AYUR VED (6) आयुर्वेद :: BODY CLEANSING शरीर शोधन

BODY CLEANSING 
शरीर शोधन
AYUR VED (6) आयुर्वेद
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com  hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com   bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com  
santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com   bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com  
 ॐ गं गणपतये नमः।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
ॐ नमों भगवते सुदर्शन वासुदेवाय, धन्वंतराय अमृतकलश हस्ताय, सकला भय विनाशाय, सर्व रोग निवारणाय, त्रिलोक पठाय,  त्रिलोक लोकनिथाये,  ॐ श्री महाविष्णु स्वरूपा,  ॐ श्री श्री ॐ  औषधा चक्र नारायण स्वाहा
वेद मंत्रों में देव शब्द के प्रयोग द्वारा देवताओं की सामूहिक स्तुति की गई है। रोग मुक्त शतायु जीवन की कामना के साथ उपयुक्त मंत्र अथर्ववेद एवं यजुर्वेद में है। दोनों ही वेदों में तत्संबंधी मंत्र ‘पश्येम शरदः शतम्’ से आरंभ होते हैं। 
यह हठ योग की एक क्रिया षटकर्म है, जो कि शरीर को भीतर और बाहर से शुद्ध करने के लिये की जाती है। इसके द्वारा सम्पूर्ण शरीर की शुद्धि होती है एवं देह निरोग रहता है। ये छः क्रियाएँ हैं :- धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक और कपाल भाति। 
धौंति :: 
कासश्वासपलिहकुष्टं कफरोगाश्च विंशतिः। 
धोतिक्रमप्रभावेन प्रयांतयेव  न संशयः[हठ योग प्रदीपिका]
धोती क्रिया से खाँसी, दमा, तिल्ली, कुष्ट तथा बीस प्रकार के कफ दूर होते हैं। यह बार-बार जुकाम होना, गले का पकना, टांसिल, पेट में गैस (अफ़ारा) बनना, अम्लीयता, गलगण्ड, गले की एलर्जी, श्वास सम्बन्धी समस्या आदि को दूर करती है।
हठ योग के अनुसार योगीजन इसके माध्यम से अपने शरीर को स्वस्थ बनाते हैं। जिनका षट्कर्म की क्रियाओं में मुख्य योगदान है। इन सभी धौंतियों के माध्यम से शरीर की आन्तरिक शुद्धी की प्रक्रिया अच्छी तरह से हो जाती है। आमाशय, बड़ी आँत, छोटी आँत की अच्छे तरह से सफाई करके हर प्रकार की गन्दगी तथा विष शरीर से बाहर निकालते हैं और शरीर में ऊर्जा का संचार होने लगता है। 
अन्त्धोतिर्दन्तधोतिर्हद्धोतिर्मूलशोधनम्।  
     धौति चतुर्विद्या कृत्वा घटं कुर्वन्तु निर्मलम्॥[घेरण्ड संहिता]  
चार प्रकार की धौंति :: (1). अन्त धौंति  (2). दन्त धौंति :: (3). हृद्धौति और (4). मूल शोधन-सार (वह्निसार और वहिष्कृत)।[घेरण्ड संहिता] 
(1). अन्त धौंति :: 
वातसारं वारिसारं वह्निसारं बहिष्कृतम्। 
घटस्य निर्मलार्थाय अन्तधौतिचश्तुर्विद्या  
अन्तधौंती में विभिन्न प्रकार से उदर का शोधन होता है।  
इस क्रिया से अमाशय और अन्ननलिका की सफाई होती है। इसमें सफाई हवा, पानी व कपड़े से करते हैं। जिनसे आमाशय के विकार दूर होने लगते हैं। अपच तथा पेट से संबंधित अन्य रोग जैसे कब्ज अम्लता आदि धौति क्रिया से ठीक हो जाते है। इनके अभ्यास से शरीर निर्मल हो जाता है।
