XXX UNIVERSE ब्रह्माण्ड

 UNIVERSE ब्रह्माण्ड

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नमः।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा। 
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥
उस समय अर्जुन ने देवों के देव भगवान् के उस शरीर में एक जगह स्थित अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त सम्पूर्ण जगत् को देखा।[श्रीमद्भगवद्गीता 11.13] 
Arjun found the entire universe divided into various segments at one place in the transcendental body of Bhagwan Shri Krashn, the Ultimate Lord of celestial rulers.
अर्जुन परमात्मा के शरीर में स्थित एक स्थान पर, अनेक विभागों में, विभक्त सम्पूर्ण जगत को देखा। अनन्त ब्रह्माण्ड हैं और अनन्त सृष्टियाँ और इनमें से एक सृष्टि और ब्रह्माण्ड हमारा भी है। हमारे ब्रह्माण्ड में भी अनेकानेक पृथ्वियाँ, सूर्यलोक, देवलोक इत्यादि हैं। ये सभी ब्रह्माण्ड दैविक और भौतिक सृष्टि से व्याप्त हैं। एक स्थान पर अर्जुन ने चराचर, स्थावर-जङ्गम; जरायुज,अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज; जलचर, नभचर-थलचर; 84,00,000 योनियाँ; 14 भुवन; पृथ्वी, समुद्र, आकाश, नक्षत्रों आदि को देखा। अर्जुन भगवान् के शरीर में जहाँ भी नजर डालते, वहीं अनन्त ब्रह्माण्ड उन्हें नजर आते। 
Arjun perceived, (saw, looked) the entire universe divided into various segments at one place in the body of the Almighty Bhagwan Shri Krashn. There were infinite number of universes and creations, including one of our's. Our universe too has many earths, solar systems, heavens, in various galaxies & super galaxies of different shapes, sizes and locations. All these universes are inhabited with physical and divine creations, we call aliens. Arjun saw the whole lot of creations including those born through the sexual and divine births, origins. They included the organism created through eggs, body division, sweat (पसीना) and those who grow inside the body. He saw all the 84,00,000 species, found over the earth, 14 heavens and hells, solar system earth, ocean, sky, constellations etc. Where ever Arjun looked, he found different universes in the body of the God.
SHRIMAD BHAGWAD GEETA (11) श्रीमद्भगवद्गीता :: विश्व रुप दर्शन योग santoshkipathshala.blogspot.com
EARTH'S GEOGRAPHY-पृथ्वी की भौगोलिक रचना :: Position of earth, its islands, planes, oceans, mountains, rivers etc. is described in Purans very precisely with great accuracy. All these land marks are still seen over the earth. Bhagwan Ved Vyas described the figure of earth in one of the Shloks of Maha Bharat like the two leaves of Peeple tree placed one below the other (two components describing America) and two components like the two rabbits sitting together, as seen from the Moon.
भगवान् वेद व्यास पृथ्वी की भौगोलिक रचना का विवरण महाभारत किया गया है। उन्होंने महाभारत में कहा गया है कि यह पृथ्वी चन्द्र मण्डल से देखने पर दो अंशों में खरगोश तथा अन्य दो अंशों में पीपल के दो पत्तों, के समान दिखायी देती है।

यह मानचित्र 11वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य द्वारा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक को पढ़ने के बाद बनाया गया था।
सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। 
परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥ 
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। 
एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ 
द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।
सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्र मण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो में पिप्पल और दो अंशों में महान शश (खरगोश) दिखायी देता है। यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करें, तो पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र के समान है।[वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत]
UNIVERSE ब्रह्माण्ड रचना (1) :: पृथ्वी का विस्तार 50 करोड़ योजन है। यह 7 द्वीपों में विभाजित है। इसके ऊपर स्वर्ग और नीचे सुतल, पाताल, नागलोक आदि हैं। ब्रह्मा जी ने कर्णिका के आकार वाले सुमेरु पर्वत के चारों ओर चारों दिशाओं में पवित्र प्रजा का निर्माण किया और द्वीप-नाम वाले अनेक स्थानों की रचना भी की।
