AYUR VED आयुर्वेद

AYUR VED आयुर्वेद
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं नीराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ॐ नमों भगवते सुदर्शन वासुदेवाय, धन्वंतराय अमृतकलश हस्ताय, सकला भय विनाशाय, सर्व रोग निवारणाय, त्रिलोक पठाय,  त्रिलोक लोकनिथाये,  ॐ श्री महाविष्णु स्वरूपा,  ॐ श्री श्री ॐ  औषधा चक्र नारायण स्वाहा
वेद मंत्रों में देव शब्द के प्रयोग द्वारा देवताओं की सामूहिक स्तुति की गई है। रोग मुक्त शतायु जीवन की कामना के साथ उपयुक्त मंत्र अथर्ववेद एवं यजुर्वेद में है। दोनों ही वेदों में तत्संबंधी मंत्र ‘पश्येम शरदः शतम्’ से आरंभ होते हैं। 
आयुर्वेद भारत में प्रचलित दुनिया की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति है, जिसका उदय वेदों से हुआ है। भगवान् श्री विष्णु से यह ज्ञान ब्रह्मा जी प्राप्त हुआ। भगवान् के अवतार धन्वतरि ने इसे प्रतिपादित किया। समय के साथ-साथ इसमें महर्षि भरद्वाज, चरक, शुश्रतु जैसे महान आचार्य जुड़ते चले गये जिन्होंने इसका विकास अपने तपोबल से किया। इस ज्ञान भण्डार का सात्विक एवं विमल बुद्धि में पूर्वजन्मों के संचित संस्कारों के परिणाम स्वरूप प्रादुर्भाव भी होता है।
चरक मत के अनुसार मृत्युलोक में आयुर्वेद के अवतरण के साथ अग्निवेश का नामोल्लेख है। सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया।
फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनतर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में से अग्निवेश ने अग्निवेश तंत्र की रचना की, जिसका प्रति संस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरक संहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।
सुश्रुत के अनुसार काशीराज देवीदास के रूप में अवतरित भगवान् धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षियों के साथ सुश्रुत आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये। भगवान् धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय-शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्प मेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया।
धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन बह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। पुनः भगवान् धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा जी से दक्ष प्रजापति, उनसे अश्विनी कुमारों तथा उनसे देव राज इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया।
चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता में वर्णित इतिहास एवं आयुर्वेद के अवतरण के क्रम में क्रमशः आत्रेय सम्प्रदाय तथा धन्वन्तरि सम्प्रदाय ही मान्य है।
चरक मतानुसार-आत्रेय सम्प्रदाय।
सुश्रुत मतानुसार-धन्वन्तरि सम्प्रदाय।
आयुर्वेद का मूल वेद हैं। आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है। चरक, सुश्रुत, कश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। 
अश्विनी कुमार आरोग्य, दीर्घायु शक्ति प्रजा वनस्पति तथा समृद्धि शक्ति के प्रदाता कहे गये हैं। वे सभी प्रकार की औषधियों के ज्ञाता थे। आथर्वण, दधीचि से उन्होंने मधु विद्या और प्रग्वय विद्या प्राप्त की थी, जिससे वे मधु विद्या विशारद हुए। 
अश्विनौ अंग प्रत्यारोपण तथा संजीवनी विद्या में कुशल थे, इनके अतिरिक्त वे पशु चिकित्सा में भी दक्ष थे। गौ के बन्ध्यात्व को दूर कर उसे संतान तथा प्रभूत स्तन्य प्रदान किया। 
आयुर्वेद के सिद्धान्त शाश्वत सत्य है। सत्य से लाभ उठाने का अधिकार मानव मात्र को है। 
नात्मार्थ नाऽपि कामार्थम् अतभूत दयां प्रतिः। 
वर्तते यश्चिकित्सायां स सर्वमति वर्तते॥[च. चि. 1.4.58]
जो अर्थ तथा कामना के लिए नहीं, वरन् भूत दया अर्थात् प्राणि मात्र पर दया की दृष्टि से चिकित्सा में प्रवृत्त होता है, वह सब पर विजय प्राप्त करता है। आयुर्वेद प्राणि मात्र के हितार्थ ही प्रकाशित एवं पूर्ण नियोजित है।
किमथर्मायुर्वेदः। [च.सू. 30.26] 
आयुर्वेद का क्या प्रयोजन है? 
प्रयोजनं चास्य स्वास्थस्य स्वास्थ्य रक्षणमातुरस्य विकार प्रशमनं च।
इस आयुर्वेद का प्रयोजन पुरुष के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना है।
इस संदर्भ में आयुर्वेद का प्रयोजन सिद्ध करते हुए कहा गया है :-
आयुः कामयमानेन धर्माथ सुखसाधनम्।
अश्विनौ पक्षी के दो पंखों के समान कहे गये हैं :- ज्ञान (सिद्धांत) एवं कर्म (व्यवहार) भी आयुर्वेद के दो पक्ष कहे गये हैं, जिनमें एक भी त्रुटि पूर्ण हो तो गति नहीं हो सकती। अतएव भीषण को उभय होने का उपदेश किया है :-
उभयज्ञो हि भिषक् राजाहोर् भवति।[सु.सू. 3.45]
अश्विन्नौ के अतिरिक्त इन्द्र के भी चिकित्सा सम्बन्धी प्रसंग ऋग्वेद में उद्धृत हैं। यथा :- अपाला के चर्मरोग तथा उसके पिता के खालित्य रोग का निवारण, अंधपरावृज को दृष्टिदान तथा पंगु श्रोणि को गतिदान आदि।
औषधियों के संबंध में ऋग्वेद का ओषधि सूक्त (10-47) महत्त्वपूर्ण है। इसमें औषधियों के स्वरूप, स्थान, वर्गीकरण तथा उनके कर्मों एवं प्रयोगों का स्पष्ट उल्लेख है। औषधियाँ अंग-अंग, पर्व-पर्व में फैलकर अपना प्रभाव दिखाती हैं। आभ्यन्तर प्रयोग के साथ- साथ औषधियों का मणि धारण (हाथ में बाँधना) भी किया जाता था। औषधियों के प्रयोग में युक्तिव्यपा श्रय तथा दैवयपाश्रय दोनों तथ्य सन्निहित थे। भीषण औषधियों का ज्ञाता होता था। जिनके द्वारा वह राक्षसों का नाश तथा रोगों का निवारण करता था, वह रक्षोहा तथा अमीबचातन दोनों था :-
यत्रौषधीः समग्मत राजानः समिताविव।
विप्र स उच्यते भिषग् रक्षोहामीबचातन॥[ऋ० 10.17.6] 
रोगों के समवायि कारण (दोष) तथा निमित्त कारण (क्रिमि) औरी दोष प्रयत्न पूर्वक चिकित्सा का स्पष्ट संकेत हैं :-
साकं यक्ष्म प्रपत चाषेण किकिदीविना।
साकं वातस्य साकं नश्य निहाकया॥[ऋ० 10.17]
त्रिदोष वाद का भी संकेत उपलब्ध है :-
"त्रिधातुवहतं शुभस्पती" [1.3.4.6] तथा "इन्द्रं त्रिधातु शरणं" [4.7.28]
आयुर्वेद का प्रयोजन :: विधाता की सर्वोत्कृष्ठ सृष्टि मानव है और मानव इहलोक में पुरुषार्थ प्राप्ति के लिए स्वभावतः ही प्रयुक्त होता है और पुरुषार्थ प्राप्ति के लिए आयुर्वेद की आवश्यकता है और दीर्घायु आरोग्य के संरक्षण से ही प्राप्त हो सकती है। जीवन दर्शन में आयुर्वेद का सम्बन्ध मानव के स्वास्थ्य संरक्षण के साथ-साथ व्यापक रूप से आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक एवं सामाजिक पक्षों से भी है। यह अथर्ववेद का उपवेद है। यह पूर्णरूपेण वैज्ञानिक, शाश्वत, सत्य एवं अपने में परिपूर्ण है। 
सत्तायां विद्यते ज्ञाने वेत्ति विन्ते विचारणे, 
विदन्ते विन्दति प्राप्तौ रूपार्था हि विदः स्मृताः॥ 
आयुर्वेद आयु और वेद के योग से बना है। आयु का अर्थ जीवन और वेद जो विद् धातु से बना है, का अर्थ है :- ज्ञान होना, जानना, विचार करना एवं पाना।
''आयुषो वेदः आयुर्वेदः''
वेद का अर्थ ज्ञान है और आयु का ज्ञान जिससे हो, वह आयुर्वेद है। इसका तात्पर्य यह है कि आयुर्वेद आयु से संबंधित समस्त विषयों के ज्ञान का भण्डार है। 
आयुर्वेद का लक्षण एवं आयु :: 
हिताहित सुखं दुःखं आयुस्तस्य हिताहितम्
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥[च.सू. 1.41] 
हितायु, अहितायु, सुखायु एवं दुःखायु: इस प्रकार चतुर्विध जो आयु है, उस आयु के हित तथा अहित अर्थात् पथ्य और अपथ्य आयु का प्रमाण एवं उस आयु का स्वरूप जिसमें कहा गया हो, वह आयुर्वेद है। 
इन्द्रिय, शरीर, मन और आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं। धारी, जीवित, नित्ययोग, अनुबंध और चेतना शक्ति का होना, ये आयु के पर्याय हैं। [चरक] 
शरीरेन्दि्रयसत्वात्मसंयोगो धारी जीवितम् 
नित्यगश्चानुबन्धश्च पर्प्यायैरायुरुच्यते॥[च.सू. 1.42]
शरीर, इन्द्रिय, मन एवं आत्मा के संयोग का नाम ही आयु है और उस आयु के नामान्तर निम्न हैं :-
(1). धारी :: धारक शरीर को सड़ने नहीं देता है, अतः शरीर का धारण करता है। 
(2). जीवित :: प्राण को धारण करता है। 
(3). नित्ययोग :: प्रतिदिन आयु आती- जाती रहती है। 
(4). आयु का सम्बन्ध :: पर-अपर शरीर से या प्राण से सदा लगा रहता है।
तत्रायुश्चेतनानुवृतिः।[च.सू. 30.22]
गर्भ से मरणपर्यन्त चेतना के रहने को आयु कहा गया है।
शरीर और जीव के योग को जीवन और उसके साथ जुड़े हुए काल को आयु कहते हैं।
शरीर जीवयोर्योगः जीवनं तदावविच्छन्नकालः आयुः।   
शरीर  और जीव के संयोग जीवन  साथ जुड़े हुए काल आयु कहते हैं।  
आयुर्वेद (आयुः + वेद = आयुर्वेद), आयुष + वेद, जीवन का ज्ञान। यह विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली  है।
(1). हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥
BHAGWAN DHANVANTRI
जिस विद्या में हित अर्थात जीवन के अनुकूल, अहित अर्थात जीवन के प्रतिकूल, सुख अर्थात स्वस्थ जीवन एवं दुःख अर्थात रोग अवस्था का वर्णन हो वह आयुर्वेद है।[चरक संहिता 1.400]
(2). आयुर्वेदयति बोधयति इति आयुर्वेदः।
जो शास्त्र (विज्ञान) आयु-जीवन का ज्ञान कराता है, उसे आयुर्वेद कहते हैं।
(3). स्वस्थ व्यक्ति एवं आतुर (रोगी) के लिए उत्तम मार्ग बताने वाला विज्ञान आयुर्वेद है।
(4). जिस शास्त्र में आयु शाखा (उम्र का विभाजन), आयु विद्या, आयु सूत्र, आयु ज्ञान, आयु लक्षण (प्राण होने के चिन्ह), आयु तंत्र (शारीरिक रचना शारीरिक क्रियाएं) आदि की जानकारी मिलती है, वह आयुर्वेद है।
(5). आयुर्विज्ञान चिकित्सा शास्त्र की वह शाखा है, जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।
(6). प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं आतुरस्यविकारप्रशमनं च।
[चरक संहिता सूत्र स्थान 30.26]
आयुर्वेद का उद्देश्य ही स्वस्थ प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा तथा रोगी की रोग से रक्षा है।
चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि आयुर्वेद को अथर्व वेद का उप वेद मानते हैं।
वात, पित्त और कफ, इन तीनों त्रिदोषों का असंतुलन रोग का कारण है और समदोष की स्थिति को आरोग्य।
इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं, जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था।
अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया।
काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं।
आय़ुर्वेद के आचार्य :: अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक। आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रस शास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।
आयुर्वेद के आठ अंग :: प्रजापति ब्रह्मा ने आयुर्वेद को निम्न आठ भागों में बाँट कर प्रत्येक भाग का नाम तन्त्र रखा :-