(1.1). वात सार अन्तधौंति :: 
काकच्चुवदास्येन पिबेदायु शनै: शनै:। 
चालयेदुदरं पाश्चाद्वतर्मना रेचयेच्छनै:॥  
काकी मुद्रा में, दोनों होठों को कौए की चोंच की तरह बनाकर धीरे-धीरे वायु को पेट में खींचना। उस वायु को उदार में चारों तरफ घुमाकर पुनः मुख द्वारा बहार निकाल देना।                              
इसमें मुँह को कौवे की चोंच की तरह निकालकर हवा खींचकर पेट में भरते हैं और उसे फिर मुँह से निकालते हैं। वातसार से जठर अग्नि उत्पन्न होती है जो भूख को बढाती है। इसका अभ्यास करने से योगी को दूरस्थ श्रवण व दूरस्थ वस्तु दर्शन की शक्ति प्राप्त हो जाती है।[शिव संहिता] 
इस प्रक्रिया में वायु के माध्यम से आन्तरिक अंगो और आमाशय को साफ किया जाता है। अमाशय या अन नलिका में विकार और अशुद्धि होने पर वातसार के माध्यम से वायु पेट में भेजी जाती है। इस वायु के माध्यम से विषाक्त गैस और दुर्गन्ध युक्त वायु बाहर निकल आती है। जिससे पाचन क्रिया तीव्र होती है।  
(1.2) वारिसार अन्त धौंति :: 
आकणठं पूरयेद्वारी वक्त्रेण च पिबेच्छनेः। 
चलयेदुदरेणैव चोदराद्रेचयेदधः॥
इसे शंख प्रक्षालन भी कहते है। कंठ तक जल का पान करके कुछ देर उसे उदर में घुमाकर अधो मार्ग से उसका रेचन कर देना। जल में हल्का सा नमक मिलाते हैं तथा कुछ आसन करके तब तक मल त्याग करते हैं; जब तक कि मलाशय से पानी आना शुरु न हो जाये।
इसमें गले तक पानी पीकर अधोमार्ग से निकालते हैं। इससे देह निर्मल होती है, जिससे देव शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात प्राकृत सांसारिक मल समन्वित शरीर विशुद्ध होकर देव शरीर के समान हो जाता है। 
इस प्रक्रिया में जल के माध्यम से आंतरिक अंगों की सफाई की जाती है। इसमें आमाशय को जल से भर देते है, फिर उसे बाहर निकाल देते है। जल के माध्यम से सफाई करने पर पित और  कफ जो अन नलिका में अधिक मात्रा में रहते है, बाहर निकल जाते है। आँतो में जो विषाक्त पदार्थ चिपके रहते है, वह भी घुलकर बहार निकल आते है।
(1.3). अग्निसार-वहिसार :: 
नाभिग्रंथिम मेरुपृष्ठे शतवारच कारयेत्।
पूर्ण श्वाँस को बाहर निकालकर उदर को उस निश्वांस की स्थिति में ही अंदर-बाहर करना। योगियों के लिए नाभि को पृष्ठस्ठ मेरुपृष्ठ से सौ बार मिलाने को कहा है। 
इसमें अग्नि के माध्यम से पेट की सफाई की जाती है। इसमें अग्नि के द्धारा पेट की सफाई की जाती है। अग्नि से तात्पर्य जठराग्नि से है। इसके माध्यम से आन्तरिक अंगों की सफाई करके पाचन क्रिया को तीव्र करते हैं ताकि पाचन क्रिया ठीक हो जाये है।
इसमें साँस को रोककर और पेट को पिचकाकर नाभि को सौ बार मेरुदड (रीढ़) से लगाना पड़ता है। अग्निसार से योग की सिद्धि होती है। जठर अग्नि प्रदीप्त होती है। 
(1.4) बहिष्कृत अन्त धौंति :: 
काकीमुद्रां शोधयित्वा पूरयेदुदरं मरुत। 
धारयेदर्द्धयामंतु चालयेदधोवर्त्मना॥