(1.1). उनके मध्य में उन्होंने जम्बू द्वीप की रचना की। इसका प्रमाण एक लक्ष योजन है। उसके बाहर दुगुने परिमाण में लवण-समुद्र है। 
(1.2). उसके बाद उसका दुगुना प्लक्ष द्वीप है। फिर इसके दुगुने प्रमाण वाला बलयाकार इक्षु रस-सागर है।
(1.3). इस महोदधि का दुगुना शाल्मली द्वीप है। उसके बाहर उससे दुगुना सुरा सागर है तथा 
(1.4). उससे दुगुना कुशद्वीप है। कुशद्वीप से दुगुना घृत सागर है।
(1.5). घृत सागर से दुगुना क्रौंच द्वीप तथा उससे भी दुगुना दधि सागर है। 
(1.6). दधि सागर से दुगुना शाक द्वीप और शाकद्वीप से से द्विगुण उत्तम क्षीर सागर है, जिसमें शेष शय्या पर सोये श्री हरी स्थित हैं। ये सभी परस्पर एक दूसरे से द्विगुण प्रमाण में स्थित हैं। जम्बूद्वीप से क्षीर सागर के अंत तक का विस्तार 40 करोड़, 90 लाख, 5 योजन है। 
(1.7). उसके बाद पुष्कर द्वीप एवं तदन्तर स्वादु जल का समुद्र है। पुष्कर द्वीप का परिमाण 4 करोड़ 52 लाख योजन है। उसके चारों ओर उतने ही परिमाण का समुद्र है। उसके चारों ओर लाख योजन का अण्ड कटाह है। ये सातों द्वीप भिन्न धर्मों और क्रिया वाले हैं। प्लक्ष से शाक तक के द्वीपों में जो सनातन-नित्य पुरुष निवास करते हैं, उनमें किसी प्रकार की युग-व्यवस्था नहीं है। वे देवतों के समान सुख भोग करते हैं। कल्प के अंत में उनका प्रलय मात्र वर्णित है। पुष्कर द्वीप के निवासी पैशाच धर्म का पालन करते हैं।[श्री वामन पुराण]
पुष्कर द्वीप को घेरे मीठे जल के सागर के पार उससे दूनी सुवर्णमयी भूमि दिखलाई देती है। वहाँ दस सहस्र योजन वाले लोक-आलोक पर्वत हैं। यह पर्वत ऊँचाई में भी उतने ही सहस्र योजन है। उसके आगे पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए घोर अन्धकार छाया हुआ है। यह अन्धकार चारों ओर से ब्रह्माण्ड कटाह से आवृत्त है। (अन्तरिक्ष) अण्ड-कटाह सहित सभी द्वीपों को मिलाकर समस्त भू-मण्डल का परिमाण-सम्पूर्ण व्यास पचास करोड़ योजन है। 
UNIVERSE ब्रह्माण्ड रचना (2) :: 
(2.1). सूर्य की स्थिति :: पृथ्वी से 1 लाख योजन, भूलोक से सूर्यलोक तक भुवर्लोक।
(2.2). स्वर्गलोक :: सूर्य से ध्रुव लोक तक (14 लाख योजन का अवकाश)। 
(2.3). पृथ्वी से महर्लोक :: 1 करोड़ योजन। 
(2.4). पृथ्वी से जनलोक :: 2करोड़ योजन। 
(2.5). पृथ्वी से तपोलोक :: 4करोड़ योजन। 
(2.6). पृथ्वी से सत्यलोक :: 8करोड़ योजन। 
(2.7). पृथ्वी से बैकुण्ठ धाम :: 16करोड़ योजन। 
(2.8). पृथ्वी से कैलाश धाम :: 16 X 16 (2अरब 56 करोड़ योजन)। 
(2.9). दिव्य बैकुण्ठ धाम ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत नहीं है। 
(2.10). सत्य लोक ही ब्रह्म लोक है ब्रह्म लोक का विस्तार तपोलोक से 6 गुना है। 
(2.11). सूर्य के स्थान से लाख योजन दूर चन्द्रमा का मण्डल। 
(2.12). चन्द्रमा से 1 लाख योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्र मण्डल से 
(2.13). नक्षत्रों की संख्या 80 समुद्र, 14 अरब और 20 करोड़। 
(2.14). नक्षत्र मण्डल से 2 लाख योजन ऊपर बुद्ध का स्थान। 
(2.15). बुद्ध से 2 लाख योजन शुक्राचार्य का स्थान। 
(2.16). शुक्र से लाख योजन ऊपर मंगल, मंगल से 2 लाख योजन ऊपर वृहस्पति, वृहस्पति से 2 लाख योजन ऊपर शनैश्वर, शनैश्वर से 1 लाख योजन सप्तऋषि मण्डल, सप्तऋषि मण्डल से 1 लाख योजन ऊपर ध्रुव।
UNIVERSE ब्रह्माण्ड रचना (3) :: 
(3.1). सुमेरू पर्वत :: इलावृत देश के मध्य में स्थित सुमेरू पर्वत के पूर्व में भद्राश्व वर्ष है और पश्चिम में केतुमाल वर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृत वर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नन्दन कानन नामक वन हैं, जहाँ अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस (मान सरोवर), ये चार सरोवर हैं।
सुमेरू के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक पर्वत हैं, जो अलग-अलग देश की भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं। सुमेरू के उत्तर में नील, श्वेत और श्रृंगी पर्वत हैं, वे भी भिन्न-भिन्न देश में स्थित हैं।
इस सुमेरू पर्वत को प्रमुख रूप से बहुत दूर तक फैले 4 पर्वतों ने घेर रखा है। (3.1.1). पूर्व में मंदराचल, (3.1.2). दक्षिण में गंधमादन, (3.1.3). पश्चिम में विपुल और (3.1.4). उत्तर में सुपार्श्व। इन पर्वतों की सीमा इलावृत के बाहर तक है।
सुमेरू के पूर्व में शीताम्भ, कुमुद, कुररी, माल्यवान, वैवंक नाम वाले आदि पर्वत हैं। सुमेरू के दक्षिण में त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि पर्वत हैं। सुमेरू के उत्तर में शंखकूट, ऋषभ, हंस, नाग और कालंज आदि पर्वत हैं।
