XXX HEAVEN स्वर्ग

HEAVEN स्वर्ग
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
  By :: Pt. Santosh  Bhardwaj 
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"ॐ गं गणपतये नमः" 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥ 
पृथ्वी लोक के ऊपर जो लोक है, वही स्वर्ग है।
देवताओं का निवास स्थान यही-स्वर्ग लोक माना गया है। जो लोग अनेक प्रकार के सकाम पुण्य और सत्कर्म करके मरते हैं, उनकी आत्माएँ इसी लोक में जाकर निवास करती हैं।
यज्ञ, दान आदि जितने सकाम पुण्य कार्य किए जाते हैं, वे सब स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। वहाँ केवल सुख ही सुख (राग-रंग, मौज़-मस्ती) है, दु:ख, शोक, रोग मृत्यु आदि का नाम भी नहीं है। मनुष्य वहाँ जाकर भगवत्स्मृति खो देता है और राग-रंग में ही लगा रहता है। जो प्राणी जितने ही अधिक सत्कर्म करता है, वह उतने ही अधिक समय तक इस लोक में निवास करने का अधिकारी होता है। परन्तु पुण्यों का क्षय हो जाने अथवा अवधि पूरी हो जाने पर जीव को फिर कर्मानुसार अच्छे कुल-वंश में जन्म लेता है शरीर धारण करना है और यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक उसकी मुक्ति नहीं हो जाती, मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाता।
वहाँ अच्छे-अच्छे फलों वाले वृक्षों, मनोहर वाटिकाओं और अप्सराओं आदि का निवास माना जाता है। मौसम सदा एक सार सुखद-आनन्द दायक रहता है।
वेदों में देवता शब्द से कई प्रकार के भाव लिए गये हैं। साधारणत: मंत्रों के जितने विषय हैं, वे सब देवता कहलाते हैं। कात्यायन ने अनुक्रमणिका में मंत्र के वाच्य विषय को देवता कहा है। निरुक्तकार यास्क ने देवता शब्द को दान, दीपन और द्युस्थान गत होने से निकाला है। देवता के सम्बन्ध में प्राचीन विद्वानों के चार मत पाए जाते हैं, ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्तिक और आध्यात्मिक।
देवता वे व्यक्ति हैं, जिन्हें दिव्य देह और स्वर्ग में निवास की प्राप्ति हुई है। स्वर्ग में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी पाये जाते हैं और से सभी दिव्य प्राणी हैं। यथा पारिजात-हर शृंगार स्वर्ग में पाया जाने वाला दिव्य वृक्ष है।  
ऐतिहासिकों के मत से प्रत्येक मंत्र भिन्न घटनाओं या पदार्थों को लेकर बना है। याज्ञिक लोग मंत्र ही को देवता मानते हैं, जैसा कि जैमिनि ने मीमांसा में स्पष्ट किया है। मीमांसा दर्शन के अनुसार देवताओं का कोई रूप, विग्रह आदि नहीं, वे मंत्रत्मक हैं।
मंत्र -श्लोक ऐसा छंद अथवा काव्यांश है जो दैविक शक्तियों को जाग्रत करने में सक्षम है. इसका शब्दार्थ से अलग भावार्थ भी है। 
याज्ञिकों ने देवताओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया है, सोमप और असोमप। अष्ट वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, प्रजापति और वषट्कार ये 33 सोमप देवता कहलाते हैं। एकादश प्रदाजा, एकादश अनुयाजा और एकादश उपयाजा, असोमप देवता कहलाते हैं। सोमपायी देवता सोम से सन्तुष्ट हो जाते हैं और असोमपायी पशु से तुष्ट होते हैं।
नैरुक्तिक लोग स्थान के अनुसार देवता लेते हैं और तीन देवता मानते हैं अर्थात् पृथ्वी का अग्नि, अन्तरिक्ष का इन्द्र, वायु और द्यु स्थान का सूर्य। बाकी देवता या तो इन्हीं तीनों के अन्तर्भूत हैं अथवा होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता आदि के कर्म भेद के लिए, इन्हीं तीनों के अलग-अलग नाम हैं। ऋग्वेद में कुछ ऐसे मन्त्र भी हैं, जिनमें विभिन्न देवताओं में एक ही के अनेक नाम कहे गए हैं।
वेदों में इंद्र शब्द परमात्मा-परब्रह्म परमेश्वर के लिये प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार अग्नि, वायु, वरुण भी उन्हीं के लिये प्रयोग में लाये जाते हैं। देवगण परमात्मा के विशिष्ठ अंग-अंश भी हैं क्योंकि वे ईश्वर प्रदत्त किसी विशेष कार्य का सम्पादन भी करते हैं। 