काकी मुद्रा में अर्थात दोनों होठो को कौए की चोंच की तरह बनाकर धीरे धीरे वायु पान करके उसे उदर के भीतर आधे पहर तक धारण करके रखना और फिर अधो मार्ग-गुदा मार्ग से बाहर निकल देना। यह धौंति क्रिया आज के परिदृश्य में करनी बड़ी कठिन है। यह क्रिया वास्तव में ही योगियों की क्रिया है। इसे आम ग्रहस्थ नहीं कर सकता है। वही साधक इसे कर सकता है जो किआधे पहर तक श्वांस रोकने की धारण शक्ति को पूर्ण रूप से साध लेता है। इसमें भी वायु का प्रयोग आँतों की सफाई करने के लिये किया जाता है। जिससे छोटी आँत व बडी आँत की सफाई हो जाती है।
इसमें कौवे की चोंच की तरह मुँह करके पेट में हवा भरते हैं और उसे चार दण्ड वहाँ रखकर अधोमार्ग से निकालते हैं। इसके पीछे नाभि तक जल में खड़े होकर आँतों को बाहर निकालकार मल धोते हैं और फिर उन्हें उदर में स्थापित करते हैं।
(2). दन्त धौंति :: 
दंतमूलं जिव्हामूलं रंध्रच् कर्ण युग्मयोः। 
कपालरन्ध्रं पचेते दन्तधौतिम विधीयते॥
दन्त धोती में दाँत, जीभ, दोनों कानों के रंध्र व कपाल रंध्र का शोधन किया जाता है।यहाँ पर इसका जो अर्थ लिया गया है वह है, शीर्ष प्रदेश की सफाई, शीर्ष प्रदेश की स्वच्छता यानि गले से ऊपर का भाग।
(2.1). दन्त मूल धौंति :: 
खादिरेण रसेनाथ मृत्तिकया च शुद्धया। 
माज्ज्रयेददन्तमूलच यावत् किल्विषमाहरेत्॥ 
खैर के रस से या विशुद्ध मिट्टी से दाँतों का प्रक्षालन करना। इसमें दाँत की सफाई की जाती है। 
(2.2). जिह्वा शोधन धौंति :: 
अथातः सम्प्रवक्ष्यामी जिह्वाशोधनकारणम्। तर्जनी मध्यमानामा अंगुलित्रययोगतः। वेशयेद गलमध्ये तू मार्जयेललम्बिकामलम्॥ 
जिह्वा के मूल तक अन्दर पहली तीन अँगुलियाँ (तर्जनी, मध्यमा, अनामिका) को डाल कर जिह्वा का मार्जन करना ही जिह्वा का शोधन है। 
इसको जिह्वा का दोहन, चलन, छेदन भी कहा गया है, जिसका विस्तार पूर्वक वर्णन खेचरी मुद्रा में किया गया है।
जिह्वा मूल की शुद्धि जीभ की चिमटी से खींचकर करते हैं। 
(2.3). कर्ण रंध्र धौंति :: 
तर्जन्यानामिकायोगांमार्जयेत् कर्णरन्ध्रयोः।
जल के द्वारा तर्जनी और अनामिका अँगुली से दोनों कानों का अलग-अलग मार्जन -सफाई, करना है। 
(2.4). कपाल रंध्र धौंति :: 
वृद्धागुष्ठेन दक्षेण मार्जयेद भालरंध्रकम्।
मुख के ऊपर के दाँतों से आगे कपाल के ऊपरी भाग से जो छिद्र ऊपर गया है, उसका अँगूठे से जल द्वारा प्रक्षालन करना। 
इसमें नाक से पानी पीकर मुँह से और मुँह से सुड़ककर नाक से निकालना पड़ता है। 
(3). हद्धौति ::  
रम्भादण्ड हरिद्रादण्डं वेत्रदण्डं तथैव च।  
ह्न्मध्ये चालयित्वा तू पुनः प्रत्याहरेच्छनै॥ 
हद्धौति का अर्थ है ह्रदय प्रदेश की स्वच्छता। हदय की सफाई की यह क्रिया दुति कहलाती है। हदय प्रदेश की सफाई में अत्र नलिका, फेंफड़े और पेट (आमाशय) तीनों का वर्णन किया जाता है। केलेंडर के दण्ड, हल्दी के दण्ड, चिकने बेंत के दण्ड अथवा वट वृक्ष की जटा-डाढि को धीरे-धीरे ह्रदय स्थल पर लगाया जाता है। इससे पित्त, कफ, अकुलाहट आदि विकारी मल बाहर निकल जाते हैं और ह्रदय के सारे रोग नष्ट हो जाते है। इसको भोजन के पूर्व करना चाहिये। हद्धौति का अभ्यास तीन प्रकार से किया जा सकता है। 