(1). शल्य तन्त्र,
(2). शालाक्य तन्त्र,
(3). काय चिकित्सा तन्त्र,
(4). भूत विद्या तन्त्र,
(5) कौमारभृत्य तन्त्र,
(6). अगद तन्त्र,
(7). रसायन तन्त्र और
(8). वाजीकरण तन्त्र।
इस अष्टाग्ङ आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्त्व, शरीर विज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व और धात्री विद्या भी है। 
आयुर्वेदीय चिकित्सा विधि सर्वांगीण है। इसके पश्चात रोगी की शारीरिक तथा मानसिक स्थिति दोनों में सुधार होता है। इसके अधिकांश घटक जड़ी-बूटियों, पौधों, फूलों एवं फलों आदि से प्राप्त किये जाते हैं। इनका कोई दुष्प्रभाव  देखने को नहीं मिलते। जीर्ण रोगों के लिए आयुर्वेद विशेष रूप से प्रभावी है। यह चिकित्सा के साथ-साथ रोगों को रोकता भी है। यह भोजन तथा जीवनशैली में सरल परिवर्तनों के द्वारा रोगों को दूर रखने के उपाय सुझाता है। आयुर्वेदिक औषधियाँ स्वस्थ लोगों के लिए भी उपयोगी हैं। यह चिकित्सा प्रणाली अपेक्षाकृत सस्ती है, क्योंकि इसमें सरलता से उपलब्ध जड़ी-बूटियाँ एवं मसाले काम में लाये जाते हैं।
स्वास्थ्य रक्षा के साधन :: शरीर और प्रकृति के अनुकूल देश-काल आदि का विचार करना। देश, काल आदि परिस्थितियों के अनुसार अपनी शारीरिक  और मानसिक क्षमता-शक्ति और अशक्ति का विचार कर कोई कार्य करना। नियमित आहार-विहार, चेष्टा, व्यायाम-प्राणायाम, प्रातःकालीन भ्रमण-सैर, शौच, स्नान, शयन, जागरण आदि गृहस्थ जीवन के लिए उपयोगी शास्त्रोक्त दिन चर्या, रात्रि चर्या एवं ऋतु चर्या का पालन करना। संकटमय कार्यों से बचना। प्रत्येक कार्य विवेक पूर्वक करना। मन और इन्द्रियों को नियंत्रित रखना। मल-मूत्र आदि के उपस्थित वेगों को न रोकना। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि से बचना। समय-समय पर शरीर में संचित दोषों को निकालने के लिए वमन, विरेचन आदि के प्रयोगों से शरीर की शुद्धि करना। सदाचार का पालन करना।  दूषित वायु, जल, देश और काल के प्रभाव से उत्पन्न व्याधियों, महामारियों यथा कोरवा में विज्ञ चिकित्सकों के उपदेशों का समुचित रूप से पालन करना। स्वच्छ और विशोधित जल, वायु, आहार आदि का सेवन करना और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना।
आयु भेद :: शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं। हित, अहित, सुख और दु:ख, आयु के ये चार भेद हैं। काल प्रमाण के अनुसार भी दीर्घायु, मध्यायु और अल्पायु, ये तीन भेद होते हैं। संपत्ति (साद्गुण्य) या विपत्ति (वैगुण्य) के अनुसार आयु के अनेक भेद होते हैं। प्रभाव भेद से इसके निम्न चार भेद हैं :-
(1). सुखायु :: किसी प्रकार के शीरीरिक या मानसिक विकास से रहित होते हुए, ज्ञान, विज्ञान, बल, पौरुष, धनृ धान्य, यश, परिजन आदि साधनों से समृद्ध व्यक्ति। जो मनुष्य शारीरिक, मानसिक रोगों से रहित है। विशेषतः युवा है और उसके शरीर में बलवीर्य है, वह यशस्वी, पुरुषार्थी, पराक्रमी है, ज्ञान, विज्ञान सम्पन्न है। जिसकी इन्द्रियाँ अपने विषयों के ग्रहण में पूर्ण समर्थ हैं। जो सभी प्रकार की धन सम्पत्ति से युक्त है और इच्छानुसार जिसके प्रत्येक कार्य सम्पन्न होते हैं। उस मनुष्य की आयु को सुखाय कहा जाता है।
(2). दुःखायु :: समस्त साधनों से युक्त होते हुए भी, शरीरिक या मानसिक रोग से पीड़ित अथवा निरोग होते हुए भी साधनहीन या स्वास्थ्य और साधन दोनों से हीन व्यक्ति। सुखायु के विपरीत, भिन्न आयु को जिसमें रोगों की अनुभूति हो, दुःखायु कहा जाता है।
(3). हितायु :: स्वास्थ्य और साधनों से संपन्न होते हुए या उनमें कुछ कमी होने पर भी जो व्यक्ति विवेक, सदाचार, सुशीलता, उदारता, सत्य, अहिंसा, शान्ति, परोपकार आदि आदि गुणों से युक्त होते हैं और समाज तथा लोक के कल्याण में निरत रहते हैं। जो मनुष्य सभी प्राणिमात्र का हितकर्ता हो, दूसरे के धन की इच्छा न रखता हो, सत्यवादी हो, शान्तिप्रिय हो, विचारपूर्वक कार्य करने वाला हो, सावधानी पूर्वक धर्म, अर्थ, काम का पालन करता हो, पूज्य व्यक्तियों की पूजा करता हो, ज्ञान-विज्ञान एवं श्रमशील हो, वृद्धजनों का सेवक हो, क्रोध, राग, ईर्ष्या, मद और अभिमान जन्य वेगों को धारण करने वाला हो, सदैव अनेक प्रकार की वस्तुओं का दान करता हो, तप, ज्ञान और शान्ति में सदा तत्पर हो, अध्यात्म विद्या का ज्ञाता हो और उसका अनुष्ठान भी करता हो, और जो भी कार्य करता हो उन सभी कार्यों को स्मरणपूर्वक इस मर्त्यलोक एवं परलोक को ध्यान में रखकर करता हो, तो ऐसे मनुष्य की आयु को हित आयु कहा जाता है।
(4).  अहित आयु ::  जो व्यक्ति अविवेक, दुराचार, क्रूरता, स्वार्थ, दंभ, अत्याचार आदि दुर्गुणों से युक्त और समाज तथा लोक के लिए अभिशाप होते हैं। हित आयु से भिन्न आयु को अहित आयु कहा जाता है।
इन चारों प्रकार की आयु के लिए हित अर्थात् जो आयुष्य को आयु को बढ़ाने वाला हो तथा अहित, अनायुष्य जो आयु का ह्रास करने वाला हो, इन सभी का जिसमें वर्णन हो वह आयुर्वेद है।
पंच महाभूत :: मानव शरीर सहित ब्रह्मांड में सभी वस्तुएं पाँच मूल तत्वों (पंच महाभूतों) अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और निर्वात (आकाश) से मिलकर बने हैं। शारीरिक सांचे व उसके हिस्सों की आवश्यकताओं तथा विभिन्न संरचनाओं व कार्यों के लिए अलग-अलग अनुपात में, इन तत्वों के एक संतुलित संघनन होता है। शारीरिक सांचे की वृद्धि और विकास उसके पोषण यानी भोजन पर निर्भर करते हैं। बदले में भोजन उपर्युक्त पाँच तत्वों से बना होता है, जो जैव अग्नि  की कार्रवाई के बाद शरीर में समान तत्वों को स्थानापन्न व पोषित करते हैं। शरीर के ऊतक संरचनात्मक होते हैं, जबकि देह द्रव शारीरिक अस्तित्व है, जो पंच महाभूतों के विभिन्न क्रम परिवर्तन तथा संयोजन से व्युत्पन्न होते हैं।
स्वास्थ्य और रोग :: स्वास्थ्य या रोग शरीर के सांचे के विभिन्न घटकों में परस्पर संतुलन के साथ स्वयं के संतुलित या असंतुलित अवस्था होने या न होने पर निर्भर करता है। आंतरिक और बाह्य कारक दोनों प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़कर रोग को जन्म दे सकते हैं। संतुलन की यह हानि अविवेकी आहार, अवांछनीय आदतों और स्वस्थ रहने के नियमों का पालन न करने से हो सकती है। मौसमी असामान्यताएं, अनुचित व्यायाम या इन्द्रियों के गलत अनुप्रयोग तथा शरीर और मन की असंगत कार्य प्रणाली के परिणाम स्वरूप भी मौजूदा सामान्य संतुलन में अशांति पैदा हो सकती है। इनके उपचार में आहार विनियमन, जीवन की दिनचर्या और व्यवहार में सुधार, दवाओं का प्रयोग शामिल हैं। पंचकर्म और रसायन चिकित्सा अपनाकर शरीर-मन का संतुलन बहाल किया जाता है। 
मानव शारीरिक संरचना :: आयुर्वेद में जीवन की कल्पना शरीर, इन्द्रियों, मन और आत्मा के संघ के रूप में है। जीवित व्यक्ति तीन देह द्रव (वात, पित्त और कफ), सात बुनियादी ऊतकों (रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र) और शरीर के अपशिष्ट उत्पादों जैसे मल, मूत्र और स्वेद-पसीने का एक समूह है। इस प्रकार कुल शारीरिक ढ़ाँचे में देह द्रव, ऊतक और शरीर के अपशिष्ट उत्पाद शामिल हैं। इस शारीरिक ढ़ाँचे और उसके घटकों की वृद्धि और क्षय भोजन के इर्द-गिर्द घूमती है जो देह द्रव, ऊतकों, और अपशिष्ट में संसाधित किया जाता है। भोजन अन्दर लेने, उसके पाचन, अवशोषण, आत्मसात करने तथा चयापचय का स्वास्थ्य और रोग में एक परस्पर क्रिया होती है जो मनोवैज्ञानिक तंत्र  तथा जैव आग (अग्नि) से काफी हद तक प्रभावित होती हैं। 
समस्त चेष्टाओं, इन्द्रियों, मन ओर आत्मा का आधार भूत पञ्च भौतिक पिंड शरीर है। मानव शरीर के स्थूल रूप में छह अंग हैं; दो हाथ, दो पैर, शिर और ग्रीवा एक तथा अंतराधि (मध्य शरीर) एक। इन अंगों के अवयवों को प्रत्यंग कहते हैं। 
TRAGUS OF EARS
मूर्धा (Head), ललाट (forehead), भ्रू (eye brows), नासिका (nose), अक्षिकूट (Orbit), अक्षिगोलक (Eye Ball), वर्त्स (पलक-Eye Lid), पक्ष्म (बरुनी), कर्ण (कान, ear), कर्ण पुत्रक (Tragus of ears), शष्कुली और पाली (Pinn and lobes of ears), शंख (माथे के पार्श्व), गंड (गाल, cheeks), ओष्ठ (होंठ, Lips), सृक्कणी (मुख के कोने, Mouth Ends), चिबुक (Chin), दंतवेष्ट (मसूड़े, gums), जिह्वा (जीभ, Tongue), तालु, टांसिल्स (tonsils), गलशुंडिका (युवुला), गोजिह्विका (epiglottis), ग्रीवा (गरदन, neck), अवटुका (larynx), कंधरा (कंधा), कक्षा (axilla), जत्रु (हंसुली, collar bone), वक्ष (थोरेक्स), स्तन, पार्श्व (बगल, armpit), उदर (belly), नाभि (naval), कुक्षि (कोख, loin), बस्तिशिर (ऊसन्धि, groin), पृष्ठ (पीठ, Back), कटि (कमर,  waist, Loin), श्रोणि (Pelvic), नितंब (hips), गुदा Anus), शिश्न (penis, phallus,dick) या भग Vagina), वृषण (testis), भुज, कूर्पर (केहुनी), बाहुपिंडिका या अरत्नि (fore arm), मणिबंध (कलाई, wrist), हस्त (हथेली, palm), अंगुलियां और अंगुष्ठ, ऊरु (जांघ, thigh), जानु (घुटना, knees), जंघा (टांग, लेग, Legs), गुल्फ (टखना, ankle), प्रपद (foot), पादांगुलि (foot fingers), अंगुष्ठ (thumb) और पादतल (तलवा, bottom of foot, thenar, fencer), इनके अतिरिक्त हृदय (heart), फुफ्फुस (lungs), यकृत (liver), प्लीहा (स्प्लीन), आमाशय (stomach), पित्ताशय (gall bladder), वृक्क (गुर्दा, kidney), वस्ति (यूरिनरी ब्लैडर, urinary bladder)), क्षुद्रांत (small intestine), स्थूलांत्र, वपावहन , पुरीषाधार, उत्तर और अधरगुद (rectum), ये कोष्ठांग हैं और सिर में सभी इंद्रियों और प्राणों के केंद्रों का आश्रय मस्तिष्क है।
मानव शरीर में 300 अस्थियाँ हैं, जिन्हें वर्तमान काल में दो सौ छह (206) माना  जाता है। संधी-जोड़ 200, स्नायु 900, रक्त वाहिनियाँ :- शिराएं 700, धमनियाँ  24 और उनकी शाखाएं 200, पेशियाँ 500 (स्त्रियों में 20 अधिक) तथा सूक्ष्म स्रोत 30,956 हैं।
शरीर में रस (bile juices, plasma), रक्त, माँस, मेद (fat), अस्थि, मज्जा (bone marrow) और शुक्र (semen), ये सात धातुएँ हैं। नित्य प्रति स्वाभावत: विविध कार्यों में उपयोग होने से इनका क्षय भी होता रहता है, किंतु भोजन और पान के रूप में विविध पदार्थ-भोजन ग्रहण करने से इस क्षति की पूर्ति होती रहती है। ये शरीर-धातुओं की पुष्टि भी करती हैं। आहार रूप में लिया हुआ पदार्थ पाचकाग्नि, भूताग्नि और विभिन्न धात्वनिग्नयों द्वारा परिपक्व होकर अनेक परिवर्तनों के बाद पूर्वोक्त धातुओं के रूप में परिणत होकर, इन धातुओं का पोषण करता है। इस पाचन क्रिया में आहार का जो सार भाग होता है, उससे रस (extracts) धातु का पोषण होता है और जो शेषांश-किट्ट भाग बचता है, उससे मल (विष्ठा, faecal matter, stools) और मूत्र (urine) बनता है। यह रस हृदय से होता हुआ धमनियों (Arteries) द्वारा सारे शरीर में पहुँच कर प्रत्येक धातु और अंग को पोषण प्रदान करता है। तत्पश्चात यह रक्त शिराओं (Veins) के माध्यम से फैंफड़ों में शुद्ध होकर, फिर से हृदय में पहुँचता है। धात्वग्नियों से पाचन होने पर रस आदि धातु के सार भाग से रक्त आदि धातुओं एवं शरीर का भी पोषण होता है तथा किट्ट भाग से मलों की उत्पत्ति होती है, जैसे रस से कफ; रक्त पित्त; माँस से नाक, कान और नेत्र आदि के द्वारा बाहर आनेवाले मल; मेद से स्वेद (पसीना); अस्थि से केश तथा लोम (सिर के और दाढ़ी, मूँछ आदि के बाल) और मज्जा से आँख का कीचड़ मल रूप में बनते हैं। शुक्र में कोई मल नहीं होता, उसके सारे भाग से ओज (बल) की उत्पत्ति होती है। अतः जातक  प्रयत्न पूर्वक वीर्य की रक्षा करनी चाहिये।