(3.2). अन्य पर्वत :: माल्यवान तथा गंधमादन पर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलांचल तथा निषध पर्वत तक फैले हुए हैं। उन दोनों के बीच कर्णिकाकार मेरू पर्वत स्थित है। मर्यादा पर्वतों के बाहरी भाग में भारत, केतुमाल, भद्राश्व और कुरुवर्ष नामक देश सुमेरू के पत्तों के समान हैं। जठर और देवकूट दोनों मर्यादा पर्वत हैं, जो उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा निषध पर्वत तक फैले हुए हैं। पूर्व तथा पश्चिम की ओर गंधमादन तथा कैलाश पर्वत फैला है। इसी समान सुमेरू के पश्चिम में भी निषध और पारियात्र-दो मर्यादा पर्वत स्थित हैं। उत्तर की ओर निश्रृंग और जारुधि नामक वर्ष पर्वत हैं। ये दोनों पश्चिम तथा पूर्व की ओर समुद्र के गर्भ में स्थित हैं।
(3.3). गँगा की नदियाँ :: सुमेरू के ऊपर अंतरिक्ष में ब्रह्माजी का लोक है जिसके आस-पास इन्द्रादि लोकपालों की 8 नगरियाँ बसी हैं। गँगा नदी चन्द्र मण्डल को चारों ओर से आप्लावित करती हुई ब्रह्मलोक (हिमवान पर्वत-हिमालय) पर गिरती है और सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नाम से 4 भागों में विभाजित हो जाती है।
सीता पूर्व की ओर आकाश मार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वत होती हुई अन्त में पूर्व स्थित भद्राश्ववर्ष (चीन की ओर) को पार करके समुद्र में मिल जाती है। अलकनंदा दक्षिण दिशा से भारतवर्ष में आती है और 7 भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है।
चक्षु पश्चिम दिशा के समस्त पर्वतों को पार करती हुई केतुमाल नामक वर्ष में बहते हुए सागर में मिल जाती है। भद्रा उत्तर के पर्वतों को पार करते हुए उतर कुरु वर्ष (रूस) होते हुए उत्तरी सागर में जा मिलती है।
पृथ्वी के मध्य में जम्बू द्वीप है। इसका विस्तार एक लाख योजन का बतलाया गया है। जम्बू द्वीप की आकृति सूर्य मण्डल के समान है। वह उतने ही बड़े खारे पानी के समुद्र से घिरा है। जम्बू द्वीप और क्षार समुद्र के बाद शाक द्वीप है, जिसका विस्तार जम्बू द्वीप से दोगुना है।
वह अपने ही बराबर प्रमाण वाले क्षीर समुद्र से, उसके बाद उससे दोगुना बड़ा पुष्कर द्वीप है, जो दैत्यों को मदोन्मत्त कर देने वाले उतने ही बड़े सुरा समान समुद्र से घिरा हुआ है। उससे परे कुश द्वीप की स्थिति मानी गई है, जो अपने से पहले द्वीप की अपेक्षा दोगुना विस्तार वाला है।
कुश द्वीप को उतने ही बड़े विस्तार वाले दही समान के समुद्र ने घेर रखा है। उसके बाद क्रोंच नामक द्वीप है; जिसका विस्तार कुश द्वीप से दोगुना है, यह अपने ही समान विस्तार वाले घी समान समुद्र से घिरा है।
इसके बाद दोगुना विस्तार वाला शाल्मलि द्वीप है; जो इतने ही बड़े ईख रस समान समुद्र से घिरा हुआ है। उसके बाद उससे दोगुने विस्तार वाले गोमेद (प्लक्ष) नामक द्वीप है; जिसे उतने ही बड़े रमणीय स्वादिष्ट जल के समुद्र ने घेर रखा है।
जम्बू द्वीप के मध्यभाग में मेरु पर्वत है, यह ऊपर से नीचे तक एक लाख योजन ऊँचा है। सोलह हजार योजन तो यह पृथ्वी के नीचे तक गया हुआ है और चौरासी हजार योजन पृथ्वी से ऊपर उसकी ऊँचाई है।
मेरु के शिखर का विस्तार बत्तीस हजार योजन है। उसकी आकृति प्याले के सामान है। वह पर्वत तीन शिखरों से युक्त है, उसके मध्य शिखर पर ब्रह्माजी का निवास है, ईशान कोण में जो शिखर है, उस पर भगवान् शिव का स्थान है तथा नैऋत्य कोण के शिखर पर भगवान् श्री हरी विष्णु की स्तिथ हैं।
मेरु पर्वत के चारों ओर चार विष्कम्भ पर्वत माने गए हैं। पूर्व में मंदराचल, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में सुपार्श्व तथा उत्तर में कुमुद नामक पर्वत है। इनके चार वन हैं, जो पर्वतों के शिखर पर ही स्थित हैं। पूर्व में नन्दन वन, दक्षिण में चैत्र रथ वन, पश्चिम में वैभ्राज वन और उत्तर में सर्वतोभद्र वन है। इन्हीं चारों में चार सरोवर भी हैं।
पूर्व में अरुणोद सरोवर, दक्षिण में मान सरोवर, पश्चिम में शीतोद सरोवर तथा उत्तर में महाह्रद सरोवर है। ये विष्कम्भ पर्वत पच्चीस-पच्चीस हजार योजन ऊचे हैं। इनकी चौड़ाई  भी हजार-हजार योजन मानी गई है।
मेरुगिरी के दक्षिण में निषध, हेमकूट और हिमवान, ये तीन मर्यादा पर्वत हैं। इनकी लम्बाई एक लाख योजन और चौड़ाई दो हजार योजन मानी गई है। मेरु के उत्तर में भी तीन मर्यादा पर्वत हैं :- नील, श्वेत और श्रंग्वान।
मेरु से पूर्व माल्यवान पर्वत है और मेरु के पश्चिम में गन्ध मादन पर्वत है। ये सभी पर्वत जम्बू द्वीप पर चारों ओर फैले हुए हैं। गन्ध मादन पर्वत पर जो जम्बू का वृक्ष है, उसके फल बड़े-बड़े हाथियों के समान होते हैं। उस जम्बू के ही नाम पर इस द्वीप को जम्बू द्वीप कहते हैं।
UNIVERSE ब्रह्माण्ड रचना (4) :: 
14 ABODES :: पुराणों में त्रैलोक्य का वर्णन मिलता है। ये 3 लोक हैं :- (1). कृतक त्रैलोक्य, (2). महर्लोक और (3). अकृतक त्रैलोक्य। कृतक और अकृतक लोक के बीच महर्लोक स्थित है। कृतक त्रैलोक्य जब नष्ट हो जाता है, तब वह भस्म रूप में महर्लोक में स्थित हो जाता है। अकृतक त्रैलोक्य अर्थात ब्रह्म लोकादि, जो कभी नष्ट नहीं होते।