(3.1). दण्ड धौति :: इसमें एक हाथ चार अँगुल लम्बा रम्भा दण्ड (केले के पत्तों के मध्य का मोटा भाग) या हरिद्रा दण्ड (हल्दी के पत्तों के मध्य का दण्ड) प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में रबर से बने दण्ड का प्रयोग किया जाता है।
ब्रह्म दातून :: वट वृक्ष में होने वाले वरोह एवं कच्चे सूत में मोम से लगाकर बना, जो प्रारम्भ में कनिष्क अँगुली के तथा बाद में अँगूठे की बराबर हो, को धीरे धीरे उदर में नाभि तक पहुँचाकर उदर को अन्दर-बाहर करते हुए उस दण्ड को एक चक्र में घूमाते है। ध्यान रहे की इसे धीरे-धीरे ही उदर के अन्दर डालें। गले से भीतर जाने पर यह स्वयं ही नाभि तक चला जाता है। 
(3.2). वमन धौंति :: 
भोजनान्ते पिबद्वारी चाकण्ठं पूर्णितं सुधिः। 
उद्धर्वदृष्टिं क्ष्णं कृत्वा तज्जलं वमयेत् पुनः॥ 
कण्ठ तक जल को ग्रहण करके कुछ देर सीधे देख कर वमन द्वारा उसे बाहर निकल देना ही वमन धौंति है। 
इससे कफ व पित्त दोष दूर होता है तथा मूल शोधन से अपच, अजीर्ण, कब्ज जैसी बीमारियाँ दूर होती हैं।
खाली पेट लवण-मिश्रित गुनगुना पानी पीकर छाती हिलाकर वमन की तरह निकाल दिया जाता है। इसको गज करणी भी कहते है, क्योंकि जैसे हाथी सूँड से जल खींचकर फेंकता है, उसी प्रकार इसमें जल पीकर निकाला जाता है। आरम्भ में पानी का निकालना कठिन होता है। तालु से ऊपर छोटी जिह्वा को सीधे हाथ की दो अँगुलियों से दबाने से पानी निकलने लगता है। इसे वारि धौति-कॄञ्जर कर्म भी कहते हैं। 
दो लीटर गरम पानी (40C) में एक चाय-चम्मच नमक मिलायें और सीधे खड़े होकर तेजी से एक के बाद दूसरे गिलास से पूरा पानी पी लें। थोड़ा-सा आगे झुकें। बायें हाथ से पेट का निचला भाग दबायें और अनामिका व मध्यमा (दाँयें हाथ की) अँगुलियों को गले में कुछ अन्दर तक डालें। साथ ही जीभ को भी बाहर निकालें जिससे उलटी आ जाए। पूरा पानी आधा मिनट में फिर बाहर आ जाता है।
यह विधि हर सप्ताह या सप्ताह में दो बार दोहराई जा सकती है और यह प्रात:काल खाली पेट करना सर्वोत्तम है। इसको जल धौति-कुँजल क्रिया भी कहा जाता है।  
उच्च अम्लता, प्रति-ऊर्जा और दमा पर इसका लाभकारी प्रभाव होता है। यह (श्वास की) दुर्गन्ध भी नष्ट करती है। उच्च रक्त-चाप या काला पानी (Glaucoma) होने पर इसका अभ्यास नहीं करें।
हठ योग प्रदीपिका में इसे गज करणी कहा गया है। गज हाथी को कहते हैं। जब हाथी को अपने पेट में उबकायी आती है, तब वह अपनी (ग्रसिका) ग्रीवा में सूँड अन्दर तक डाल देता है और पेट के अन्दर की वस्तुओं को बाहर निकाल फैंकता है। यह विधि पेट में अति अम्लता होने या जब कुछ अपाच्य या बुरा खा लिया हो, तब मिचली से छुटकारा दिलाती है। यह विधि खाद्य प्रति-ऊर्जा (एलर्जी) और दमा भी दूर कर पाती है।