आयुर्वेद वैज्ञानिक होने के साथ-साथ प्रकृति के नियमों पर आधारित है, जिनमें प्राथमिक सिद्धांत हैं :- पंच महाभूत (जल, वायु, अग्नि, आकाश तथा पृथ्वी) और त्रिदोष (वात, पित्त तथा कफ) 
स्वास्थ्य :- 
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियाः। 
प्रसन्नामेंद्रिय मनरू स्वस्थ इत्यभिधीयते॥
शारीरिक दोषों (वात, पित्त, कफ), अग्नि (चयापचय, metabolism), धातुओं (रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा तथा शुक) तथा मल (मल, मूत्र तथा स्वेद) इन सभी का तारतम्य तथा इनके साथ-साथ इंद्रियों (ज्ञानेंद्रियाँ तथा कर्मेंद्रियाँ), मानसिक (सत्व, रज, तम) बौद्धिक तथा आध्यात्मिक सामंजस्य-तारतम्य अच्छे स्वास्थ्य की निशानी है।
आहार, निद्रा तथा ब्रह्मचर्य को त्रिदंड माना जाता है जिन पर स्वास्थ्य आधारित है। इनका सम्यक् रूप से पालन करने से रोगों से स्वतः रक्षा हो जाती है। 
''स्वास्थ्य रक्षणम् आतुरस्य रोगप्रशमनम् च"
स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना तथा रोगी मनुष्य के रोग को दूर करना ही आयुर्वेद का मूल उद्देश्य है।
स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करने तथा बाहरी कारणों से रोगों की उत्पत्ति होती है तथा उनका निवारण औषधियों तथा शोधन क्रियाओं अर्थात् पंचकर्म से किया जाता है। स्वस्थ रहने के लिए रसायन औषधियों का भी प्रयोग किया जाता है, जिससे रोग प्रतिरोधक शक्ति कायम रहे। 
शारीरिक दोष (वात, पित्त, कफ) तथा मानसिक दोष (रज और तम), में विकृति होने से रोग की उत्पत्ति होती है। 
चिकित्सा दो प्रकार ::। पंचकर्म में पांच क्रियाओं का वर्णन है, जिससे विकृत दोषों को शारीरिक शुद्धिकरण करके निकाल दिया जाता है और रोगोत्पत्ति के फलस्वरूप एकत्रित विषाक्त पदार्थों को भी शरीर से निकालकर संपूर्ण शुद्धिकरण किया जाता है। 
पंचकर्म पाँच प्रकार की शोधन प्रक्रियाएं :: 
(1). स्नेह (तेल लगाना) :- जिस कर्म से शरीर में स्निग्धता, मृदुता और द्रवता आती है, उसे स्नेहन कहा जाता है। स्नेहन में बाह्य तथा अभ्यंतर दो प्रकार होते हैं। बाह्य स्नेहन में अभ्यंग, शिरोधारा, नेत्र तर्पण, कटिबस्ति, उरोवस्ति, जानुवस्ति आदि क्रियायें आती हैं, जो भिन्न-भिन्न रोगों में लाभकारी होती हैं। आभ्यंतर स्नेहन में औषधि युक्त घी या तेल रोगी को पिलाया जाता है।शास्रोक्त क्रम बद्ध मात्रा में देने से शरीर पुष्ट और मजबूत होता है तथा पंचकर्म के जरिए प्रकुपित दोषों को शरीर का शोधन करते हुए निकालने में सहायक होता है। इस क्रिया में शरीर की विविध प्रकार के तेलों की मालिश की जाती है, इससे चिरकालीन संचित दोष, वात दोष जिससे शरीर स्थित हड्डियाँ व मोटापा आदि दोषों को बढ़ाने वाला वात दोष ऊपर आ जाता है।
अभ्यंग :-
ज्वर, अपच, गर्भिणी तथा विकृत कफ दोष जैसे कास, श्वास आदि में अभ्यंग नहीं करना चाहिए। रोग के अनुसार महानारायण तैल, क्षीरबला तैल, धनवंतरम तैल, महामाषतैल अथवा गौघृत आदि से अभ्यंग प्रशिक्षित परिचारक द्वारा करना चाहिए। 
शिरोधारा :-
नेत्र तर्पण :-
नस्य कर्म :-
नस्य कर्म शिरः शूल, अकाल बालों का सफेद होना, बाल गिरना, पक्षाघात, सर्दी-खाँसी, पुराना जुकाम, मिर्गी के दौरे की बीमारी, गर्दन की हड्डी में दर्द, नाक में नाकड़ा-असामान्य अतिप्रवाह होना, आदि रोगों में लाभकारी होता है। 
नस्यकर्म अपच, खाँसी, नशे की हालत में, बच्चों को, गर्भिणी को तथा जिन्हें नाक के अंदर चोट लगी हो को नहीं करना चाहिए। नस्य कई प्रकार के होते हैं। इसमें प्रयुक्त औषधियाँ एवं पूर्ण रूप में औषधीय तेल, घृत आदि का उपयोग रोग तथा रोगी की प्रकृति के अनुसार किया जाता है। 
रक्त मोक्षण :-
(2). स्वेदन-स्वेत (पसीना देना) :- इसका प्रयोग पित्त दोष व उसी से उत्पन्न रोगों को दूर करने में किया जाता है।स्वेदन कर्म भी पंच कर्म से पूर्व की जाने वाली अत्यंत आवश्यक क्रिया है। इस प्रक्रिया से शरीर से स्वेद अथवा पसीना निकलता है तथा दोषों का निष्कासन त्वचा मार्ग से होता है। इस प्रक्रिया में औषधि युक्त काढ़े से वाष्प दिया जाता है अथवा कपड़े, पत्थर या रेत से गर्मी देकर स्वेदन कर्म कराया जाता है। ये दोनों पूर्णकर्म करने से भी दोषों का तथा शरीर में संचित रोग रूपी विष का निष्कासन होता है। 
(3). वमन् :प्रकुपित कफ दोष का मुख्यद्वार से उल्टी के रूप में निष्कासन। इसका प्रयोग चिरकालीन संचित कफ-खाँसी आदि रोगों को दूर करने में होता है।
(4). विरेचन :- प्रकुपित पित्त दोष को गुदा मार्ग से मल के साथ निष्कासन करना। इससे चिरकालीन संचित दोष दूर हो जाते हैं।
(5). वस्ति :- इसमें एनिमा लगाकर मल की सफाई की जाती है और आँतों में चिपका मल निकाल दिया जाता है।गुदामार्ग अथवा मूत्रमार्ग द्वारा औषधियों को विशेष यंत्र द्वारा प्रविष्ट करवाना। यह प्रकुपित वात दोष का शोधन करती है। 
(5.1). निरुह अथवा आस्थापन वस्ति :- यह औषधि युक्त कषायों से दी जाती है तथा अत्यधिक रूप में प्रकुपित वात दोष का निष्कासन करके शुद्धि करती है। 
(5.2). अनुवासन अथवा स्नेह वस्ति :-
(5.3). कटिवस्ति :- कटिबस्ति क्रिया में रोगी की कमर के निचले हिस्से (कटि प्रदेश) में उड़द की दाल के आटे का एक गोल यंत्र बनाकर रखा जाता है तथा उसमें औषधि युक्त सुखोष्णा तैल डालकर रखा जाता है। कटिबस्ति क्रिया स्नेहन तथा स्वेदन की मिश्रित क्रिया है। इससे कमर में दर्द, कटिशूल (लंबर स्पॉन्डिलाइटिस), स्लिप डिस्क, गृध्रसी (सियाटिका) आदि रोगों में लाभ होता है। इस क्रिया को कमर की तपेदिक अथवा कैंसर में नहीं करना चाहिए। 
उपरोक्त सभी पंचकर्म की क्रियायें रोगी के शरीर से प्रकुपित दोषों को निकालने का कार्य करती हैं। शोधन के बाद जब औषधियों का सेवन किया जाता है तो शरीर में रोगों का शमन शीघ्र होता है तथा रसायन औषधियों के सेवन से शरीर बलशाली हो जाता है तथा शरीर की रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ती है.
आयुर्वेद के अंग ::आयुर्वेद या आयुर्विज्ञान शाश्वत अनादि कालीन है। सृष्टि का निर्माण करने के पूर्व ही ब्रह्मा जी ने इसकी रचना कर ली थी, क्योंकि प्राणियों के शरीर के साथ विकारों या रोगों का होना भी अवश्यंभावी है। इस अष्टांग के अंग हैं :- शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमार भृत्य, अगदतंत्र, रसायनतंत्र और बाजीकरण आयुर्वेद के आठ अंग हैं। [सुश्रुत संहिता, चरक, वाग्भट्ट] 
आयुर्वेद का उद्गम वेद है। विश्व में जितनी भी चिकित्सा प्रणालियों का उदय व अस्त हुआ है और जो भी वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगी, आयुर्वेद का अंग ही हैं। वेद विश्व का प्राचीनतम आगम या शास्त्र है। आयुर्वेद अथर्ववेद का उपांग है। वेद परम आस्तिक आगम माने जाते हैं अत: आयुर्वेद भी उपवेद होने से आस्तिकला (लोक, परलोक, कर्मवाद, नित्यानित्यत्व आदि) के अन्तर्गत है। चरक और सुश्रुत संहिताएँ क्रमश: वैशेषिक और साँख्य दर्शन पर आधारित हैं। चरक को षड्धातुक और सुश्रुत को चतुर्विंशतिक या राशिपुरुष माना जाता है।
खादयश्चेतनाषष्ठा धातव: पुरुष: स्मृत:। 
चेतना: धातुरप्यंक: स्मृत: पुरुष: संजक:
यद्यपि निर्विकार पुरुष (चेतनमात्र) अनादि, अविनाशी है। उसका नवीन उत्पाद व नितान्त विनाश नहीं, किन्तु राशि संज्ञक (षडधातुक) पुरुष जन्म-मरण की परम्परान्तर्गत आदि व नाशमान भी माना गया है। इस जन्म-मरण परम्परा के प्रमुख कारण जीव के मोह, इच्छा, द्वेष तथा विविध प्रकार के कर्म हैं। इसी राशि पुरुष में ही कर्म, उनका फल, नाना भाँति के सुख-दुख, जीवन-मरण, ज्ञान-अज्ञान आदि भी प्रतिष्ठित हैं। राशि संज्ञक पुरुष के अपने पूर्वोपार्जित आयुष्यकाल में होने वाले सुख-दुखों के कारण व उनके नाश करने के उपायों के विवेचन का नाम ही आयुर्वेद है। चरक ने भी यही कहा है :-
हिताहितं सुखं दु:ख मायुस्तस्यहिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तिम् आयुर्वेद: स उच्यते[चरक]
स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य, रोग-चिकित्सा के मूल में भौतिक तत्वों (वात, पित्त, कफ इत्यादि) के अलावा, जीव के कर्म को भी प्रधान हैं अर्थात पुरुष के पुरुषार्थजन्य कर्मों के फलानुसार ही इसे स्वास्थकर बाह्य भौतिक सामग्री का सहयोग मिलता है। आयुर्वेद के प्रत्येक अंग के विश्लेषण में चेतना चेतनामूलक शरीर शास्त्र अक्षुण्ण रहता है।
आयुर्वेद में रोग और उनकी चिकित्सा का विभिन्न दृष्टिकोणों से अनेक प्रकार से वर्णन मिलता है। 
रोग :: 
"रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगिता"
वात, पित्त और कफ दोषों की विषमता का नाम रोग या विकार है और इन तीनों की समानता (निश्चित अनुपात) का नाम ही आरोग्य है।
"तददु:ख संयोगा व्याध्य:" सुश्रुत]
मनुष्य के साथ किसी भी प्रकार दु:ख का नाम व्याधि है। रोगों का अधिष्ठान या आधार सभी शरीर और मन को माना है। रोगों के विकल्प यहाँ से गिनाये जाते हैं।
(1). द्विविध विकल्प ::
(1.1). अधिष्ठान भेद से रोग दो प्रकार के हैं :- शारीरिक और मानसिक। 
"तेषां कायमनोभेदादधिष्ठानमतिद्विद्या शरीरं सत्व संज्ञंच व्याधी नामाश्रयीमल: एएतेमन: शरीराधिष्ठाना:"
(1.2). वागभट्ट ने निज और आगन्तुक के रूप में एक और विकल्प स्वीकार कर सभी रोगों का अन्तर्भाव उसमें किया है :- 
"निजागन्तु विभागेन तत्र रोगा द्विधा स्मृता:"
निज (त्रिदोयज) और आगन्तुक (बाह्यकारणजन्य)  
(1.3). सुश्रुत में औषधि साध्य और शस्त्र साध्य के भेद से रोगों के दो प्रकार हैं :-
"द्विविधास्तु व्याध्य: शस्त्रसाध्या: स्नेहादि क्रिया साध्याश्च"
छेदन-भेदन आदि शल्य क्रियासाध्य रोगों को शास्त्र साध्य और स्नेह, स्वेद, वमन, विरेचनादि साध्य रोगों को स्नेहादि क्रिया साध्य माना है। 
(2). त्रिविध विकल्प :: "तच्च दु:खं त्रिविधम्" 
(2.1).आध्यात्मिकम्, (2.2). आधिभौतिकम्, (2.3). आधिदैविकमिति। 