बुध्दिमान लोग, इन्द्र, मित्र और अग्नि को एक होने पर भी इन्हें अनेक-अन्य बतलाते हैं।[ऋग्वेद 1.164.46]
यही मंत्र आध्यात्मिक पक्ष वा वेदान्त के मूल बीज हैं। उपनिषदों में इन्हीं के अनुसार एक ब्रह्म की भावना की गयी है।
प्रकृति के बीच जो वस्तुएँ प्रकाशमान, ध्यान देने योग्य और उपकारक देख पड़ीं, उनकी स्तुति या वर्णन ऋषियों ने मंत्रों के द्वारा किया। सामान्यतया जातक देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करते हैं ताकि उन्हें धन-धान्य, युद्ध में विजय, शत्रुओं का नाश, सुख-शान्ति, ऐशो-आराम, बीमारियों-व्याधियों से मुक्ति प्राप्त हो सके।
ऋग्वेद में नामांकित देवतागण :: अग्नि, वायु, इन्द्र, मित्र, वरुण, अश्र्चिद्वय, विश्वेदेवा, मरुद्गण, ऋतुगण, ब्रह्मणस्पति, सोम, त्वष्टा, सूर्य, विष्णु, पृश्नि, यम, पर्जन्य, अर्यमा, पूषा, रुद्रगण, वसुगण, आदित्य गण, उशना, त्रित, चैतन, अज, अहिर्बुध्न, एकयाक्त, ऋभुक्षा, गरुत्मान् इत्यादि का वर्णन है। कुछ देवियों के नाम आये हैं, जैसे माता सरस्वती, माता भगवती, माता लक्ष्मी, माता पार्वती, सुनृता, इला, इन्द्राणी, होत्र, पृथिवी, उषा, आत्री, रोदसी, राका, सिनीवाली, इत्यादि।
ऋग्वेद में मुख्य देवता 33 हैं, 8 वसु 11 रुद्र 12 आदित्य तथा इन्द्र और प्रजापति। कुल देवताओं की सँख्या 33 करोड़ है।[शत्पथ ब्राह्मण] 
देवता मनुष्यों से भिन्न अमर (एक कल्प की आयु) प्राणी हैं। हे असुर वरुण! देवता हों या मर्त्य (मनुष्य) हों, तुम सब के राजा हो।[ऋग्वेद 2.27.10]
यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और पुराणों के अनुसार इन्द्र चन्द्र आदि देवता, महर्षि कश्यप से उत्पन्न हुए। महर्षि कश्यप की दिति नाम की स्त्री से दैत्य और अदिति नाम की स्त्री से देवता उत्पन्न हुए।
ये नद्यौं रुग्रा पृथिवी च दृढ़ा ये नस्व: स्तंभित: येन नाक:। 
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा वि धेम 
जिसने अन्तरिक्ष, दृढ़ पृथिवी, स्वर्लोक, आदित्य तथा अन्तरिक्षस्थ महान जल राशि का निर्माण किया, आओ उसी को भजें।[ऋग्वेद 10.21.1-10]
ईजानश्र्चित मारुक्षदिग्नं नाकस्य पृष्टाद् दिविमुत्पतिष्यन्।
तस्मै प्रभात नभसो ज्योतिमान् स्वर्ग : पन्था : सुकृते देवयान:
[अथर्ववेद 18.4.14]
जो मनुष्य सुख भोग के लोक से प्रकाशमय ‘द्यौ’ लोक के प्रति ऊपर उठना चाहता हुआ और इस प्रयोजन से वास्तविक यजन करता हुआ चित् स्वरूप अग्नि का आश्रय ग्रहण करता है, उस ही शोभन कर्म वाले मनुष्य के लिए ज्योतिर्मय स्वर्ग, आत्म सुख को प्राप्त कराने वाला देव यान मार्ग, इस प्रकाश रहित संसार आकाश के बीच में प्रकाशित हो जाता है।
सह्स्त्रहण्यम् विपतौ अस्ययक्षौं हरेर्हं सस्य पतत: स्वर्गम्।
सदेवान्त्सर्वानुरस्यपदद्य संपश्यन् यातिभुववनानि वि श्र्वा 
[अथर्ववेद 18.8]
स्वर्ग को जाते हुए इस ह्रियमाण या हरणशील जीवात्मा हंस के पंख सह्स्त्रों दिनों से खुले हुए हैं, वह हंस सब देवों को अपने हृदय में लिए हुए सब भुवनों को देखता हुआ जा रहा है।
औषधन्य गदो विद्धाद बीच विविधास्थिति:। 
तपसैवप्रसिधयन्ति तपस्तेषां हि साधनम् 
[मनु संहिता 11. 238, 241]
औषध नीरोगता और विद्या बल तथा अनेक प्रकार से स्वर्ग में स्थिति तपस्या से ही प्राप्त होती है।
कीटाश्र्चाहि पतंगाश्र्चपश्वश्र्च वयांसि च।
स्थावराणि च भूतानि दिवं यान्ति तपो बलात् 
कीट सर्प पतंग पशु पक्षी और स्थावर आदि तपो बल से ही स्वर्ग में जाते हैं।
गब्भ मेके उपज्जन्तिनिरियं पाय कम्मिनो।
सगां सुगतिनोयन्ति परि निब्बन्ति अनासवा[धम्मपद]
कोई-कोई मनुष्य मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं, पापात्मा लोग नरक में उत्पन्न होते हैं। पुण्यात्मा स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। आशातीत महात्मा गण निर्वाण में जाते हैं।
अथर्ववेद में भी उसका वर्णन है-
ईजानश्र्चित मारुक्षदिग्नं नाकस्य पृष्टाद् दिविमुत्पतिष्यन्।
तस्मै प्रभात नभसो ज्योतिमान् स्वर्ग: पन्था: सुकृते देवयान:  