(3.3). वास-वस्त्र-सूत्र धौंति ::
गुरुपदिष्टमार्गेण सिक्तम वस्त्रम शनेग्रसेते। 
पुनः प्रत्यहरेच्चेतदुदितं धोतिकर्म तत[हठ योग प्रदीपिका]
पेट के शुद्धिकरण की इस विधि में सूत की एक तीन मीटर लम्बी, 10 सेमी चौड़ी पट्टी की आवश्यकता होती है। इसका सर्वप्रथम अभ्यास शिक्षक के मार्ग दर्शन में ही करना चाहिये।
यह अति अम्लता को दूर करने में सहायक होती है। यह ऊपरी श्वसन मार्ग को शुद्ध करती है और इस प्रकार दमा, धूल और पराग की प्रति-ऊर्जा (एलर्जी) को दूर करती है।
(4). मूल शोधन (गणेश क्रिया)-सार (वह्निसार और वहिष्कृत) ::
अपानक्रूरता तवद्यावन्मूलं न शोधयेत्। 
 तस्मात सर्व प्रयत्त्नेन मूलशोधनमाचरेत्॥          
मध्यमा अँगुली से जल द्वारा बार बार ध्यान देकर प्रयत्न पूर्वक गुह्य प्रदेश का प्रक्षालन करना ही मूल शोधन है। 
WARNING :: Most of these excises need expert guidance.
वस्ति :: साधारणतया इस क्रिया का प्रयोग कठिन है। उसके स्थान पर एनिमा से काम लिया जा सकता है। इससे आँतों का मल जल के साथ मिलकर पतला हो जाता है और शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल जाता है।
नेति :: नेति, षटकर्म का महत्वपूर्ण अंग है। नेति मुख्यत: सिर के अन्दर वायु-मार्ग को साफ करने की क्रिया है। हठयोग प्रदीपिका और अन्य स्रोतों में नेति के बहुत से लाभ वर्णित हैं। नेति के मुख्यत: दो रूप हैं :- (1). जलनेति, (2). सूत्रनेति। जलनेति में जल का प्रयोग किया जाता है; सूत्र नेति में धागा या पतला कपड़ा प्रयोग में लाया जाता है।
इनके आलावा :: (3). तेलनेति और (4). दुग्धनेेति।
जल नेती :: दोनों नासिका से बहुत ही धीरे-धीरे पानी भीतर खींचें। गिलास की अपेक्षा यदि नलीदार बर्तन हो तो नाक से पानी पीने में आसानी होगी। यदि नहीं होतो पहले एक ग्लास पानी भर लें फिर झुककर नाक को पानी में डुबायें और धीरे-धीरे पानी अन्दर जाने दें। गले की सफाई हो जाने के बाद नाक से पानी पी सकते हैं।
सूत्र नेति :: एक मोटा कोमल धागा, जिसकी लम्बाई बारह इंच हो और जो नासिका छिद्र में आसानी से जा सके, लें। इसे गुनगुने पानी में भिगो लें और इसका एक छोर नासिका छिद्र में डालकर मुँह से बाहर निकालें। यह प्रक्रिया बहुत ही धैर्य से धीरे-धीरे करें। फिर मुँह और नाक के डोरे को पकड़कर धीरे-धीरे दो या चार बार ऊपर-नीचे खींचना चाहिए। इसी प्रकार दूसरे नाक के छेद से भी करना चाहिए। एक दिन छोड़कर यह नेती क्रिया करनी चाहिए।
(3). कपाल नेती :: मुँह से पानी पी कर धीरे-धीरे नाक से निकालें।
नेती क्रिया के लाभ :: 
(1. इससे आँखों की दृष्टि तेज होती है।
(2. इस क्रिया के अभ्यास से नासिका मार्ग की सफाई होती है।
(3. इससे कान, नाक, दाँत, गले आदि के रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है। 