सुश्रुत ने आत्म शब्द से मन सहित शरीर का ग्रहण किया है। अतएव वात, पित्त, कफ से उत्पन्न शरीर संभव ज्वरादिक और रज, तम, सत्व इनकी विषम स्थिति से उत्पन्न मानसिक विकार; ये सब आध्यात्मिक रोगों के अन्तर्गत आ जाते हैं। भूत शब्द का अर्थ प्राणी लिया गया है। अत: विविध प्रकार के प्राणियों से उत्पन्न होने वाले रोगों को आधिभौतिक समझना चाहिए। देव शब्द से विविध प्रकार की सुरयोनियाँ (यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, व्यन्तर आदि) स्वीकर की गई हैं। अत: इनके कारण उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के रोग (भूत बाधा आदि) आधिदैविक माने गये हैं।
दोष, कर्म से स्वतंत्र और दोनों के मिश्रित कारण से उत्पन्न होने वाले 3 प्रकार के रोगों का एक विकल्प और है :- (1). दृष्टापचारज, (2). पूर्वापराधज (कर्मज), (3). संकरज हारदुष्टापूर्वापराध (कर्मज) अर्थात् जो केवल वर्तमान, मिथ्याहार विहार से उत्पन्न होते हैं, वे दृष्टाराज हैं। जो पूर्व कर्मों से उत्पन्न होते हैं, वे पूर्वापराधज हैं। जो पूर्वोपाजित कर्म और मिथ्याहार-विहार दोनों कारणों से होते हैं, वे संकरज हैं।[वाग्भट्टाचार्य]
(3). चतुर्विध विकल्प :: ते चतुर्विधा: 
"आगन्तव:, शरीरा:, मानसा:, स्वाभाविकायश्चेति"
(3.1). आगन्तुक, (3.2). शारीरिक, (3.3). मानसिक और (3.4). स्वाभाविक भेद से रोग 4 प्रकार के हैं। यद्यपि इनमें से शरीर और आगन्तुक ये दो विकल्प पहले भी आ चुके हैं। किन्तु विवेचक की अपनी कल्पना प्रश्नार्ह नहीं होता। अत: इस चतुर्विध विकल्प में भी इन्हें गिनाया गया है। क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, विषाद, हर्ष, दैन्य, मात्सर्य, इच्छा, द्वेष आदि मानसिक रोग हैं। भूख, प्यास, बुढ़ापा, मृत्यु, निद्रा आदि स्वाभाविक व्याधियाँ हैं। ये प्रत्येक प्राणी के लिये स्वाभाविक एवं अनिवार्य हैं और स्वस्थ मनुष्य में भी समान रूप से पाई जाती हैं। जब ये मात्रातीत या समय से पूर्व उत्पन्न होती हैं, तब निश्चित ही व्याधि रूप में होती हैं।
(4). सप्तविध विकल्प ::सुश्रुत ने सात प्रकार के रोग भी माने हैं :-
 "हिते पुन: सप्तविधा: व्याधय:"
(4.1). आदि बल प्रवृत्ता:, (4.2). जन्म बलप्रवृत्ता:, (4.3). दोषबल प्रवृत्ता:, (4.4). संघात बलप्रवृत्ता:, (4.5). कालबल प्रवृत्ता:, (4.6). दैवबलप्रवृत्ता: और (4.7). स्वभावबल प्रवृत्ताश्चेति। [सुश्रुत सूत्र स्थान]
चिकित्सा के द्विविध विकल्प भेद ::
(1). संशोधन और संशमन भेद से दो प्रकार की चिकित्सा मानी गई है। पंचकर्म द्वारा शरीरस्थ कुपित दोषों का निर्हरण करना संशोधन चिकित्सा है। युक्तिपूर्वक प्रयोग की गई औषधियों द्वारा दोषों का उपशमन करना संशमन कहा गया है।
(2). बाह्य और आभ्यंतर के भेद से पु्न: दो प्रकार चिकित्सा के माने गये हैं। शस्त्र, क्षार, अग्निप्रयोग, प्रलेपादि के बाह्य प्रयोगों को बाह्य चिकित्सा तथा वमन, विरेचन, आस्थापन, शोणितमोक्षण को अभ्यन्तर चिकित्सा स्वीकार किया है। विविध प्रकार के शारीरिक रोगों का अपहरण इन्हीं प्रयोगों द्वारा होता है।
(3). अधिष्ठान भेद से पुन: चिकित्सा दो प्रकार के होते हैं :-
(3.1). शरीर रोग चिकित्सा और (3.2). मानस रोग चिकित्सा के क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, उन्माद, शोक आदि दोषों को त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) का सेवन कर और आत्मा का स्वरूप चिन्तवन आदि आध्यात्मिक प्रयोगों से शमन किया जाता है। जबकि शारीरिक व्याधियों का उपचार युक्तिपूर्वक संयोजित विविध प्रकार की औषधियों के प्रयोग व बलि, मंगल, यज्ञादि को माना है। 
प्रशाम्यत्यौषधै: पूर्वो दैवयुक्ति व्ययाश्रयै:
मानसोज्ञान विज्ञान धेर्यस्मृति समाधिभि:
(3.3). निज (शारीरिक) रोग चिकित्सा और आगन्तुक रोग चिकित्सा के भेद से भी चिकित्सा दो प्रकार की है। आगन्तुक रोगों के प्रतिकार हेतु प्रज्ञापराध (विवेक शून्यता) का परित्याग, इन्द्रियोपशमन, धैर्य, देशकाल के अनुरूप आचार-विचार और सदाचार का पालन अनिवार्य माना गया है।
चिकित्सा के त्रिविध विकल्प भेद :: सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा को प्रधान माना है। इस आधार पर शल्य क्रिया की दृष्टि से 3 भेद किये हैं। 
(1). त्रिविधं कर्म :- 
"पूर्व कर्म, प्रधान कर्म, पश्चात् कर्मच"
शल्य के पूर्व नियोजित उपकरणादि स्थानादि की व्यवस्था को पूर्व कर्म, शस्त्र क्रिया को प्रधान कर्म और उसके पश्चात पथ्य सेवन, विश्राम, व्रणबंधन आदि को पश्चात कर्म कहा है। यह विधान औषधीय (चिकित्सा) में भी लागू होता है। औषधादि की योजना (पूर्व कर्म), औषधि प्रयोग (प्रधानकर्म) और हित सेवन अहित परिहार (पश्चात कर्म)। 
त्रिविधिमौषधम् :- (2). युक्ति व्यपाश्रय और (3). सत्वावजयश्चेति [च.सू.अ. 11]
मणिधारण, मंगलकार्य, होम, नियम, प्रायश्चित, उपवास आदि करना, दैव व्यपाश्रय चिकित्सा मानी गई है। आहार तथा औषध द्रव्यों की योजना को युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा कहा है। अहित कार्यों से निवृत्ति करना सत्वावजय या मनोनिग्रह माना गया है।
शारीरिक चिकित्सा को ही विधेय मानकर चरक ने पुन: तीन भेद किये है। (1). अन्त: परिमार्जन (अन्तरंग में (भीतर) औषधि प्रयोग) (2). बहि: परिमार्जन (त्वचा पर किये जाने वाले विविध अभ्यंग, आलेप, विलेप, सेंक आदि का प्रयोग) (3). शस्त्र प्रणिधानम (छेदन, भेदन आदि कर्म)।
दृष्टापचारज, पूर्वापराधज और संकरज (उभयहेतुक) भेद से तीन प्रकार के रोग माने हैं। इनके दृष्टिकोण से 3 प्रकार की चिकित्सा है :- (1). दोष (वातादि), विपरीत आहार औषधि का सेवन (2). कर्म प्रतिकूल धर्मादि का सेवन और (3). दोष (वातादि) कर्म का एक साथ क्षपण (नाश)। [आचार्य वाग्भट्ट]
विपक्ष शीलनात् पूर्व: (दोषज) कर्मज, कर्म संक्षयात्।
गच्छत्युभय जन्मातु दोषकर्मक्षयात्क्षयत्अ.सू.अ.12]
(4). चिकित्सा के चतुर्विकल्प विकल्प भेद :: सुश्रुत ने चार प्रकार की चिकित्सा मानी है :- (1). संशोधन, (2). संशमन, (3). आहार और (4). आचार। 
"संशोधन संशमनाहाराचार: सम्यक् प्रयुक्ता: निग्रहहेतव:"
आयुर्वेद में रोग उत्पन्न होने के पूर्व ही उसकी संत्रपादि अवस्थाओं में रोग का निर्हरण करने का स्पष्ट आदेश और विधान है। लोकव्यवहार में भी रोग और शत्रु को उत्पन्न या परिपुष्ट होने के पूर्व ही नष्ट कर देने का व्यवहार है। सुश्रुत का कथन—
संचयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थान संश्रयम्। व्यक्ति भेदं च योवेति दोषाणां स भवेद्भिषक
संचयऽपहृता दोषा: लभन्तेनोत्तरागति:। ते सूत्तरासुगतिषु भवन्ति बलवत्तरासुश्रुत]
जिन कारणों से रोग उत्पन्न हुए हैं उन-उन कारणों को दूर करने के लिये जिन-जिन उपायों का आश्रय लिया जाता है उन-उन आधारों के अनुसार चिकित्सा के अनेक भेद हो जाते हैं। चिकित्सा शब्द की उत्पत्ति किति रोग प्रतिकारे धातु से सन् प्रत्यय होकर हुई है। जिसका निरुक्त्यर्थ होता है रोगापहरण करने की इच्छा। 
काय शब्द की व्युत्पत्ति :- काय शब्द चिञ्चयने धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है इकट्ठा करना या एकत्रित होना।
"चीयते प्रशस्त धातु मलैरितिकाय:"
जो प्रशस्त रस रक्तादि धातुओं और मलों द्वारा जोड़ा जाय, पुष्ट किया जाय वह काय है।
"कायस्य चिकित्सा इति काय चिकित्सा" 
चिकित्सा की परिभाषा आचार्यों ने इस प्रकार की है 
चतुर्णां भिषगादीनां शास्तानां धातुवैकृते:। 
प्रवृत्ति र्धातुसाम्यार्था चिकित्से त्यभिधीयते[चरक]
याभि: क्रियाभिर्जायन्ते शारीरे धातव: समा:।
सा चिकित्सा विकारणां कर्मताद्भिषजांमतम्[सुश्रुत]
विकृत हुए रस-रक्तादि धातुओं को पुन: समावस्था में लाने के लिये योग्य चिकित्सक औषधि के प्रयोग को चिकित्सा कहते हैं। चिकित्सकों का कर्तव्य ही चिकित्सा है। सर्व सामान्य की दृष्टि में काय शब्द का अर्थ सप्त धातुमय शरीर यद्यपि होता है, किन्तु जहाँ काय चिकित्सा का प्रश्न है, प्राय: सभी आचार्यों और टीकाकारों ने काय शब्द का ध्वन्यर्थ या वाच्यार्थ जठराग्नि ही स्वीकार किया है। इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर सभी ने कायचिकित्सा का अर्थ शब्दान्तरों में समान ही प्राय: किया है। यथा :-
कायति शब्दं करोतीतिकाय:, शरीरं तच्च हृदय प्रधानाब्दस्य हृदयस्थानत्वात्, हृदयं हि सर्व शरीरे पोषनाव शिष्टमशुद्धं रत्तं रक्तवाहिनी शिराभ्यो गृहणाति शुद्धयर्थ च तत्फप्फुसे प्रक्षिपति’। 
शरीर के पोषक प्रधान धातु रक्त ‘धक-धक’ करने वाले हृदय द्वारा समस्त शरीर में भेजे जाते हैं। इससे शरीर या काय का आधार हृदय है। 
काय अन्तराग्रस्तस्य चिकित्साकाय चिकित्सा। चक्रपाणि:]
चक्रपाणिजी अन्तराग्नि जठराग्नि को शरीर मानते हैं और जठराग्नि की चिकित्सा को काय चिकित्सा कहते हैं। यह रस रक्तादि धातुओं के मूल निर्माता के रूप में अग्नि को स्वीकार करते हैं। यह विकल्प भी शरीर के मूलाधार (अग्नि) में शरीर की उपचार से कल्पना कर किया गया है। 
काय: सकलं शरीरं तस्य चिकित्सकाय चिकित्सा। प्राय: रसादे: सर्वांगव्यापकस्य दोषादेव ज्तरातिसार रक्त पित्तादय: सम्भवन्ति। किंवा कायतिशब्दं करोतीतिकाय: जठराग्नि:। [शिव दास सेन]
जठराग्नि से निर्मित होने वाले रसादि धातुओं से ही ज्वरादि की उत्पत्ति होती है इन्हें नाश करने के लिये सर्वप्रथम जठराग्नि की चिकित्सा आवश्यक होती है। अत: उसे ही काय माना है।
जठर: प्राणिनामग्नि: काय इत्यभिधीये। 
यस्तं चिकित्सेत्सीदन्तं सर्वेकाय चिकित्सक:[भोज]
प्राणियों की जठराग्नि ही शरीर है। दुर्बल हुई जठराग्नि की जो चिकित्सा करता है, वही काय चिकित्सक है।
यदत्रं देहधात्वोजो बलवर्णादिषोषकम्। 
तत्रांनाग्निहेनतु राहारान्तह्यपक्काद्रसादय:॥ [वाग्भट्ट]
देह के धातु ओज-बल आदि का पोषक अन्न है। उस अन्न का परिपाक जठराग्नि से होता है। अत: जठराग्नि ही काय है, अपक्व आहार से रसादि की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
आयुर्वेदो बलं स्वास्थ्यं मुत्सारोपचयौ प्रभा। 
ओजस्ते जोऽनय: प्राणाश्चोक्ता देहाग्नि हेतुका:
जठराग्नि ही काय है। इस प्रकार जठराग्नि को यथावत् व्यवस्थित रखना ही आयुर्वेद की काय चिकित्सा है। यह कायचिकित्सा व्यापक है। 
आरोग्य :: वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सम मात्रा (उचित प्रमाण) में होना ही आरोग्य और इनमें विषमता होना ही रोग है।[चरक]
स्वस्थ व्यक्ति ::
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥[सुश्रुत]
जिससे सभी दोष सम मात्रा में हों, अग्नि सम हो, धातु, मल और उनकी क्रियाएं भी सम-उचित रूप में हों तथा जिसकी आत्मा, इन्द्रियाँ और मन प्रसन्न (शुद्ध) हों उसे स्वस्थ समझना चाहिए। इसके विपरीत लक्षण हों तो अस्वस्थ समझना चाहिए। रोग को विकृति या विकार भी कहते हैं। अत: शरीर, इन्द्रिय और मन के प्राकृतिक -स्वाभाविक रूप या क्रिया में विकृति होना रोग है।