[अथर्ववेद18.4.14]

जो मनुष्य सुख भोग के लोक से प्रकाशमय 'द्यौ' लोक के प्रति ऊपर उठना चाहता हुआ, और इस प्रयोजन से वास्तविक यजन करता हुआ चित् स्वरूप अग्नि का आश्रय ग्रहण करता है, उस ही शोभन कर्म वाले मनुष्य के लिए ज्योतिर्मय स्वर्ग, आत्म सुख को प्राप्त कराने वाला देव यान मार्ग, इस प्रकाश रहित संसार आकाश के बीच में प्रकाशित हो जाता है-

सह्स्त्रहण्यम् विपतौ अस्ययक्षौं हरेर्हं सस्य पतत : स्वर्गम्।
सदेवान्त्सर्वानुरस्यपदद्य संपश्यन् यातिभुववनानि वि श्र्वा । 

अथर्व . 18-8

स्वर्ग को जाते हुए इस ह्रियमाण या हरणशील जीवात्मा हंस के पंख सह्स्त्रो दिनों से खुले हुए हैं, वह हंस सब देवों को अपने हृदय में लिए हुए सब भुवनों को देखता हुआ जा रहा है।
येन॑ । द्यौः । उ॒ग्रा । पृ॒थि॒वी । च॒ । दृ॒ळ्हा । येन॑ । स्व१॒॑रिति॑ स्वः॑ । स्त॒भि॒तम् । येन॑ । नाकः॑ । यः । अ॒न्तरि॑क्षे । रज॑सः । वि॒ऽमानः॑ । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥ १०.१२१.५
येन) जिस परमात्मा ने (उग्रा द्यौः) तेजस्वी द्यौ (च) और (दृढा पृथिवी च) कठोर पृथिवी धारण की है (येन) जिसने (स्वः स्तभितम्) मध्य स्थान को सम्भाला हुआ है (येन नाकः) जिसने मोक्ष धारण किया हुआ है (यः) जो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (रजसः-विमानः) लोकमात्र का विशेषरूप से मानकर्त्ता साधनेवाला है (कस्मै...) पूर्ववत् ॥५॥
परमात्मा तेजस्वी द्युमण्डल को और कठोर पृथिवी को, मध्य स्थान को और लोकमात्र को तथा मोक्षधाम को सम्भाले हुए है, उस ऐसे सुखस्वरूप प्रजापति के लिये उपहाररूप से अपनी आत्मा को समर्पित करना चाहिये ॥५॥

मनु संहिता अध्याय 11 के श्लोक 238 और 241 में स्वर्ग का वर्णन इस प्रकार किया गया है-

'' औषधन्य गदो विद्धाद बीच विविधास्थिति:।

तपसैवप्रसिधयन्ति तपस्तेषां हि साधनम्। ''

''औषध नीरोगता और विद्या बल तथा अनेक प्रकार से स्वर्ग में स्थिति तपस्या से ही प्राप्त होती है''-

 

'' कीटाश्र्चाहि पतंगाश्र्चपश्वश्र्च वयांसि च।

स्थावराणि च भूतानि दिवं यान्ति तपो बलात्। ''

''कीट सर्प पतंग पशु पक्षी और स्थावर आदि तपो बल से ही स्वर्ग में जाते हैं।''

बौद्ध ग्रन्थों में भी स्वर्ग का निरूपण पाया जाता है-'धम्मपद' के निम्नलिखित श्लोक इसका प्रमाण है-

'' गब्भ मेके उपज्जन्तिनिरियं पाय कम्मिनो।

सगां सुगतिनोयन्ति परि निब्बन्ति अनासवा।। ''

''कोई-कोई मनुष्य मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं, पापात्मा लोग नरक में उत्पन्न होते हैं। पुण्यात्मा स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। आशातीत महात्मा गण निर्वाण में जातेहैं-

'' अन्धिभूतो अयं लोको तनु कैत्थ विपस्सति।

सकुन्तो जाल मुत्तोव अप्पो सग्गाय गच्छति।। ''

''यह लोक बिल्कुल अंधकार मय है, इसमें बिरले ही कोई ज्ञानी होते हैं। जाल से मुक्त पक्षी के सामन थोड़े ही मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं।''

  

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