(4. इसे करते रहने से सर्दी, जुकाम और खाँसी की शिकायत नहीं रहती।
(5). इस क्रिया को करने से दिमाग का भारीपन हट जाता है, जिससे दिमाग शान्त, हल्का और स्वस्थ बना रहता है।
(6). नेती क्रिया को मुख्यत: श्वसन संस्थान के अवयवों की सफाई के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इसे करने से प्राणायाम करने में भी आसानी होती है।
सावधानी :: सूत को नाक में डालने से पहले गरम पानी में उबाल लिया जाता है जिससे किसी प्रकार के जीवाणु नहीं रहते। नाक, गले, कान, दाँत, मुँह या दिमाँग में किसी भी प्रकार की समस्या हो तो नेती क्रिया योगाचार्य के मार्ग दर्शन में करना चाहिए। इसे करने के बाद कपालभाती कर लेना चाहिए।
त्राटक  :: इसका सामान्य अर्थ है किसी विशेष दृष्य-चित्र अथवा बिन्दु को टकटकी लगाकर देखना। मन की चंचलता को शान्त करने के लिये साधक इसे करता है। यह ध्यान की एक विधि है जिसमें किसी वाह्य वस्तु को टकटकी लगाकर देखा जाता है।
त्राटक के लिये भगवान्, देवी-देवता, महापुरुष के चित्र, मूर्ति या चिन्ह का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा गोलाकार, चक्राकार, बिन्दु, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य आदि दृष्य का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए त्राटक केंद्र को अपने से लगभग 3 फीट की दूरी पर अपनी आँखों के बराबर स्तर पर रखकर, उसे सामान्य तरीके से लगातार बिना पलक झपकाए जितनी देर तक देख सकें, देखें। मन में कोई विचार न आने दें। धीरे धीरे मन शान्त होने लगेगा। 
एक मोमबत्ती के सामने ध्यान मुद्रा में बैठें। मोमबत्ती को लगभग अपने से एक हाथ की दूरी पर रखें, जिसमें मोमबत्ती की बाती छाती की ऊँचाई पर ही हो। यदि मोमबत्ती बहुत अधिक ऊँचाई पर रख दी जाये तो यह भौहों के केन्द्र पर तनाव उत्पन्न कर सकती है या आँखों में जलन कर सकती है। लौ स्थिर होनी चाहिए और यह कभी कम ज्यादा न हो। आँखें बन्द कर लें। मन ही मन में ध्यान मुद्रा में प्रयुक्त मंत्र का उच्चारण करें। 
आँखें खोलें और बिना पलक झपकाये लौ को देखें। लौ में रंग के तीन अंश हैं। बाती के निचले भाग पर लालिया रंग है, मध्य में यह चमकदार सफेद और सबसे ऊपर थोड़ा सी धुंधली है। लौ के ऊपरी भाग पर दृष्टि को एकाग्र करें जहाँ यह सबसे अधिक चमकदार है।
आँखों को फिर बन्द कर लें। यदि लौ भीतर दिखाई देती है तो बिना किसी तनाव के उस पर ध्यान केन्द्रित करें। प्रतिमा के पीछे जाने का या उसे पकड़ने का प्रयत्न न करें, अन्यथा यह धुंधली होने लगेगी और ओझल हो जायेगी। यह अभ्यास तीन बार दोहरायें।
अभ्यास का समय धीरे-धीरे बढ़ाते जायें। प्रारम्भिक चरणों में लौ पर केवल 10-15 सैकण्ड ही देखें। धीरे-धीरे इस अवधि को बढ़ायें, जिससे लगभग 1 वर्ष बाद लौ की ओर एक मिनट के लिए देख सकें और फिर बन्द आँखों से आन्तरिक प्रतिमा पर लगभग 4 मिनट के लिए ध्यान एकाग्र करें। किसी भी परिस्थिति में यह समय सीमा न बढ़ायें।