रोग का निदान :: आयुर्वेद में निदान हमेशा रोगी में समग्र रूप  से किया जाता है। चिकित्सक रोगी की आंतरिक शारीरिक विशेषताओं और मानसिक स्वभाव को सावधानी से देख-परखा जाता है। वह अन्य कारकों, जैसे प्रभावित शारीरिक ऊतक, देहद्रव, जिस स्थान पर रोग  स्थित है, रोगी का प्रतिरोध और जीवन शक्ति, उसकी दैनिक दिनचर्या, आहार की आदतों, नैदानिक स्थितियों की गंभीरता, पाचन की स्थिति और उसकी व्यक्तिगत, सामाजिक आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिति के विवरण का भी अध्ययन करता है।  निदान में निम्नलिखित परीक्षण भी शामिल हैं :-
सामान्य शारीरिक परीक्षण :: (1). नाड़ी परीक्षण, (2). मूत्र परीक्षण, (3). मल परीक्षण, (4). जीभ और आँखों का परीक्षण, (5). स्पर्श और (6). श्रवण कार्यों सहित त्वचा और कान त्वचा का परीक्षण
उपचार :: बुनियादी चिकित्सकीय दृष्टिकोण है कि सही इलाज एकमात्र वही होता है, जो आरोग्य प्रदान करता है और जो व्यक्ति बीमार को स्वस्थ बनाता है, वही सबसे अच्छा चिकित्सक है। 
पंचकर्म प्रक्रियाओं द्वारा शारीरिक ढ़ाँचे या उसके घटकों में से किसी के भी असंतुलन के कारकों से बचना और शारीरिक संतुलन बहाल करने तथा भविष्य में रोग की पुनरावृत्ति को कम करने के लिए शरीर तंत्र को मजबूत बनाने हेतु दवाओं, उपयुक्त आहार, गतिविधि का उपयोग करना आदि रोग के उपचार में शामिल हैं। 
दवाएं, विशिष्ट आहार और गतिविधियों की निर्धारित दिनचर्या इलाज के उपायों में शामिल होते हैं। इन तीन उपायों का प्रयोग दो तरीकों से किया जाता है। उपचार के एक दृष्टिकोण में तीन उपाय रोग के मूल कारकों और रोग की विभिन्न अभिव्यक्तियों का प्रतिकार करते हैं। दूसरे दृष्टिकोण में दवा, आहार, और गतिविधि के यही तीन उपाय रोग के मूल कारकों तथा रोग प्रक्रिया के समान प्रभाव डालने पर लक्षित होते हैं। चिकित्सकीय दृष्टिकोण के इन दो प्रकारों को क्रमशः विपरीत व विपरीतार्थकारी उपचार के रूप में जाना जाता है।
उपचार के चार अवयव :: चिकित्सक, औषधि, तीमारदारी-देखभाल, रोगी। 
महत्व के क्रम में चिकित्सक पहले आता है। उसके पास तकनीकी कौशल, वैज्ञानिक ज्ञान, पवित्रता और मानव के बारे में समझ होनी चाहिए। चिकित्सक को अपने ज्ञान का उपयोग विनम्रता, बुद्धिमत्ता के साथ और मानवता की सेवा में करना चाहिए। महत्व के क्रम में आगे आते हैं भोजन और दवाएं। ये उच्च गुणवत्ता वाले होने चाहिए, जिनका विस्तृत अनुप्रयोग हो तथा अनुमोदित प्रक्रियाओं के अनुसार उगाई व प्रसंस्कृत किया जाना चाहिए और पर्याप्त रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। हर सफल उपचार के तीसरे घटक के रूप में नर्सिंग कर्मियों की भूमिका है, जिन्हें तीमारदारी का अच्छा ज्ञान होना चाहिए, अपनी कला के कौशल को जानते हों और स्नेही, सहानुभूति पूर्ण, बुद्धिमान, साफ और स्वच्छ तथा संसाधन युक्त होना चाहिए। चौथा घटक रोगी स्वयं होता है, जिसने चिकित्सक के निर्देश का पालन करने के लिए सहयोगपूर्ण और आज्ञाकारी होना चाहिए। बीमारियों का वर्णन करने में सक्षम होना चाहिए तथा उपचार के लिए जो भी आवश्यक हो, प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए।
शोधन चिकित्सा :: इसमें दैहिक और मानसिक रोगों के प्रेरक कारकों को हटाने पर केन्द्रित होता है। प्रक्रिया में आंतरिक और बाह्य शुद्धि शामिल हैं। सामान्य उपचारों में शामिल हैं पंचकर्म (दवाओं से उत्प्रेरित वमन, विरेचन, तेल एनीमा, काढ़ा एनीमा और नाक से दवायें देना), पूर्व-पंचकर्म प्रक्रियाएं (बाहरी और आंतरिक तेलोपचार और प्रेरित पसीना)। पंचकर्म उपचार चयापचय प्रबंधन पर केंद्रित होता है। यह चिकित्सकीय लाभ प्रदान करने के अलावा ज़रूरी परिशोधक प्रभाव प्रदान करता है। यह उपचार स्नायविक विकारों, पेशीय-कंकाल की बीमारी की स्थिति, कुछ नाड़ी या तंत्रिका-संवहनी स्थितियों, साँस की बीमारियों, चयापचय और अपक्षयी विकारों में विशेष रूप से उपयोगी है।
शमन चिकित्सा :: शमन चिकित्सा में बिगड़े देहद्रव (दोषों) का दमन शामिल है। वह प्रक्रिया जिसके द्वारा बिगड़े देह द्रव अन्य देह द्रव में असंतुलन पैदा किए बिना सामान्य स्थिति में लौट आता है, शमन के रूप में जानी जाती है। यह उपचार भूखवर्धकों, पाचकों, व्यायाम और धूप तथा ताज़ी हवा लेने आदि द्वारा हासिल होता है। उपचार के इस रूप में नींद की औषधि का उपयोग किया जाता है।
पथ्य व्यवस्था :: इसमें आहार, गतिविधि, संकेत व भावनात्मक स्थिति के सूचक व प्रतिसूचक शामिल हैं। इसे उपचारात्मक उपायों के प्रभाव को बढ़ाने और विकारी प्रक्रियाओं में बाधा डालने की दृष्टि से किया जाता है। आहार सम्बन्धी किए जाने व न किए जाने वाली बातों पर ऊतकों की शक्ति को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से अग्नि को प्रोत्साहित करने और पाचन के अनुकूलन तथा भोजन के आत्मसात करने पर बल दिया जाता है।
निदान परिवर्जन :: रोग उत्पन्न करने वाले और उसे बढ़ावा देने वाले कारकों से बचना तथा) निदान परिवर्जन रोगी के आहार और जीवन शैली में ज्ञात रोग कारकों से बचना है। इसमें रोग के बाहर उभारने या बढ़ाने वाले कारकों से बचना भी शामिल है।
मनोचिकित्सा-मानसिक रोग :: इसमें दिमाग को अपूर्ण वस्तुओं के निरोध तथा साहस, स्मृति और एकाग्रता विकसित करना शामिल है। आयुर्वेद में मनोविज्ञान और मनोरोग विज्ञान का अध्ययन बड़े पैमाने पर विकसित किया गया है और मानसिक विकारों के उपचार में दृष्टिकोणों की एक विस्तृत श्रृंखला है।
रसायन चिकित्सा :: इसमें रोग प्रतिरोधक शक्ति के उत्प्रेरकों और कायाकल्प दवाओं का उपयोग किया जाता है। रसायन चिकित्सा शक्ति और जीवन शक्ति को बढ़ावा देने से संबंधित है। इस उपचार के लाभों को शरीर के ढ़ाँचे की अखंडता, स्मृति को बढ़ावा, बुद्धि, रोग के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता, युवावस्था का संरक्षण, चमक, रंग और शरीर व इंद्रियों की इष्टतम शक्ति के रखरखाव को बढ़ावा देने का श्रेय दिया जाता है। शरीर के ऊतकों के समय पूर्व ह्रास से बचाव और एक व्यक्ति की कुल स्वास्थ्य सामग्री को बढ़ावा देने में रसायन चिकित्सा भूमिका निभाती है।
आहार और आयुर्वेदिक उपचार :: मानव शरीर को भोजन के उत्पाद के रूप में समझा जाता है। एक व्यक्ति के मानसिक और आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ उसका स्वभाव उसके द्वारा लिए गए भोजन की गुणवत्ता से प्रभावित होता है। मानव शरीर में भोजन पहले कैल या रस में तब्दील हो जाता है और फिर आगे की प्रक्रियाओं से उसका रक्त, माँस-पेशी, वसा, अस्थि, अस्थि-मज्जा, प्रजनन तत्वों और ओजस में रूपांतरण शामिल है। इस प्रकार, भोजन सभी चयापचय परिवर्तनों और जीवन की गतिविधियों के लिए बुनियादी है। भोजन में पोषक तत्वों की कमी या भोजन का अनुचित परिवर्तन विभिन्न किस्म की बीमारी की स्थितियों में परिणत होता है।
रोगों के हेतु या कारण :: 
असात्म्येन्द्रियार्थसंयोग, प्रज्ञापराध तथा परिणाम।[चरक संहिता निदान स्थान 2] 
हेतु, निमित्त, आयतन, कर्ता, कारण, प्रत्यय, समुत्थान तथा निदान एकार्थ वाचक हैं।
तीन प्रकार का हेतु :: संसार की सभी वस्तुएँ साक्षात्‌ या परंपरा से शरीर, इन्द्रियों और मन पर किसी न किसी प्रकार का निश्चित प्रभाव डालती हैं और अनुचित या प्रतिकूल प्रभाव से इनमें विकार उत्पन्न कर रोगों का कारण बनती हैं। 
(1). असात्म्येन्द्रियार्थसंयोग :: चक्षु (आँख, eye) आदि इन्द्रियों का अपने-अपने रूप आदि विषयों के साथ असात्म्य (प्रतिकूल, हीन, मिथ्या और अति) संयोग इन्द्रियों, शरीर और मन के विकार का कारण होता है यथा आँख से बिलकुल न देखना (अयोग), अति तेजस्वी वस्तुओं का देखना और बहुत अधिक देखना (अतियोग) तथा अति सूक्ष्म, संकीर्ण, अति दूर में स्थित तथा भयानक, बीभत्स, एवं विकृत रूप वस्तुओं को देखना (मिथ्या रोग, illusion)। ये चक्षुरिंद्रिय और उसके आश्रय नेत्रों के साथ मन और शरीर में भी विकार उत्पन्न करते हैं। इसी को दुर्योग कहते हैं। ग्रीष्म, वर्षा, शीत आदि ऋतुओं तथा बाल्य, युवा और वृद्धावस्थाओं का भी शरीर आदि पर प्रभाव पड़ता ही है, किंतु इनके हीन, मिथ्या और अति योग का प्रभाव विशेष रूप से हानिकर होता है।
(2). प्रज्ञापराध :: अविवेक (धी भ्रंश, imprudence), अधीरता (धृति भ्रंश, impatience) तथा पूर्व अनुभव और वास्तविकता की उपेक्षा (to ignore, स्मृति भ्रंश) के कारण लाभ हानि का विचार किए बिना ही किसी विषय का सेवन या जानते हुए भी अनुचित वस्तु का सेवन करना। इसी को दूसरे और स्पष्ट शब्दों में कर्म (शारीरिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाएं) का हीन, मिथ्या और अति योग भी कहते हैं।
अधीरता :: उतावलापन, अधीरता, अधैर्य, बेचैनी, अशांति, तड़प,  बेकली, बेसब्री, आतुरता, व्यग्रता; impatience, restlessness, in-patient. 
उपेक्षा :: नज़र अंदाज़ करना, छोड़ देना, अवहेलना करना, गफलत, लापरवाही; ignorance, negligence, regardless.
(3). परिणाम :: पूर्वोक्त कारणों के प्रकारान्तर से अन्य भेद :- 
(3.1). विप्रकृष्ट कारण (remote cause) :: जो शरीर में दोषों का संचय करता रहता है और अनुकूल समय पर रोग को उत्पन्न करता है,
(3.2). संनिकृष्ट कारण (immediate cause) :: जो रोग का तात्कालिक कारण होता है,
(3.3). व्यभिचारी कारण (abortive cause) :: जो परिस्थिति वश रोग को उत्पन्न करता भी है और नहीं भी करता तथा
(3.4). प्राधानिक कारण (specific cause) :: जो तत्काल किसी धातु या अवयव विशेष पर प्रभाव डालकर निश्चित लक्षणों वाले विकार को उत्पन्न करता है, जैसे विभिन्न स्थावर और जांतव विष।
प्रकारान्तर से इनके अन्य दो भेद होते हैं :-
(3.4.1). उत्पादक (predisposition) :: जो शरीर में रोगविशेष की उत्पत्ति के अनुकूल परिवर्तन कर देता है;
(3.4.2). व्यंजक (excitation) :: जो पहले से रोगानुकूल शरीर में तत्काल विकारों को व्यक्त करता है।
हेतुओं का शरीर पर प्रभाव :: 
शरीर पर इन सभी कारणों के तीन प्रकार के प्रभाव होते हैं :
(1). दोष प्रकोप :: अनेक कारणों से शरीर के उपादान भूत आकाश आदि पाँच तत्वों में से किसी एक या अनेक में परिवर्तन होकर उनके स्वाभाविक अनुपात में अन्तर आ जाना अनिवार्य है। आयुर्वेदाचार्यों ने इन विकारों को वात, पित्त और कफ इन वर्गों में विभक्त किया है। पंच महाभूत एवं त्रिदोष का अलग से विवेचन ही उचित है, किंतु संक्षेप में यह समझना चाहिए कि संसार के जितने भी मूर्त (material form) पदार्थ हैं, वे सब आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी इन पाँच तत्वों से बने हैं।
Sky, air, energy, water and the earth are the three basic ingredients which leads to formation of each and every matriculate particle, matter. 
