी कई आयुर्वेदाचार्य हुए हैं। आयु के पुत्र का नाम धन्वंतरि था। गालव ऋषि ने एक वैश्या को पुत्रवतीभव: का आशीर्वाद दिया था जिससे धनवंतरि नाम के एक बालक का जन्म हुआ।
(3). च्यवन :: च्यवन ऋषि ही जड़ी-बुटियों से 'च्यवनप्राश' नामक एक औषधि बनाकर उसका सेवन करके वृद्धावस्था से पुनः युवा बन गए थे। च्यवन ऋषि महान् भृगु ऋषि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम पुलोमा था। इनकी ख्‍याती आयुर्वेदाचार्य और ज्योतिषाचार्य के रूप में है। ग्रंथ का नाम च्यवनस्मृति और जीवदान तंत्र है। च्यवन का विवाह मुनिवर ने गुजरात के भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
(4). चरक :: आयुर्वेद के आचार्य महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है। ऋषि चरक ने 300-200 ईसापूर्व आयुर्वेद का महत्वपूर्ण ग्रंथ 'चरक संहिता' लिखा था। उन्हें त्वचा चिकित्सक भी माना जाता है। आचार्य चरक ने शरीरशास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरणशास्त्र, औषधिशास्त्र इत्यादि विषय में गंभीर शोध किया तथा मधुमेह, क्षयरोग, हृदय विकार आदि रोगों के निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञान को बताया।
चरक एवं सुश्रुत ने अथर्ववेद से ज्ञान प्राप्त करके 3 खंडों में आयुर्वेद पर प्रबंध लिखे। उन्होंने दुनिया के सभी रोगों के निदान का उपाय और उससे बचाव का तरीका बताया, साथ ही उन्होंने अपने ग्रंथ में इस तरह की जीवनशैली का वर्णन किया जिसमें कि कोई रोग और शोक न हो। आठवीं शताब्दी में चरक संहिता का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ और यह शास्त्र पश्चिमी देशों तक पहुंचा। चरक और च्यवन ऋषि के ज्ञान पर आधारित ही यूनानी चिकित्सा का विकास हुआ।
(5). बागभट्ट : वाग्भट का अष्टांगसंग्रह आज भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) के मानक ग्रन्थ हैं। वाग्भट का जन्म सिंधु देश में हुआ था। ये अवलोकितेश्वर के शिष्य थे। इनके पिता का नाम सिद्धगुप्त और पितामह का नाम वाग्भट था। 675 और 685 ईस्वी में जब ह्वेन त्सांग के आने के पूर्व बागभट्ट हुए थे। वाग्भट का समय 5वीं सदी के लगभग का है। इन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को पुन:जीवित कर दिया था।

 
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