त्राटक का अभ्यास काले कागज पर एक सफेद बिन्दु को देखते हुए या सफेद कागज पर काले बिन्दु पर देखते हुए भी किया जा सकता है। जब कोई सफेद बिन्दु पर दृष्टि एकाग्र करता है, वह आँखें बन्द होने पर इसे काली प्रतिमा के रूप में देखता है और काला बिन्दु होने पर यह उलटा हो जाता है।
लाभ :: यह प्रक्रिया आँखों की सफ़ाई करती है और आँखों की माँस पेशियों को मजबूत करती है, दृष्टि और स्मरण शक्ति को बढ़ाती है। यह निद्रा की परेशानियों और रात्रि में बिस्तर गीले करने की आदत को रोकने में सहायक होता है। यह चित्त एकाग्र करने की क्षमता को बढ़ाती है। यह अन्त: दृष्टि, अन्तर्ज्ञान, देखने की क्षमता और इच्छा शक्ति को विकसित करता है।
सावधानी :: यह मानसिक समस्या ग्रस्त व्यक्तियों के लिए उपयुक्त व्यायाम नहीं है। जिन व्यक्तियों की वृत्ति खण्डित मानसिकता या दृष्टि-भ्रम की स्थिति में हो उनको त्राटक का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
नौलि :: पेट की माँस पेशियों को घुमाना। प्रत्येक माँस पेशी को एक दिन में कम से कम एक बार गतिशील अवश्य हो। इससे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह सुचारु रूप से चलता रहता है और अवरोध दूर होते हैं। ऊर्जा पानी के समान है। जो पानी एक जगह ठहरा रहता है, वह अशुद्ध और दुर्गन्ध युक्त हो जाता है। इसके विपरीत, जो पानी बहता रहता है, वह हमेशा शुद्ध रहता है। यही कारण है कि मनुष्य को अपने पेट की माँस पेशियों और आँतों को रोजाना गतिशील करना चाहिये। नौलि अति प्रभावी रूप से पाचन में सहायक है और इस प्रक्रिया में आने वाली रुकावटों को दूर करती है।
विधि :: टाँगों को कुछ चौड़ी करके बिल्कुल सीधे खड़े हों। नाक से गहरा श्वास अन्दर लें। मुख से रेचक करें और आगे की ओर झुकें, पीठ सीधी रखें। घुटनों को थोड़ा-सा मोड़ लें और दोनों हाथों को जाँघों पर रखें। पेट की अगल-बगल की माँस पेशियों को अन्दर की ओर खींचें और इसी के साथ-साथ पेट के मध्य में जो माँस पेशियाँ एक-दूसरे के समानान्तर चलती हैं, उनको सिकोड़ें। इस प्रकार पूरे पेट की खाली जगह में पूरा चूषक प्रभाव बन जाता है। जब पूरक करने की इच्छा हो तब फिर सीधे खड़े हो जायेंऔर पूरक करें। यह प्रक्रिया 5-6 बार दोहराई जा सकती है। कुछ समय तक अभ्यास कर लेने के बाद, मलाशय तौंदल को दायें से बायें, बायें से दायें और बाद में इन माँस पेशियों को एक गोलाकार चक्र में गति देना सम्भव हो जाता है।
लाभ :: नौलि पेट की माँस पेशियों को मजबूत करती है और आँतों व पेट के निचले अवयवों की मालिश करती है। यह रक्तचाप को नियमित करती है और मधुमेह के खिलाफ सुरक्षात्मक प्रभाव उत्पन्न करती है। यह अम्ल शूल और चर्म रोगों (मुहाँसों) को दूर करने में सहायक है।