ये पृथ्वी आदि वे ही नहीं है जो नित्य प्रति स्थूल जगत्‌ में देखने को मिलते हैं। ये पिछले सब तो पूर्वोक्त पाँचों तत्वों के संयोग से उत्पन्न पंच भौतिक हैं। वस्तुओं में जिन तत्वों की बहुलता होती है, वे उन्हीं नामों से वर्णित की जाती हैं। उसी प्रकार शरीर की धातुओं में या उनके संघटकों में जिस तत्व की बहुलता रहती है, वे उसी श्रेणी के गिने जाते हैं। इन पाँचों में आकाश तो निर्विकार है तथा पृथ्वी सबसे स्थूल और सभी का आश्रय है। जो कुछ भी विकास या परिवर्तन होते हैं, उनका प्रभाव इसी पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। शेष तीन (वायु, तेज और जल) सब प्रकार के परिवर्तन या विकार उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। अत: तीनों की प्रचुरता के आधार पर, विभिन्न धातुओं एवं उनके संघटकों को वात, पित्त और कफ की संज्ञा दी गई है। सामान्य रूप से ये तीनों धातुएं शरीर की पोषक होने के कारण, विकृत होने पर अन्य धातुओं को भी दूषित करती हैं। अत: दोष तथा मल रूप होने से मल कहलाती हैं। रोग में किसी भी कारण से इन्हीं तीनों की न्यूनता या अधिकता होती है, जिसे दोष-प्रकोप कहते हैं।
(2). धातु दूषण :: कुछ पदार्थ या कारण ऐसे होते हैं, जो किसी विशिष्ट धातु या अवयव में ही विकार करते हैं। इनका प्रभाव सारे शरीर पर नहीं होता। इन्हें धातु प्रदूषक कहते हैं।
(3). उभय हेतु :: वे पदार्थ जो सारे शरीर में वात आदि दोषों को कुपित करते हुए भी किसी धातु या अंग विशेष में ही विशेष विकार उत्पन्न करते हैं, उभय हेतु कहलाते हैं। किंतु इन तीनों में जो परिवर्तन होते हैं, वे वात, पित्त या कफ इन तीनों में से किसी एक, दो या तीनों में ही विकार उत्पन्न करते हैं। अत: ये ही तीनों दोष प्रधान शरीर गत कारण होते हैं, क्योंकि इनके स्वाभाविक अनुपात में परिवर्तन होने से शरीर की धातुओं आदि में भी विकृति होती है। रचना में विकार होने से क्रिया में भी विकार होना स्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक रचना और क्रिया के परिणाम स्वरूप अतिसार, कास आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं और इन लक्षणों के समूह को ही रोग कहते हैं।
इस प्रकार जिन पदार्थों के प्रभाव से वात आदि दोषों में विकृतियाँ होती हैं तथा वे वातादि दोष, जो शारीरिक धातुओं को विकृत करते हैं, दोनों ही हेतु (कारण) या निदान (आदि कारण) कहलाते हैं। अन्ततः इनके दो अन्य महत्व पूर्ण भेदों का विचार अपेक्षित है :
(1). निज (personal) :: जब पूर्वोक्त कारणों से क्रमश: शरीर गत वातादि दोष में और उनके द्वारा धातुओं में, विकार उत्पन्न होते हैं, तो उनको निज हेतु या निज रोग कहते हैं।
(2). आगंतुक (accidental, chance  factor) :: चोट लगना, आग से जलना, विद्युत प्रभाव, साँप आदि विषैले जीवों के काटने या विष प्रयोग से जब एकाएक विकार उत्पन्न होते हैं, तो उनमें भी वातादि दोषों का विकार होते हुए भी, कारण की भिन्नता और प्रबलता से, वे कारण और उनसे उत्पन्न रोग आगंतुक कहलाते हैं।
लिंग-रोग जानकारी के साधन :: पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न विकारों की पहचान जिन साधनों द्वारा होती है, उन्हें लिंग कहते हैं। इसके चार भेद प्रकार हैं :- पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय।
(1). पूर्व रूप :: किसी रोग के व्यक्त होने के पूर्व शरीर के भीतर हुई अत्यल्प या आरंभिक विकृति के कारण जो लक्षण उत्पन्न होकर किसी रोग विशेष की उत्पत्ति की संभावना प्रकट करते हैं, उन्हें पूर्वरूप कहते हैं।
(2). रूप (symptoms) :: जिन लक्षणों से रोग या विकृति का स्पष्ट परिचय मिलता है, उन्हें रूप कहते हैं।
(3). संप्राप्ति (pathogenic) :: किस कारण से कौन सा दोष स्वतंत्र रूप में या परतंत्र रूप में, अकेले या दूसरे के साथ, कितने अंश में और कितनी मात्रा में प्रकुपित होकर, किस धातु या किस अंग में, किस-किस स्वरूप का विकार उत्पन्न करता है, इसके निर्धारण को संप्राप्ति कहते हैं। चिकित्सा में इसी की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। वस्तुत: इन परिवर्तनों से ही ज्वरादि रूप में रोग उत्पन्न होते हैं, अत: इन्हें ही वास्तव में रोग भी कहा जा सकता है और इन्हीं परिवर्तनों को ध्यान में रखकर की गई चिकित्सा भी सफल होती है।
(4). उपशय और अनुपशय (therapeutic test) :: जब अल्पता या संकीर्णता आदि के कारण रोगों के वास्तविक कारणों या स्वरूपों का निर्णय करने में संदेह होता है, तब उस संदेह के निराकरण के लिए संभावित दोषों या विकारों में से किसी एक के विकार से उपयुक्त आहार-विहार और औषध का प्रयोग करने पर जिससे लाभ होता है, उसे उपचय के विवेचन में आयुर्वेदाचार्यो ने छह प्रकार से आहार-विहार और औषध के प्रयोगों का सूत्र बतलाते हुए उपशय के 18 भेदों का वर्णन किया है। ये सूत्र इतने महत्व के हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर एक-एक चिकित्सा पद्धति का उदय हो गया है; जैसे,
(1). हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना।
(2). व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं एलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (विपरीत, वेदना)।
(3). हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना।
(4). हेतु विपरीतार्थकारी :: रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है।
(5). व्याधि विपरीतार्थकारी :: रोग या वेदना को बढ़ाने वाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग।
(6). उभय विरीतार्थकारी :: कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग।
उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने "लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए।
रोग परीक्षा के चार साधन :: आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति।
(1). आप्तोपदेश :: योग्य अधिकारी, तप और ज्ञान से संपन्न होने के कारण, शास्त्रतत्वों को राग-द्वेष-शून्य बुद्धि से असंदिग्ध और यथार्थ रूप से जानते और कहते हैं। ऐसे विद्वान्‌, अनुसंधान शील, अनुभवी, पक्षपात हीन और यथार्थ वक्ता महापुरुषों को आप्त (authority) और उनके वचनों या लेखों को आप्तोपदेश कहते हैं। आप्तजनों ने पूर्ण परीक्षा के बाद शास्त्रों का निर्माण कर उनमें एक-एक के संबंध में लिखा है कि अमुक कारण से, इस दोष के प्रकुपित होने और इस धातु के दूषित होने तथा इस अंग में आश्रित होने से, अमुक लक्षणों वाला अमुक रोग उत्पन्न होता है, उसमें अमुक-अमुक परिवर्तन होते हैं तथा उसकी चिकित्सा के लिए इन आहार विहार और अमुक औषधियों के इस प्रकार उपयोग करने से तथा चिकित्सा करने से शान्ति होती है। इसलिए प्रथम योग्य और अनुभवी गुरुजनों से शास्त्र का अध्ययन करने पर रोग के हेतु, लिंग और औषध ज्ञान में प्रवृत्ति होती है। शास्त्र वचनों के अनुसार ही लक्षणों की परीक्षा प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति से की जाती है।
(2). प्रत्यक्ष :: मनोयोग पूर्वक इन्द्रियों द्वारा विषयों का अनुभव प्राप्त करने को प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके द्वारा रोगी के शरीर के अंग प्रत्यंग में होने वाले विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) की परीक्षा कर उनके स्वाभाविक या अस्वाभाविक होने का ज्ञान श्रोत्रेंद्रिय द्वारा करना चाहिए। वर्ण, आकृति, लम्बाई, चौड़ाई आदि प्रमाण तथा छाया आदि का ज्ञान नेत्रों द्वारा, गंधों का ज्ञान घ्राणेन्द्रिय तथा शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध एवं नाड़ी आदि के स्पंदन आदि भावों का ज्ञान स्पर्शेंद्रिय द्वारा प्राप्त करना चाहिए। रोगी के शरीरगत रस की परीक्षा स्वयं अपनी जीभ से करना उचित न होने के कारण, उसके शरीर या उससे निकले स्वेद, मूत्र, रक्त, पूय आदि में चींटी लगना या न लगना, मक्खियों का आना और न आना, कौए या कुत्ते आदि द्वारा खाना या न खाना, प्रत्यक्ष देखकर उनके स्वरूप का अनुमान किया जा सकता है।
(3). अनुमान :: युक्तिपूर्वक तर्क (ऊहापाह) के द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुमान (inference) है। जिन विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता या प्रत्यक्ष होने पर भी उनके संबंध में संदेह होता है वहाँ अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिए यथा पाचन शक्ति के आधार पर अग्निबल का, व्यायाम की शक्ति के आधार पर शारीरिक बल का, अपने विषयों को ग्रहण करने या न करने से इंद्रियों की प्रकृति या विकृति का तथा इसी प्रकार भोजन में रुचि, अरुचि तथा प्यास एवं भय, शोक, क्रोध, इच्छा, द्वेष आदि मानसिक भावों के द्वारा विभिन्न शारीरिक और मानसिक विषयों का अनुमान करना चाहिए। पूर्वोक्त उपशयानुपशय भी अनुमान का ही विषय है।
(4). युक्ति :: अनेक कारणों के सामुदायिक प्रभाव से किसी विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति को देखकर, तदनुकूल विचारों से जो कल्पना की जाती है उसे युक्ति कहते हैं। जैसे खेत, जल, जुताई, बीज और ऋतु के संयोग से ही पौधा उगता है। धुँए का आग के साथ सदैव संबंध रहता है अर्थात्‌ जहाँ धुआँ होगा वहाँ आग भी होगी। इसी को व्याप्ति ज्ञान भी कहते हैं और इसी के आधार पर तर्क कर अनुमान किया जाता है। इस प्रकार निदान, पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय इन सभी के सामुदायिक विचार से रोग का निर्णय युक्ति-युक्त होता है। योजना का दूसरी दृष्टि से भी रोगी की परीक्षा में प्रयोग कर सकते हैं। जैसे किसी इन्द्रिय में यदि कोई विषय सरलता से ग्राह्य न हो तो अन्य यंत्रादि उपकरणों की सहायता से उस विषय का ग्रहण करना भी युक्ति में ही अंतर्भूत है।
युक्ति :: यंत्र, साधन, उपाय, जुगत, आविष्कार, कल्पना, कार्यनीति, युद्ध-नीति; device, spec, tactic.
परीक्षण विषय :: पूर्वोक्त लिंगों के ज्ञान के लिए तथा रोग निर्णय के साथ साध्यता या असाध्यता के भी ज्ञान के लिए आप्तोपदेश के अनुसार प्रत्यक्ष आदि परीक्षाओं द्वारा रोगी के सार, तत्व (disposition), सहनन (उपचय, metabolic activities), प्रमाण (शरीर और अंग प्रत्यंग की लम्बाई, चौड़ाई, भार आदि), सात्म्य (अभ्यास, habits), आहार शक्ति, व्यायाम शक्ति तथा आयु के अतिरिक्त वर्ण, स्वर, गंध, रस और स्पर्श ये विषय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पशेंद्रिय, सत्व, भक्ति (रुचि), शौच, शील, आचार, स्मृति, आकृति, बल, ग्लानि, तंद्रा, आरम्भ (चेष्टा), गुरुता, लघुता, शीतलता, उष्णता, मृदुता, काठिन्य आदि गुण, आहार के गुण, पाचन और मात्रा, उपाय (साधन), रोग और उसके पूर्वरूप आदि का प्रमाण, उपद्रव (complications), छाया (lustre), प्रतिच्छाया, स्वप्न (dreams), रोगी को देखने को बुलाने के लिए आए दूत तथा रास्ते और रोगी के घर में प्रवेश के समय के शकुन और अपशकुन, ग्रहयोग आदि सभी विषयों का प्रकृति (nature) तथा विकृति (defects) की दृष्टि से विचार करते हुए परीक्षा करनी चाहिए। विशेषत: नाड़ी, मल, मूत्र, जिह्वा, शब्द (ध्वनि), स्पर्श, नेत्र और आकृति की सावधानी से परीक्षा करनी चाहिए। आयुर्वेद में नाड़ी की परीक्षा अति महत्व का विषय है। केवल नाड़ी परीक्षा से दोषों एवं दूष्यों के साथ रोगों के स्वरूप आदि का ज्ञान अनुभवी वैद्य प्राप्त कर लेता है।
नाड़ी परीक्षण :: नाड़ी परीक्षा के बारे में शारंगधर संहिता, भावप्रकाश, योगरत्नाकर आदि ग्रंथों में वर्णन है। महर्षि सुश्रुत अपनी योगिक शक्ति से समस्त शरीर की सभी नाड़ियाँ देख सकते थे। आयुर्वेद में पारंगत वैद्य नाड़ी परीक्षा से रोगों का पता लगाते है। इससे ये पता चलता है की कौन सा दोष शरीर में विद्यमान है। ये बिना किसी महँगी और तकलीफदायक डायग्नोस्टिक तकनीक के बिलकुल सही निदान करती है। जैसे की शरीर में कहाँ कितने साइज़ का ट्यूमर है, किडनी खराब है या ऐसा ही कोई भी जटिल से जटिल रोग का पता चल जाता है। दक्ष वैद्य हफ्ते भर पहले क्या खाया था ये भी बता देतें है। भविष्य में क्या रोग होने की संभावना है ये भी पता चलता है ।
महिलाओं का बाँया और पुरुषों का दाँया हाथ देखा जाता है।
कलाई के अन्दर अँगूठे के नीचे जहाँ पल्स-नब्ज महसूस होती है, तीन उंगलियाँ रखी जाती हैं।
अंगूठे के पास की ऊँगली में वात, मध्य वाली ऊँगली में पित्त और अंगूठे से दूर वाली ऊँगली में कफ महसूस किया जा सकता है।
वात की पल्स अनियमित और मध्यम तेज लगेगी।
पित्त की बहुत तेज पल्स महसूस होगी।
कफ की बहुत कम और धीमी पल्स महसूस होगी।
तीनों उंगलियाँ एक साथ रखने से ये पता चलेगा की कौन सा दोष अधिक है।
प्रारम्भिक अवस्था में ही उस दोष को कम कर देने से रोग होता ही नहीं।
हर एक दोष की भी 8 प्रकार की पल्स होती है; जिससे रोग का पता चलता है, इसके लिए काफ़ीअभ्यास की ज़रुरत होती है।
कभी कभी 2 या 3 दोष एक साथ हो सकते है ।
नाड़ी परीक्षा अधिकतर सुबह उठकर आधे एक घंटे बाद करते है, जिससे अपनी प्रकृति के बारे में पता चलता है। ये भूख-प्यास, नींद, धूप में घुमने, रात्रि में टहलने से, मानसिक स्थिति से, भोजन से, दिन के अलग-अलग समय और मौसम से बदलती है।
चिकित्सक को थोड़ा आध्यात्मिक और योगी होने से मदद मिलती है। सही निदान करने वाले नाड़ी पकड़ते ही तीन सेकण्ड में दोष का पता लगा लेते है। वैसे 30 सेकण्ड तक देखना चाहिए।
मृत्यु नाडी से कुशल वैद्य भावी मृत्यु के बारे में भी बता सकते हैं।
उपचय METABOLISM :: वह क्रिया जिसके द्वारा खाद्य पदार्थ शरीर के ऊतकों में एवं शरीर की वृद्धि, मरम्मत तथा इसके सामान्य कार्यों के लिए ऊर्जा या शक्ति में रूपान्तरित हो जाते हैं। 
औषध MEDICINES :: जिन साधनों के द्वारा रोगों के कारण भूत दोषों एवं शारीरिक विकृतियों का शमन किया जाता है उन्हें औषधी कहते हैं। ये मख्यतः दो प्रकार की होती है :- अपद्रव्यभूत और द्रव्यभूत।
(1). अद्रव्यभूत औषध :: जिसमें किसी द्रव्य का उपयोग नहीं होता, जैसे उपवास, विश्राम, सोना, जागना, टहलना, व्यायाम आदि।
(2). द्रव्यभूत औषध :: बाह्य या आभ्यंतर प्रयोगों द्वारा शरीर में जिन बाह्य द्रव्यों (drugs, medicines) का प्रयोग होता है, वे द्रव्यभूत औषध हैं। ये द्रव्य संक्षेप में तीन प्रकार के होते हैं :-
(2.1). जांगम ANIMAL SOURCE :: जो विभिन्न प्राणियों के शरीर से प्राप्त होते हैं, जैसे मधु, दूध, दही, घी, मक्खन, मठ्‌ठा, पित्त, वसा, मज्जा, रक्त, मांस, पुरीष, मूत्र, शुक्र, चर्म, अस्थि, शृंग, खुर, नख, लोम, शंख आदि। 
(2.2). औद्भिद (HERBAL MEDICINE-HERBS) :: मूल (जड़, root), फल आदि। 
(2.3). पार्थिव-खनिज, MINERALS :: सोना, चाँदी, सीसा, राँगा, ताँबा, लोहा, चूना, खड़िया, अभ्रक, संखिया, हरताल, मैनसिल, अंजन (antimony), गेरू, नमक आदि।
शरीर की भांति ये सभी द्रव्य भी पंच भौतिक होते हैं, इनके भी वे ही संघटक होते हैं जो शरीर के हैं। अत: संसार में कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है, जिसका किसी न किसी रूप में किसी न किसी रोग के किसी न किसी अवस्था विशेष में औषध रूप में प्रयोग न किया जा सके। किंतु इनके प्रयोग के पूर्व इनके स्वाभाविक गुण धर्म, संस्कार जन्य गुण धर्म, प्रयोग विधि तथा प्रयोग मार्ग का ज्ञान आवश्यक है। इनमें कुछ द्रव्य दोषों का शमन करते हैं, कुछ दोष और धातु को दूषित करते हैं और कुछ स्वस्थ्य वृत में अर्थात्‌ धातु साम्य को स्थिर रखने में उपयोगी होते हैं, इनकी उपयोगिता के समुचित ज्ञान के लिए द्रव्यों के पंच भौतिक संघटकों में तारतम्य के अनुसार स्वरूप (composition), गुरुता, लघुता, रूक्षता, स्निग्धता आदि गुण, रस (taste & local action), वपाक (metabolic changes), वीर्य (physiological actions), प्रभाव (specific actions) तथा मात्रा (doses) का ज्ञान आवश्यक होता है।
औषध-भैषज्य कल्पना :: औषधि को तैयार के निर्माण की विधि आयुर्वेद में रस शास्त्र का अर्थ औषध (भेषज) निर्माण है और यह मुख्यतः खनिज मूल के औषधियों से सम्बन्धित है। रसशास्त्र और भैषज्य कल्पना मिलकर आयुर्वेद का महत्वपूर्ण अंग बनाते हैं।
यस्य कस्य तरोर्मूलं येन केनापि मिश्रितम्।
यस्मै कस्मै प्रदातव्यं यद्वा तद्वा भविष्यति॥
जिस-तिस वृक्ष का मूल ले लिया, जिस-किस द्वारा उसका मिश्रण बना दिया गया, जिस-तिस को उसे दे दिया गया (सेवन करा दिया गया), तो परिणाम भी ऐसा-वैसा ही होगा।
सभी द्रव्य सदैव अपने प्राकृतिक रूपों में शरीर में उपयोगी नहीं होते। रोग और रोगी की आवश्यकता के विचार से शरीर की धातुओं के लिए उपयोगी एवं सात्म्यकरण के अनुकूल बनाने के लिए; इन द्रव्यों के स्वाभाविक स्वरूप और गुणों में परिवर्तन के लिए, विभिन्न भौतिक एवं रासायनिक संस्कारों द्वारा जो उपाय किए जाते हैं उन्हें कल्पना (pharmacy, pharmaceutical processes) कहते हैं। जैसे-स्वरस (जूस), कल्क या चूर्ण (पेस्ट या पाउडर), शीत क्वाथ (infusion), क्वाथ (decoction), आसव तथा अरिष्ट (tinctures), तैल, घृत, अवलेह आदि तथा खनिज द्रव्यों के शोधन, जारण, मारण, अमृतीकरण, सत्वपातन आदि। 
Components of various medicines are carefully selected and mixed as per need. 