विस्तृत वर्गीकरण के मुताबिक तो 14 लोक हैं :: 7 तो पृथ्वी से शुरू करते हुए ऊपर और 7 नीचे जो कि भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और ब्रह्मलोक। इसी तरह नीचे वाले लोक हैं :- अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल , महातल और पाताल।
(1). कृतक त्रैलोक्य :: कृतक त्रैलोक्य जिसे त्रिभुवन भी कहते हैं, पुराणों के अनुसार यह लोक नश्वर है। गीता के अनुसार यह परिवर्तनशील है। इसकी एक निश्‍चित आयु है। इस कृतक ‍त्रैलोक्य के 3 प्रकार है :- भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक (स्वर्ग)।
(1.1). भूलोक :: जितनी दूर तक सूर्य, चन्द्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी लोक कहलाता है। हमारी पृथ्वी सहित और भी कई पृथ्वियाँ हैं। इसे भूलोक भी कहते हैं।
(1.2). भुवर्लोक :: पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों का मंडल है।
(1.3). स्वर्लोक :: सूर्य और ध्रुव के बीच जो 14 लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्लोक या स्वर्गलोक कहते हैं। इसी के बीच में सप्तऋषियों का मण्डल है।
जब देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान किया था, तब उन्होंने अमृत पीकर उसका अवशिष्ट भाग पाताल में ही रख दिया था। अत: तभी से वहाँ जल का आहार करने वाली असुर अग्नि सदा उद्दीप्त रहती है। वह अग्नि अपने देवताओं से नियंत्रित रहती है और वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती।
इसी कारण धरती के अन्दर अग्नि है अर्थात अमृतमय सोम (जल) की हानि और वृद्धि निरन्तर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृत प्राय: पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं।
पुराणों के अनुसार भू-लोक यानी पृथ्वी के नीचे 7 प्रकार के लोक हैं, जिनमें पाताल लोक अन्तिम है। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है। पाताल लोकों की सँख्या 7 बताई गई है।
विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मण्डल का क्षेत्रफल 50 करोड़ योजन है। इसकी ऊँचाई 70 सहस्र योजन है। इसके नीचे ही 7 लोक हैं, जिनमें क्रम अनुसार पाताल नगर अन्तिम  है।
7 प्रकार के पातालों में जो अन्तिम पाताल है, वहाँ की भूमियाँ शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्ण की तथा शर्करामयी (कंकरीली), शैली (पथरीली) और सुवर्णमयी हैं। वहाँ दैत्य, दानव, यक्ष और बड़े-बड़े नागों और मत्स्य कन्याओं की जातियाँ वास करती हैं। वहाँ अरुणनयन हिमालय के समान एक ही पर्वत है। कुछ इसी प्रकार की भूमि रेगिस्तान की भी रहती है।
(1). अतल :: अतल में मय दानव का पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानवे प्रकार की माया रची है।
(2). वितल :: उसके वितल लोक में भगवान् हाटकेश्वर नामक महादेव जी अपने पार्षद भूतगणों सहित रहते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि वृद्धि के लिए भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के प्रभाव से वहाँ हाट की नाम की एक सुन्दर नदी बहती है।
(3). सुतल :: वितल के नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशश्वी पवित्र कीर्ति विरोचन जी के पुत्र महाराज बाहु बलि रहते हैं। वामन रूप में भगवान् श्री हरी विष्णु ने जिनसे तीनों लोक छीन लिए थे।
(4). तलातल :: सुतल लोक से नीचे तलातल है। वहाँ त्रिपुराधि पति दानव राज मय रहते है। रावण के श्वशुर, मंदोदरी के पिता मय दानव विषयों-वास्तु शास्त्र के परम गुरु हैं।
(5). महातल :: उसके नीचे महातल में कश्यप की पत्नी कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का क्रोधवश नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कहुक, तक्षक, कालिया और सुषेण आदि प्रधान नाग हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं।
(6). रसातल :: उनके नीचे रसातल में पणि नाम के दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवात कवच, कालेय और हिरण्यपुर वासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओं से सदा विरोध रहता है।
(7). पाताल :: रसातल के नीचे पाताल है। वहाँ शंड्‍ड, कुलिक, महाशंड्ड, श्वेत, धनंजय, धृतराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अक्षतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनों वाले नाग रहते हैं। इनमें नागराज वासुकि प्रधान हैं। उनमें किसी के 5, किसी के 7, किसी के 10, किसी के 100 और किसी के 1,000 सिर हैं। उनके फनों की दमकती हुई मणियां अपने प्रकाश से पाताल लोक का सारा अंधकार नष्ट कर देती हैं।
UNIVERSE ब्रह्माण्ड रचना (5) :: 