संपूर्ण पाचक प्रणाली पर सकारात्मक असर और रुकावटें दूर करने से नौलि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम व्यायामों से एक है। बहुत सारे रोगों का मूल मनुष्य की  पाचन प्रणाली ही है यथा सिर दर्द, चर्म रोग, कई बार कैंसर भी। विषैले पदार्थ और व्यर्थ उत्पाद जो समय पर बाहर नहीं निकल पाते वे ही शरीर में जमा हो जाते हैं और विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं।
सावधानी :: यह अभ्यास खाली पेट ही करना चाहिये। गर्भावस्था की स्थिति में या गुर्दे और पित्ताशय में पथरी हो तो इसका अभ्यास नहीं करें।
कपालभाति (हठयोग) :: कपाल अर्थात मस्तक (सिर), भाती अर्थात तेज़, चमकने वाला, प्राणायाम अर्थात साँस लेने की प्रक्रिया। इस प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से मुख पर आंतरिक प्रभा (चमक) से तेज़ उत्पन्न होता है। यह  वज़न कम करने में मदद करता है और पूरे शरीर को संतुलित कर देता है।
कपालभाति के तीन प्रकार ::
वातकृपा कपालभाति :: यह भस्त्रिका प्राणायाम के समान है।  इसका अभ्यास करते समय साँस रोकना और छोड़ना सक्रिय होता है।
विमुक्तकर्म कपालभाति :: जल नेति के समान होता है। इसमें नाक के माध्यम से पानी लिया जाता है और मुँह से बाहर निकलना शामिल है।
शीतकर्मा कपालभाती :: इसको विमुक्तकर्म कपालभाति का उलटा माना जा सकता है, जिसमें पानी मुँह से अन्दर और फिर नाक द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
विधि :: कपाल भाति प्राणायाम करने के लिए रीढ़ को सीधा रखते हुए किसी भी ध्यानात्मक आसन, सुखासन या फिर कुर्सी पर बैठें। इसके बाद तेजी से नाक के दोनों छिद्रों से साँस को यथासम्भव बाहर फेंकें। साथ ही पेट को भी यथासम्भव भीतर की ओर संकुचित करें। तत्पश्चात नाक के दोनों छिद्रों से साँस को भीतर खीचें और पेट को यथासम्भव बाहर आने देें। इस क्रिया को शक्ति व आवश्यकतानुसार 50 बार से धीरे-धीरे बढ़ाते हुए 500 बार तक कर सकते हैे, किन्तु एक क्रम में 50 बार से अधिक न करें। क्रम धीरे-धीरे बढ़ायें।
अभ्यास कम से कम 5 मिनट एवं अधिकतम 30 मिनट तक करें।
लाभ :: इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से शरीर की अनावश्यक चर्बी घटती है। हाजमा ठीक रहता है। भविष्य में कफ से सम्बन्धित रोग व श्वांस के रोग नहीं होते। प्राय: दिन भर सक्रियता बनी रहती है। रात को नींद भी अच्छी आती है। अस्थमा (दमा) का रोग को यह जड़ से खत्म कर देती है। 
 
Contents of these above mentioned blogs are covered under copy right and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS RESERVED WITH THE AUTHOR.

Comments

Popular posts from this blog

ENGLISH CONVERSATION (7) अंग्रेजी हिन्दी वार्तालाप :: IDIOMS & PROVERBS मुहावरे लोकोक्तियाँ

PARALLEL LINE OF HEAD & LINE OF HEART समानान्तर हृदय और मस्तिष्क रेखा :: A TREATISE ON PALMISTRY (6.3) हस्तरेखा शास्त्र

EMANCIPATION ब्रह्म लोक, मोक्ष (Salvation, Bliss, Freedom from rebirth, मुक्ति, परमानन्द)