चिकित्सा TREATMENT (1) :: चिकित्सक, परिचायक, औषध और रोगी, ये चारों मिलकर शारीरिक धातुओं की समता के उद्देश्य से जो कुछ भी उपाय या कार्य करते हैं उसे चिकित्सा कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है : (1). निरोधक (preventive) तथा (2). प्रतिषेधक (curative) जैसे शरीर के प्रकृतिस्थ दोषों और धातुओं में वैषम्य (विकार) न हो तथा साम्य की परम्परा निरन्तर बनी रहे, इस उद्देश्य से की गई चिकित्सा निरोधक है तथा जिन क्रियाओं या उपचारों से विषम हुई शरीरिक धातुओं में समता उत्पन्न की जाती है, उन्हें प्रतिषेधक चिकित्सा कहते हैं।
अन्य चिकित्सा पद्धति ALTERNATE TREATMENT (2) :: पुनः चिकित्सा तीन प्रकार की होती है :- (2.1). दैवव्यपाश्रय, (2.2). सत्वावजय और (2.3). युक्तिव्यपाश्रय।
(2.1). दैवव्यपाश्रय PRAYERS :: जो रोग दोषज ना होकर कर्मज होते हैं, जो पूर्व जन्म कृत पापों से या सिद्ध, ऋषि या देवता आदि के अपमान करने पर उनके शाप से होते हैं, उनकी शान्ति के लिए मंत्र, व्रत, उपवास करना, मंगल वाचक वेद मंत्रों का पाठ करना, देवता, गुरू व ब्राह्मण को झुककर प्रणाम करना और तीर्थयात्रा करना आदि उपाय हैं।
(2.2). सत्वावजय PSYCHOLOGICAL :: मानसिक् रोगों को नियन्त्रित करने के लिए ज्ञान-विज्ञान, धैर्य, स्मृति और समाधि द्वारा मन को एकाग्र करना तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक आहार-विहार से मन को रोकना सत्त्वावजय चिकित्सा है।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। 
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥[ब्रह्मबिन्दूपनिषद् 2]
मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है। केवल मानसिक ही नहीं अपितु अनेकानेक शारीरिक रोगों की चिकित्सा में भी यदि मनुष्य को प्रेरित किया जाए तो आशातीत सफलता प्राप्त होती है। इसमें मन को अहित विषयों से रोकना तथा हर्षण, आश्वासन आदि उपाय हैं। अनेेकानेक व्यक्तियों ने अपने आत्मबल के बलबूते पर गम्भीर रोगों को परास्त किया है। अतएव एक सफल चिकित्सक रोगी के आत्मबल को विकसित करने का प्रयास करता है। इसमें ग्रह आदि दोषों के शमनार्थ तथा पूर्वकृत अशुभ कर्म के प्रायश्चित्तस्वरूप देवाराधन, जप, हवन, पूजा, पाठ, व्रात, तथा मणि, मंत्र, यंत्र, रत्न और औषधि आदि का धारण, ये उपाय होते हैं।
(2.3). युक्तिव्यपाश्रय MEDICINAL-SYSTEMATIC TREATMENT :: रोग और रोगी के बल, स्वरूप, अवस्था, स्वास्थ्य, सत्व, प्रकृति आदि के अनुसार उपयुकत औषध की उचित मात्रा, अनुकूल कल्पना (बनाने की रीति) आदि का विचार कर प्रयुक्त करना। इसके भी मुख्यत: तीन प्रकार हैं : अंतः परिमार्जन, बहिः परिमार्जन और शस्त्र प्रणिधान।
(2.3.1). अन्तःपरिमार्जन-औषधियों का आभ्यन्तर प्रयोग :: हृष्ट-पुष्ट रोगी के लिए अपतर्पण चिकित्सा की जाती है जिससे उसके शरीर में लघुता आये। दुबले-पतले रोगी के ले संतर्पण चिकित्सा की जाती है, जिससे उसके शरीर में गुरुता आए।
इन दोनों प्रकार की चिकित्साओं के भी पुनः मुख्यतः दो प्रकार हैं :-
(2.3.1.1). आयुर्वेदिक चिकित्सा :: 
(2.3.1.1.1). लङ्घन चिकित्सा :: शरीर में लघुता लाने के लिए। यह भी दो प्रकार की होती है। 
(2.3.1.1.1.1). संशोधन :: जिस चिकित्सा में प्रकुपित दोषों और मलों को शरीर के स्वाभाविक विसर्जन अंगों द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। इस पांच प्रकार की चिकित्सा, वमन, विरेचन, अनुवासन बस्ति, निरूह बस्ति तथा नस्य, को पंचकर्म कहा जाता है जो आयुर्वेद की अत्यन्त ही प्रसिद्ध तथा प्रचलित चिकित्सा है।
(2.3.1.1.1.2). शमन :: दोषों को विसर्जित किये बिना ही विभिन्न प्रकार से साम्यावस्था में लाया जाता है जैसे पिपासा-निग्रह (प्यासे रहना), आतप और मारूत (धूप और ताजी हवा का सेवन), पाचन और दीपन (पाचन शक्ति की वृद्धि तथा भोजन का परिपाक करने वाली औषधियों का सेवन), उपवास (भूखे रहना) तथा शारीरिक व्यायाम (शारीरिक श्रम तथा योगासन)।
(2.3.1.2). बृंहण चिकित्सा :: शरीर की पुष्टि के लिए।
(2.3.1.2.1). शमन-लाक्षणिक चिकित्सा (सिंप्टोमैटिक ट्रीटमेंट) SYMPTOMATIC TREATMENT :: विभिन्न लक्षणों के अनुसार दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग जैसे ज्वर नाशक, छर्दिघ्न (वमन रोकनेवाला), अतिसार हर (स्तंभक), उद्दीपक, पाचक, हृद्य, कुष्ठघ्न, बल्य, विषघ्न, कासहर, श्वासहर, दाह प्रशामक, शीत प्रशामक, मूत्रल, मूत्र विशोधक, शुक्र जनक, शुक्र विशोधक, स्तन्य जनक, स्वेदल, रक्त स्थापक, वेदना हर, संज्ञा स्थापक, वयःस्थापक, जीवनीय, बृंहणीय, लेखनीय, मेदनीय, रूक्षणीय, स्नहेनीय आदि द्रव्यों का आवश्यकतानुसार उचित कल्पना और मात्रा में प्रयोग करना।
सावधानियाँ :: यह औषधि इस स्वभाव की होने के कारण तथा अमुक तत्वों की प्रधानता के कारण, अमुक गुणवाली होने से, अमुक प्रकार के देश में उत्पन्न और अमुक ऋतु में संग्रह कर, अमुक प्रकार सुरक्षित रहकर, अमुक कल्पना से, अमुक मात्रा से, इस रोग की, इस-इस अवस्था में तथा अमुक प्रकार के रोगी को इतनी मात्रा में देने पर अमुक दोष को निकालेगी या शान्त करेगी। इसके प्रभाव में इसी के समान गुणवाली अमुक औषधि का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें यह यह उपद्रव हो सकते हैं और उसके शमनार्थ उपाय करने चाहिए।
(2.3.2). बहिःपरिमार्जन EXTERNAL MEDICATION :: 
जैसे अभ्यंग, स्नान, लेप, धूपन, स्वेदन आदि।
(2.3.3). शल्य कर्म-शल्य तंत्र OPERATION :: विविध प्रकार के शल्यों को निकालने की विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्र आदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी व्रण में से तृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रों एवं शस्त्रों के प्रयोग एवं व्रणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्य यंत्र के अंतर्गत किया गया है। विभिन्न अवस्थाओं में निम्नलिखित आठ प्रकार के शस्त्र कर्मों में से कोई एक या अनेक प्रयोग करने पड़ते हैं :-
(2.3.3.1). छेदन :: काटकर दो फांक करना या शरीर से अलग करना (एक्सिज़न),
(2.3.3.2). भेदन :: चीरना (इंसिज़न),
(2.3.3.3). लेखन :: खुरचना (स्क्रेपिंग या स्कैरिफ़िकेशन),
(2.3.3.4). वेधन :: नुकीले शस्त्र से छेदना (पंक्चरिंग),
(2.3.3.5). एषण (प्रोबिंग),
(2.3.3.6). आहरण :: खींचकर बाहर निकालना (एक्स्ट्रैक्शन),
(2.3.3.7). विस्रावण :: रक्त, पूय आदि को चुवाना (ड्रेनेज),
(2.3.3.8). सीवन :: सीना (स्यूचरिंग या स्टिचिंग)।
इनके अतिरिक्त उत्पाटन (उखाड़ना), कुट्टन (कुचकुचाना, smashing, powdering), मंथन (मथना, churning), दहन (जलाना, burning) आदि उप शस्त्र कर्म भी होते हैं। शस्त्र कर्म (operation) के पूर्व की तैयारी को पूर्व कर्म कहते हैं, जैसे रोगी का शोधन, यंत्र (instruments), शस्त्र (sharp instruments) तथा शस्त्र कर्म के समय एवं बाद में आवश्यक रुई, वस्त्र, पट्टी, घृत, तेल, क्वाथ, लेप आदि की तैयारी और शुद्धि। वास्तविक शस्त्र कर्म को प्रधान कर्म कहते हैं। शस्त्र कर्म के बाद शोधन, रोहण, रोपण, त्वक्स्थापन, सवर्णीकरण, रोम जनन आदि उपाय पश्चात्कर्म हैं।
शस्त्र साध्य तथा अन्य अनेक रोगों में क्षार या अग्नि प्रयोग के द्वारा भी चिकित्सा की जा सकती है। रक्त निकालने के लिए जोंक, सींगी, तुंबी, प्रच्छान तथा शिरावेध का प्रयोग होता है।
मानस रोग-मस्तिष्क विकार MENTAL TROUBLES :: मन भी आयु का उपादान है। मन के पूर्वोक्त रज और तम इन दो दोषों से दूषित होने पर मानसिक संतुलन बिगड़ने का इन्द्रियों और शरीर पर भी प्रभाव पड़ता है। शरीर और इन्द्रियों के स्वस्थ होने पर भी मनोदोष से मनुष्य के जीवन में अस्त-व्यस्तता आने से आयु का ह्रास होता है। उसकी चिकित्सा के लिए मन के शरीराश्रित होने से शारीरिक शुद्धि आदि के साथ ज्ञान, विज्ञान, संयम, मन समाधि, हर्षण, आश्वासन आदि मानस उपचार करना चाहिए। मन को क्षोभक आहार-विहार आदि से बचना चाहिए तथा मानस रोग विशेषज्ञों (psychologists) से उपचार कराना चाहिए।
इन्द्रियाँ  :: ये आयुर्वेद में भौतिक मानी गई हैं। ये शरीराश्रित तथा मनोनियंत्रित होती हैं। अत: शरीर और मन के आधार पर ही इनके रोगों की चिकित्सा की जाती है।
नैष्ठिकी चिकित्सा :: आत्मा निर्विकार है। उसके साधनों (मन और इन्द्रियों) तथा आधार (शरीर) में विकार होने पर इन सबकी संचालक आत्मा में विकार का आभास मात्र होता है। किंतु पूर्वकृत अशुभ कर्मों परिणाम स्वरूप आत्मा को भी विविध योनियों में जन्म ग्रहण आदि भव बन्धन रूपी रोग से बचाने के लिए, इसके प्रधान उपकरण मन को शुद्ध करने के लिए, सत्संगति, ज्ञान, वैराग्य, धर्म शास्त्र चिन्तन, व्रत, उपवास आदि करना चाहिए। इनसे तथा यम-नियम आदि योगाभ्यास द्वारा स्मृति (तत्व ज्ञान) की उत्पत्ति होने से कर्म संन्यास द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे नैष्ठिकी चिकित्सा कहते हैं। क्योंकि संसार द्वंद्वमय है, जहाँ सुख है वहाँ दु:ख भी है, अत: आत्यंतिक (सतत) सुख तो द्वंद्वमुक्त होने पर ही मिलता है और उसी को मोक्ष कहते हैं।
अष्टाङ्ग वैद्यक-आयुर्वेद के आठ विभाग 8 DIVISIONS OF AYUR VED ::
काय चिकित्सा :: इसमें सामान्य रूप से औषधि प्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है। 
कायचिकित्सानाम सर्वांगसंश्रितानांव्याधीनां ज्वररक्तपित्त-शोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम्‌। [सु.सं. 1.3]
शालाक्य तंत्र ::
शल्यंनाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्ठस्थिवालनखपूयास्रावद्रष्ट्व्राणां-
तर्गर्भशल्योद्वरणार्थ यंत्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधान्व्राण विनिश्चयार्थच।[सु.सू. 1.1]
गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा शलाका सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्य यंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानतः मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।
शालाक्यं नामऊर्ध्वजन्तुगतानां श्रवण नयन वदन घ्राणादि संश्रितानां व्याधीनामुपशमनार्थम्‌।[सु.सू. 1.2]