पृथ्वी के नीचे नरकों की 28 कोटियाँ :: सातवें तल के अन्त में घोर अन्धकार के भीतर उनकी स्थिति है। घोरा, सुघोरा, अतिघोरा, महा घोरा, घोर रूपा, तरल तारा, भयानका, भयोतक्टा, कालरात्रि, महाचंडा, चंडा, कोलाहला, प्रचण्डा, पद्मा, नरकनायिका, पद्मावती, भीषणा, भीमा, करालिका, विकराला, महावज्रा, त्रिकोणा, पञ्चकोटिका, सुदीर्घा, वर्तुला, सप्तभूमा, सुभूमिका, दीप्तमाया। ये सभी कोटियाँ पापियों को कष्ट देने वाली हैं। 
नरकों की 28 कोटियों के 5-5 नायक हैं और इन नायकों के भी 5-5 नायक हैं। वे रौरव आदि नामों से जाने जाते हैं। इन सबकी संख्या 145 है।
कोटि नायक :: तामिस्त्र, अन्धतामिस्त्र, महारौरव, रौरव, असिपत्र वन, लोहभार, कालसूत्र नरक, महानरक, संजीवन, महावीचि, तपन, सम्प्रतापन, संघात, काकोल, कुड्मल, पूत मृत्युक, लोहशङ्कु ऋजीष, प्रधान, शाल्मली वृक्ष और वैतरणी। नरकों की सँख्या पचपन करोड़ है; किन्तु उनमें रौरव से लेकर श्वभोजन तक इक्कीस प्रधान हैं।
प्रधान-मुख्य नर्क :: रौरव, शूकर, रौघ, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विमोहक, रूधिरान्ध, वैतरणी, कृमिश, कृमिभोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, भयंकर, लालभक्ष, पापमय, पूयमह, वहिज्वाल, अधःशिरा, संदर्श, कालसूत्र, तमोमय-अविचि, श्वभोजन और प्रतिभाशून्य अपर अवीचि तथा ऐसे ही और भी भयंकर नर्क हैं।
जम्बूद्वीप :: जम्बूदीप का अर्थ है समग्र द्वीप। पुराणों और विभिन्न अवतारों में सिर्फ जम्बूद्वीप का ही उल्लेख है, क्योंकि उस समय सिर्फ एक ही द्वीप था। जम्बूद्वीप आज के यूरेशिया के लिए प्रयुक्त किया गया है। इस जम्बू द्वीप में भारत खण्ड अर्थात भगवान् विष्णु के अवतार पूर्ववर्ती महाराज भरत का क्षेत्र अर्थात भारत वर्ष स्थित है जो कि आर्यावर्त कहलाता है।
वायु पुराण के अनुसार अब से लगभग 22 लाख वर्ष पूर्व त्रेता युग के प्रारम्भ में स्वयम्भुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भरत खंड को बसाया था। महाराज प्रियव्रत को अपना कोई पुत्र नही था इसलिए, उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था, जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था और इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्ही भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। महाराज ऋषभ और महाराज भरत दोनों को ही भगवान् विष्णु का अवतार माना जाता है। दोनों ने ही स्वेच्छा से राज्य का त्याग कर तपस्या का मार्ग ग्रहण किया। तत्पश्चात महाराज भरत हिरण योनि को प्राप्त हुए और पूर्वजन्म की स्मृति के कारण ब्राह्मण योनि में उत्पन्न होकर ब्रह्मलीन हो गए। 
उस समय के राजा प्रियव्रत ने अपनी कन्या के दस पुत्रों में से सात पुत्रों को सम्पूर्ण पृथ्वी के सातों महाद्वीपों के अलग-अलग राजा नियुक्त किया थे। राजा का अर्थ धर्म और न्यायशील राज्य का संस्थापक और भगवान् श्री हरी विष्णु का प्रतिनिधित्व है। राजा प्रियव्रत ने जम्बू द्वीप का शासक अग्नीन्ध्र को बनाया था। महाराज भरत ने जो राज्य अपने पुत्र को दिया वही भारतवर्ष कहलाया।
भारतवर्ष का अर्थ है राजा भरत का क्षेत्र और इन्ही राजा भरत के पुत्र का नाम सुमति था।
सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत। 
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम॥ 
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:॥ 
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:। 
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत॥[वायु पुराण 31.37, 38]
संकल्प मंत्र में यह स्पष्ट उल्लेख आता है कि जम्बूद्वीपे भरत खण्डे आर्यावर्त देशान्तर्गते।
संकल्प मंत्र में सृष्टि सम्वत के विषय में भी बताते हैं कि अभी एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरहवाँ वर्ष चल रहा है।
हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्।
तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधा:॥[वायु पुराण]
हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है, सामान्तया इसी को  जम्बूद्वीप कहते हैं। 
सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत
[वायु पुराण 31, 37, 38]
पृथ्वी सात महाद्वीपों (1). जम्बू द्वीप, (2). प्लक्ष द्वीप, (3). शाल्मल द्वीप, (4). कुश द्वीप, (5). क्रौंच द्वीप, (6). शाक द्वीप और (7). पुष्कर द्वीप में बँटी हुई है।[पाराशर]
भारतवर्ष :: 
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
स्वायम्भुव मनु से ही मानवी सृष्टि प्रारम्भ हुई। 
इनके कनिष्ठ पुत्र थे प्रियव्रत। उन्होंने रात में भी प्रकाश रखने की इच्छा से ज्योतिर्मय रथ द्वारा सात बार वसुधा तल की परिक्रमा की। इससे जो परिखाएँ बनीं, वे ही सप्तसिन्धु हुए। फिर उनके अन्तर्वर्ती क्षेत्र सात महाद्वीप हुए। ये क्रम से पूर्व-पूर्व के द्विगुणित परिमाण के हैं। ये जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक तथा पुष्कर नाम से प्रसिद्ध हैं तथा क्रमश: क्षारोद, इक्षुरस आदि से घिरे हैं। परिमाण को देखते तथा क्षार समुद्रसे ही आवेष्टित होनेके कारण आज का पूर्ण भूगोल जम्बूद्वीप ही है। प्रियव्रत के दस पुत्रों में से कवि, सवन और महावीर, इन तीन के विरक्त हो जाने के कारण शेष सात इन सात द्वीपों के अधिपति हुए। इनमें से आग्नीध्र जम्बूद्वीप के, इध्मजिह्व प्लक्ष के, यज्ञबाहु शाल्मलिद्वीप के, हिरण्यरेत कुशद्वीप के, घृतपृष्ठ क्रौंचद्वीप के, मेधातिथि शाकद्वीप के और बोतिहोत्र पुष्करद्वीप के अधिपति हुए। 
[देवी भागवत पुराण 8.4.1-28, श्रीमद्धा. 5.1.33, मार्कण्डेय पुराण 53.15-19,  वायुपुराण 33.3-7,  वराहपुराण 74,  कूर्म 40एवं  40.30-40, शिव पुराण, ज्ञान संहिता 47,  स्कन्द महापुराण माहेश्वर खण्ड, कुमारिका खण्ड 31]
जम्बुद्रीपाधिपति आग्नीध्र के नौ पुत्र हुए। ये थे नाभि, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल। सम विभागके लिये जम्बूद्वीप को नौ भागों में बाँट दिया गया और इनके नाम पर ही तत्त द्विभागों के नामकरण हुए।
आत्मतुल्यनामानि यथाभागं जम्बुद्वीपवर्षाणि बुभुजुः।
[श्रीमद्भा. 5.2.21,मार्कण्डेय पुराण 53.31-35, वायुपुराण 33. ब्रह्माण्ड, कूर्मपुराण] 
आठ वर्षोंके नाम तो किंपुरुषवर्ष, हरिवर्ष आदि  ही पड़े, किंतु ज्येष्ठ पुत्र का भाग नाभि से अजनाभ। नाभि के एक ही पुत्र ऋषभ देव थे, जिनकी गणना भगवान् विष्णु के चौबीस अवतारों में की जाती है, वे जैन धर्मके आदि तीर्थकर भी माने जाते हैं। ऋषभदेव के एक सौ पुत्र हुए, जिनमें गुणों में श्रेष्ठ तथा ज्येष्ठ थे, भरत। उनकी अत्यन्त लोकप्रियता तथा सद्गुण शालिता के कारण अजनाभ वर्ष से भारत वर्ष चल पड़ा। 
अजनार्थ नामैतद्र्षं भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति। 
इस वर्ष को, जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरत के समय से ही भारतवर्ष कहते हैं।[श्रीमद्भा.5.7.3] 
 भरतो ज्येष्ठ: श्रेष्ठगुण आसीधेनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति। 
उनमें भरतजी सबसे बड़े और सबसे अधिक गुणवान् थे। उन्हींके नामसे लोग इस अजनाभखण्डको भारतवर्ष कहने लगे।[श्रीमद्भा.5.4.9] 
तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः। 
विख्यातं वर्षमेतद् यन्ताम्ना भारतमद्भुतम्॥
उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान् नारायण के परम प्रेमी भक्त थे। उन्हीं के नाम से यह भूमिखण्ड, जो पहले अजनाभवर्ष कहलाता था, भारतवर्ष कहलाया।[बीमा. 1112.15]
ऋषभाद् भरतो जने ज्येष्ठः पुत्रशतस्य सः। 
ततश्च भारतं वर्ष मेतल्लोकेषु गीयते॥
ऋषभ जी से भरत का जन्म हुआ, जो उनके सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे। तब से यह  हिमवर्ष इस लोक में भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ।[विष्णु पुराण 2.1.28.32]
हिमाहं दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत्।
तस्मात्तद्(तु)भारतवर्षतस्य नाम्ना विदुर्बुधाः॥ 
ऋषभ जी ने दक्षिण की ओर स्थित हिम वर्ष भरत को सौंप दिया। तभी से बुधजन भरत के नाम से इस वर्ष को भारतवर्ष कहने लगे।[वायुपुराण 33.52, ब्रह्माण्ड पुराण 2.14.62]
ऋषभो मेरुदेव्यां च ऋषभाद् भरतोऽभवत्। 
भरताद् भारतं वर्ष भरतात् सुमतिस्त्वभूत्॥
हिमवर्ष के शासक नाभि के, मेरुदेवी से ऋषभ देव पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। ऋषभ के पुत्र भरत हुए। भरत के नाम से भारतवर्ष प्रसिद्ध है।[अग्निपुराण 107.11-12]
ऋषभाद् भरतो ज्ञे वीरः पुत्रशताद् वरः। 
हिमा दक्षिणं वर्ष भरताय पिता दरदौ। 
तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना महात्मनः।
ऋषभ से भरत का जन्म हुआ था, जो कि वीर और अपने सौ भाइयों में सबसे श्रेष्ठ थे। पिता ने दक्षिण की ओर का वर्ष, जिसका नाम हिमालय के नाम पर पड़ा था, भरत को दे दिया। इन्हीं महापुरुष भरत के नाम पर उस वर्ष का नाम भारत वर्ष रखा गया।[मार्कण्डेयपुराण 53.39-41]
ऋषभाद् भरतो भरतें चिरकालं धर्मेण पालितत्वादिदं भारतंवर्षमभूत्। 
ऋषभ से भरतका जन्म हुआ, जिनके द्वारा चिरकालतक धर्मपूर्वक पालित होने के कारण इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।[नारसिंहपुराण 30.7]
आसीत् पुरा मुनिश्रेष्ठ भरतो नाम भूपतिः। 
आर्षभो यस्य नाम्नेदं भारतं खण्डमुच्यते॥
मुनिश्रेष्ठ! प्राचीन काल में भरत नाम से प्रसिद्ध एक राजा हुए थे, जो ऋषभ देवीके पुत्र थे और जिनके उनके नाम पर इस देश को भारतवर्ष कहते हैं।[यूहन्नार दीप पुराण पूर्वभाग 485]
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः। 
भरताय यः पित्रा दत्ता प्रातिष्ठता वनम्। 
ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते।
[कूर्मपुराण, ब्राह्मीसंहिता पूर्व. 40, 41]
दुष्यन्त पुत्र भरत के नाम पर देश का नामकरण भारत वर्ष हुआ, यह परवर्ती मत है। दुष्यन्त पुत्र भरत तो 6 मन्वन्तर इस और 426 दिव्य युगों के बाद हुए। इसके अनन्त वर्ष पूर्व ही देश का नाम भारत हो चुका था। उनके नाम पर क्षत्रियों की एक शाखा भरतवंशी कहलाई, जिससे अर्जुन आदि को भारत कहा गया है। 
भरताद् भारती कीर्तियेनेदं भारतं कुलम्। 
अपरे ये च पूर्वे वै भारता इति विश्रुताः॥
शकुन्तला पुत्र भरत से ही इस भूखण्ड का नाम भारत (अथवा भूमि का नाम भारती) हुआ। उन्हीं से यह कौरव वंश भारत वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके  बाद उस कुल में पहले तथा आज भी जो राजा हो गये तो हैं, वे भारत (भरतवंशी) कहे जाते हैं।[आदिपर्व महाभारत 74.131]
भारता: शब्द बहुवचन है, अतएव बहुत से मनुष्यों का वाचक है। कुल तो स्पष्ट है ही। अभिज्ञान शाकुन्तल या अन्य ग्रन्थों में भी शकुन्तला पुत्र पर देश का नामकरण होनेकी बात नहीं आयी। अतएव उपर्युक्त मत सर्वथा निर्विवाद है।
7 CONTINENTS :: Asia, Africa, North America, South America, Antarctica, Europe and Australia.
ये सातों द्वीप चारों ओर से क्रमशः खारे पानी,नाना प्रकार के द्रव्यों और मीठे जल के समुद्रों से घिरे हैं। ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने हैं और इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं। जम्बुद्वीप इन सब के मध्य में स्थित है।
जम्बुद्वीप में हमारा भारतवर्ष स्थित है। इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत स्थित है। 
इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे कई ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका विस्तार,ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है तथा नीचे तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। 
इस प्रकार यह पर्वत कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।
सुमेरु के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक वर्ष पर्वत हैं, जो भिन्न-भिन्न वर्षों का भाग करते हैं। 
सुमेरु के उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी वर्ष पर्वत हैं। 
इनमें निषध और नील एक एक लाख योजन तक फ़ैले हुए हैं। हेमकूट और श्वेत पर्वत नब्बे-नब्बे हजार योजन फ़ैले हुए हैं। हिमवान और शृंगी अस्सी-अस्सी हजार योजन फ़ैले हुए हैं।
मेरु पर्वत के दक्षिण में पहला वर्ष भारत वर्ष कहलाता है, दूसरा किम्पुरुष वर्ष तथा तीसरा हरि वर्ष है। इसके दक्षिण में रम्यकवर्ष, हिरण्यमयवर्ष और तीसरा उत्तर कुरु वर्ष है। 
उत्तर कुरु वर्ष द्वीप मण्डल की सीमा पार होने के कारण भारतवर्ष के समान धनुषाकार है।
इन सबों का विस्तार नौ हजार योजन प्रतिवर्ष है। इन सब के मध्य में इलावृत वर्ष है, जो कि सुमेरु पर्वत के चारों ओर नौ हजार योजन फ़ैला हुआ है एवं इसके चारों ओर चार पर्वत हैं, जो कि ईश्वरीकृत कीलियाँ हैं, जो कि सुमेरु को धारण करती हैं। 
पूर्व में मंदराचल, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में विपुल, उत्तर में सुपार्श्व स्थित हैं। 
ये सभी दस दस हजार योजन ऊँचे हैं। इन पर्वतों पर ध्वजाओं समान क्रमश: कदम्ब, जम्बु, पीपल और वट वृक्ष हैं। इनमें जम्बु वृक्ष सबसे बड़ा होने के कारण इस द्वीप का नाम जम्बुद्वीप पड़ा है। यहाँ से जम्बु नद नामक नदी बहती है। उसका जल का पान करने से बुढ़ापा अथवा इन्द्रिय क्षय नहीं होता। उसके किनारे की मृत्तिका (मिट्टी) रस से मिल जाने के कारण सूखने पर जम्बुनद नामक सुवर्ण बनकर सिद्ध पुरुषों का आभूषण बनती है।
प्लक्षद्वीप :: प्लक्षद्वीप का विस्तार जम्बूद्वीप से दुगुना है। यहाँ बीच में एक विशाल प्लक्ष वृक्ष लगा हुआ है। यहाँ के स्वामी मेधातिथि जिनके सात पुत्र शान्तहय, शिशिर, सुखोदय, आनंद, शिव, क्षेमक और ध्रुव थे।
यहाँ इस द्वीप के भी भारतवर्ष की भाँति ही सात पुत्रों में सात भाग बाँटे गये, जो कि उन्हीं के नामों पर रखे गये थे :- शान्तहयवर्ष, इत्यादि।
इनकी मर्यादा निश्चित करने वाले सात पर्वत हैं :- गोमेद, चंद्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और वैभ्राज।
इन वर्षों की सात ही समुद्र गामिनी नदियाँ हैं :- अनुतप्ता, शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता। इनके अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियाँ हैं। इन लोगों में ना तो वृद्धि ना ही ह्रास होता है। ये सदा त्रेतायुग के समान रहते हैं। 
यहाँ चार जातियाँ आर्यक, कुरुर, विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। 
यहीं जम्बू वृक्ष के परिमाण वाला एक प्लक्ष (पाकड़) वृक्ष है। इसी के ऊपर इस द्वीप का नाम पड़ा है।
प्लक्षद्वीप अपने ही परिमाण वाले इक्षुरस के सागर से घिरा हुआ है।
शाल्मल द्वीप :: इस द्वीप के स्वामी वीरवर वपुष्मान थे। 
इनके सात पुत्र :- श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ। इनके नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। 
इक्षुरस सागर अपने से दूने विस्तार वाले शाल्मल द्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ है। 
यहाँ भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियाँ और सात ही वर्ष हैं।
इसमें महाद्वीप में कुमुद, उन्नत, बलाहक, द्रोणाचल, कंक, महिष, ककुद्मान नामक 
सात पर्वत हैं।
इस महाद्वीप में :- योनि, तोया, वितृष्णा, चंद्रा, विमुक्ता, विमोचनी एवं निवृत्ति नामक सात नदियाँ हैं।
यहाँ श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ नामक सात वर्ष हैं। 
यहाँ कपिल,अरुण,पीत और कृष्ण नामक चार वर्ण हैं। 
यहाँ शाल्मल (सेमल) का अति विशाल वृक्ष है। 
यह महाद्वीप अपने से दुगुने विस्तार वाले सुरा समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।
कुश द्वीप :: इस द्वीप के स्वामी वीरवर ज्योतिष्मान थे। इनके सात पुत्र उद्भिद, वेणुमान, वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर और कपिल थे। 
इनके नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। 
मदिरा सागर अपने से दूने विस्तार वाले कुश द्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ है। 
यहाँ भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियाँ और सात ही वर्ष हैं।
पर्वत :- विद्रुम, हेमशौल, द्युतिमान, पुष्पवान, कुशेशय, हरि और मन्दराचल।
नदियाँ :- धूतपापा, शिवा, पवित्रा, सम्मति, विद्युत, अम्भा और मही।
सात वर्ष :- उद्भिद, वेणुमान, वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर, कपिल नामक सात वर्ष हैं। 
वर्ण :- दमी, शुष्मी, स्नेह और मन्देह नामक चार वर्ण हैं।
यहाँ कुश का अति विशाल वृक्ष है। 
यह महाद्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।
क्रौंच द्वीप :: इस द्वीप के स्वामी वीरवर द्युतिमान थे। 
इनके सात पुत्र कुशल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि थे। नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। 
यहाँ भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियाँ और सात ही वर्ष हैं।
पर्वत :- क्रौंच, वामन,अन्धकारक, घोड़ी के मुख समान रत्नमय स्वाहिनी पर्वत, दिवावृत, पुण्डरीकवान और महापर्वत दुन्दुभि
नदियाँ :- गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनिजवा, क्षाँति और पुण्डरीका।
सात वर्ष :- कुशल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि।
वर्ण :- पुष्कर, पुष्कल, धन्य और तिष्य। 
यह द्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले शाक द्वीप से घिरा है।
शाक द्वीप :: इस द्वीप के स्वामि भव्य वीरवर थे।
इनके सात पुत्र :- जलद, कुमार, सुकुमार, मरीचक, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं।
यहाँ भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियाँ और सात ही वर्ष हैं।
पर्वत :- उदयाचल, जलाधार, रैवतक, श्याम, अस्ताचल, आम्बिकेय और अतिसुरम्य गिरिराज केसरी।
नदियाँ :- सुमुमरी, कुमारी, नलिनी, धेनुका, इक्षु, वेणुका और गभस्ती।
सात वर्ष :- जलद, कुमार, सुकुमार, मरीचक, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम। 
वर्ण :- वंग, मागध, मानस और मंगद।
यहाँ अति महान शाक वृक्ष है, जिसके वायु के स्पर्श करने से हृदय में परम आह्लाद उत्पन्न होता है। यह द्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले पुष्कर द्वीप से घिरा है।
पुष्कर द्वीप :: इस द्वीप के स्वामी सवन थे।
इनके दो पुत्र :- महावीर और धातकि। 
यहाँ एक ही पर्वत और दो ही वर्ष हैं।
पर्वत :- मानसोत्तर नामक एक ही वर्ष पर्वत है। यह वर्ष के मध्य में स्थित है। यह पचास हजार योजन ऊँचा और इतना ही सब ओर से गोलाकार फ़ैला हुआ है। इससे दोनों वर्ष विभक्त होते हैं और वलयाकार ही रहते हैं।
नदियाँ :- यहाँ नदियाँ या छोटे पर्वत नहीं हैं।
वर्ष :- महवीर खण्ड और धातकि खण्ड। महावीर खण्ड वर्ष पर्वत के बाहर की ओर है और बीच में धातकि वर्ष है। 
वर्ण :- वंग, मागध, मानस और मंगद।
यहाँ अति महान न्यग्रोध (वट) वृक्ष है, जो ब्रह्मा जी का निवास स्थान है, यह द्वीप अपने ही बराबर के मीठे पानी से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।
समुद्र :- यह सभी सागर सदा समान जल राशि से भरे रहते हैं, इनमें जल कभी कम या अधिक नही होता। चन्द्रमा की कलाओं के साथ-साथ जल बढ़ता या घटता है। (ज्वार-भाटा) यह जल वृद्धि और क्षय 510 अँगुल तक देखे गये हैं।
 
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