कौमार भृत्य :: बच्चों, स्त्रियों विशेषत: गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्री रोग के साथ गर्भ विज्ञान का वर्णन इस तंत्र में है।
कौमारभृत्यं नाम कुमारभरण धात्रीक्षीरदोषश् संशोधनार्थं
दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानां च व्याधीनामुपशमनार्थम्[सु.सू. 1.5]
अगद तंत्र :: इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।
अगदतंत्रं नाम सर्पकीटलतामषिकादिदष्टविष व्यंजनार्थं
विविधविषसंयोगोपशमनार्थं च।[सु.सू. 1.6]
भूत विद्या :: इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्न हुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।
भूतविद्यानाम देवासुरगंधर्वयक्षरक्ष: पितृपिशाचनागग्रहमुपसृष्ट
चेतसांशान्तिकर्म वलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम्।[सु.सू. 1.4]‌
रसायन तंत्र  REJUVENATION & GERIATRICS :: चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।
रसायनतंत्र नाम वय: स्थापनमायुमेधावलकरं रोगापहरणसमर्थं च। [सु.सू. 1.7]
वाजीकरण VIRILIFICATION, APHRODISIAC & SEXOLOGY :: शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आते हैं।
वाजीकरणतंत्रं नाम अल्पदुष्ट क्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन प्रसादोपचय जनननिमित्तं प्रहर्षं जननार्थंच। [सु.सू. 1.8]
आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ :: 
बृहत्रयी :- चरक संहिता-चरक, सुश्रुत संहिता-सुश्रुत, अष्टांग हृदय-वाग्भट। 
लघुत्रयी :- भाव प्रकाश-भाव मिश्र, माधव निदान-माधव कर, शार्ङ्गधरसंहिता-शार्ङ्गधर। 
अन्य :- अष्टांग संग्रह, भेल संहिता-भेलाचार्य, काश्यप संहिता (इसमें कौमार भृत्य-बाल चिकित्सा) की विशेष रूप से चर्चा है), वंग सेन संहिता या चिकित्सा सार संग्रह- वंग सेन। 
आयुर्वेद शब्दावली ::
अनुपान :- जिस पदार्थ के साथ दवा का सेवन किया जाये जैसे जल, शहद। 
अपथ्य :- त्यागने योग्य, सेवन न करने योग्य। 
अनुभूत :- आज़माया हुआ। 
असाध्य :- लाइलाज, जिसका इलाज़ न हो सके। 
अजीर्ण :- बदहजमी, खाना हजम न हो। 
अभिष्यन्दि :- भारीपन और शिथिलता पैदा करने वाला भोज्य पदार्थ जैसे दही। 
अनुलोमन :- नीचे की ओर गति करना, भोजन मुँह पेट  होकर पचने  के बाद नीचे जाता है। 
अतिसार :- बार बार पतले दस्त होना। 
अर्श :- बवासीर। 
अर्दित :- मुँह का लकवा। 
आम :- खाये हुए आहार को जब तक वह पूरी तरह पच ना जाए, आम कहते हैं। अन्न-नलिका से होता हुआ अन्न जहाँ पहुँचता है, उस अंग को आमाशय यानि आम का स्थान कहते हैं।
आहार :- खान-पान, भोजन। 
ओज :- जीवन शक्ति। 
उष्ण :- गरम। 
उष्ण्वीर्य :- गर्म प्रकृति का। 
कष्ट साध्य :- कठिनाई से ठीक होने वाला। 
कल्क :- पिसी हुई लुग्दी। 
क्वाथ :- काढ़ा। 
कर्मज :- पिछले कर्मों के कारण होने वाला। 
कुपित होना :- वृद्धि होना, उग्र होना
काढ़ा :- द्रव्य-औषधियों को पानी में इतना उबाला जाए कि पानी जल कर चौथाई अंश शेष बचे।  इसे छानकर छूछन निकालने के बाद काढ़ा बचता है।
कास :- खाँसी
कोष्ण :- कुनकुना गरम
गरिष्ठ :- भारी,अपाच्य, उदाहरण-उड़द  दाल।   
ग्राही :- जो द्रव्य दीपन और पाचन दोनों काम करे और अपने गुणों से जलयांश को सुखा दे, जैसे सोंठ। 
गुरु :- भारी। 
चातुर्जात :- नागकेसर, तेजपात, दालचीनी, इलायची।
त्रिदोष :- वात, पित्त, कफ।
त्रिगुण :- सत, रज, तम।
त्रिकूट :- सौंठ, पीपल, काली मिर्च।
त्रिफला :- हरड़, बहेड़ा, आंवला।
तीक्ष्ण :- तीखा, तीता, पित्त कारक। 
तृषा :- प्यास, तृष्णा। 
तन्द्रा :- अध कच्ची नींद। 
दाह :- जलन। 
दीपक :- जो द्रव्य जठराग्नि तो बढ़ाये पर पाचन-शक्ति ना बढ़ाये, जैसे सौंफ।
निदान :- कारण, रोग उत्पत्ति के कारणों का पता लगाना। 
नस्य :- नाक से सूघने की नासका। 
पंचांग :- पांचों अंग, फल फूल, बीज, पत्ते और जड़। 
पंचकोल :- चव्य, छित्र कछल, पीपल, पीपल मूल और सौंठ। 
पंचमूल बृहत् :- बेल, गंभारी, अरणि, पाटला, श्योनक। 
पंचमूल लघु :- शलिपर्णी, प्रश्निपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी कटेली और गोखरू। दोनों पंचमूल मिलकर दशमूल कहलाते हैं। 
परीक्षित :- परीक्षित, आजमाया हुआ। 
पथ्य :- सेवन योग्य। 
परिपाक :- पूरा पाक जाना, पच जाना।     
प्रकोप :- वृद्धि, उग्रता, कुपित होना।   
पथ्यापथ्य :- पथ्य एवं अपथ्य। 
प्रज्ञापराध :- जानबूझ कर अपराध कार्य करना। 
पाण्डु :- पीलिया रोग, रक्त की कमी होना। 
पाचक :- पचाने वाला, पर दीपन न करने वाला द्रव्य, जैसे केसर। 
पिच्छिल :- रेशेदार और भारी। 
बल्य :- बल देने वाला। 
ब्राहण :- पोषण करने वाला। 
भावना देना :- किसी द्रव्य के रस में उसी द्रव्य के चूर्ण को गीला करके सुखाना। जितनी भावना देना होता है, उतनी ही बार चूर्ण को उसी द्रव्य के रस में गीला करके सुखाते हैं। 
मूर्छा :- बेहोशी। 
मदत्य :- अधिक मद्यपान करने से होने वाला रोग। 
मूत्र कृच्छ :- पेशाब करने में कष्ट होना, रुकावट होना  
योग :- नुस्खा। 
योगवाही :- दूसरे पदार्थ के साथ मिलने पर उसके गुणों की वृद्धि करने वाला पदार्थ, जैसे शहद।
रसायन :- रोग और बुढ़ापे को दूर रख कर धातुओं की पुष्टि और रोगप्रतिरोधक शक्ति की वृद्धि करने वाला पदार्थ, जैसे हरड़, आँवला। 
रेचन :- अधपके मल को पतला करके दस्तों के द्वारा बाहर निकालने वाला पदार्थ, जैसे त्रिफला, निशोथ।
रुक्ष :- रूखा। 
लघु :- हल्का। 
लेखन :- शरीर की धातुओं को एवं मल को सुखाने वाला, शरीर को दुबला करने वाला, जैसे शहद, पानी के साथ।  
वमन :- उल्टी। 
वामक :- उल्टी करने वाले पदार्थ, जैसे मैनफल। 
वातकारक :- वात (वायु) को कुपित करने वाले अर्थात बढ़ाने वाले पदार्थ।
वातज :- वात (वायु) दोष के कुपित होने पर इसके परिणामस्वरूप शरीर में जो रोग उत्पन्न होते हैं वातज अर्थात वात से उत्पन्न होना कहते हैं।
वातशामक :- वात (वायु) का शमन करने वाला, जो वात प्रकोप को शान्त कर दे। इसी तरह पित्त कारक, पित्तज और पित्त शामक तथा कफ कारक, कफज और कफ शामक का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। इनका प्रकोप और शमन होता रहता है।
विरेचक :- जुलाब। 
विदाहि :- जलन करने वाला। 
विशद :- घाव भरने व सुखाने वाला। 
विलोमन :- ऊपर की तरफ गति करने वाला। 
वाजीकारक :- बलवीर्य और यौनशक्ति की भारी वृद्धि करने वाला, जैसे असगंध और कौंच के बीज।
वृष्य :- पोषण और बलवीर्य-वृद्धि करने वाला तथा घावों को भरने वाला
व्रण :- घाव, अलसर। 
व्याधि :- रोग, कष्ट। 
शमन :- शान्त करना। 
शामक :- शान्त करने वाला। 
शीवीर्य :- शीतल प्रकृति का। 
शुक्र :- वीर्य। 
शुक्रल :- वीर्य उत्पन्न करने एवं बढ़ाने वाला पदार्थ, जैसे कौंच के बीज। 
श्वास रोग :- दमा। 
शूल :- दर्द। 
शोथ :- सूजन। 
शोष :- सूखना
षडरस :- पाचन में सहायक छह रस; मधुर, लवण, अम्ल, तिक्त, कटु और कषाय।
सर :- वायु और मल को प्रवृत्त करने वाला गुण
स्निग्ध :- चिकना पदार्थ, जैसे घी, तेल।
सप्त धातु :- शरीर की सात धातुएं; रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।
सन्निपात :- वात, पित्त, कफ; तीनों के कुपित हो जाने की अवस्था, प्रलाप। 
स्वरस :- किसी द्रव्य के रस को ही स्वरस (खुद का रस ) कहते हैं।
संक्रमण :- छूत लगना, इन्फेक्शन। 
साध्य :- इलाज के योग्य। 
हिक्का :- हिचकी। 
त्रिदोष :: आयुर्वेद में तीन प्रकार के दोषों से रोगों की उत्पत्ति मानी गई है। ये तीन दोष वात, कफ व पित्त है। मनुष्य के शरीर की समस्त आन्तरिक गतिविधियाँ, वात द्वारा ही संचालित होती है। शरीर में सारी बीमारियाँ वात-पित्त और कफ के बिगड़ने से ही होती हैं। सिर से लेकर छाती के बीच तक जितने रोग होते हैं, वो सब कफ बिगड़ने के कारण होते हैं। छाती के बीच से लेकर पेट और कमर के अंत तक, जितने रोग होते हैं, वो पित्त बिगड़ने के कारण होते हैं और कमर से लेकर घुटने और पैरों के अंत तक जितने रोग होते हैं, वो सब वात के बिगड़ने के कारण होते हैं। पेट में गैस बनने के कारण सिर दर्द होता है तो इसे कफ का रोग नहीं कहेंगे, अपितु पित्त का रोग कहेंगे; क्योंकि  पित्त बिगड़ने से गैस हो रही है और सिर दर्द हो रहा है। 14 वर्ष की आयु तक कफ के रोग ज्यादा होते हैं। बार बार खांसी, सर्दी, छींके आना आदि। 14 वर्ष से 60 साल तक पित्त के रोग सबसे ज्यादा होते हैं। बार बार पेट दर्द करना, गैस बनना, खट्टी खट्टी डकारे आना आदि। उसके बाद बुढ़ापे में वात के रोग सबसे ज्यादा होते हैं जैसे घुटने दुखना, जोड़ों का दर्द इत्यादि-इत्यादि। हाथ की कलाई में वात-पित्त और कफ की तीन नाड़ियाँ होती हैं, जिनका प्रयोग रोग निदान हेतु किया जाता है, जिसके लिए बहुत अभ्यास की आवश्यकता है। 
मुख्यतः यह तीन होते हैं, जिन्हें वात, पित्त और कफ कहते हैं (ये एकल दोष कहे जाते हैं)। जब वात और पित्त अथवा पित्त और कफ अथवा वात और कफ ये दो दोष मिल जाते हैं, तब इस मिश्रण को द्विदोषज कहते हैं। जब वात, पित्त और कफ ये तीनों दोष एक साथ मिल जाते हैं, तब इस मिश्रण को त्रिदोषज या सन्निपातज कहते हैं।
वात, पित्त और कफ, जो एक साथ अपचयी और उपचय चयापचय को विनियमित और नियंत्रित करते हैं। इन तीन दोषों का मुख्य कार्य है, पूरे शरीर में पचे हुए खाद्य पदार्थों के प्रतिफल को ले जाना, जो शरीर के ऊतकों के निर्माण में मदद करता है। इन दोषों में कोई भी गड़बड़ी-असन्तुलन बीमारी का कारण बनती है।
वाग्बट्ट की रचना अष्टांग हृदयं में 7,000 सूत्र हैं। उनके अनुसार वात, पित्त और कफ संतुलित रखना सर्वोत्तम कला और  कौशल्य है। उसमें सबसे महत्व पूर्ण और पहला सूत्र है :- "भोजनान्ते विषं वारी" अर्थात खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीना जहर पीने के बराबर है।
आयुर्वेद के अनुसार आग जलेगी तो खाना पचेगा, खाना पचेगा तो उसका रस बनेगा, जो रस बनेगा तो उसी रस से मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, हड्डिया, मल-मूत्र और अस्थि बनेगा और सबसे अंत मे मेद बनेगा। ये तभी होगा जब खाना पचेगा। अगर खाना खाने के तुरंत बाद पानी पी लिया, तो जठराग्नि नहीं जलेगी, खाना नहीं पचेगा और वही खाना फिर सड़ेगाऔर सड़ने के बाद उससे जहर बनेंगे। 
विभिन्न शारीरिक संरचनाओं के दोषों  को निम्न तीन भागों में बाँटा जा सकता है :-    
वात दोष :: इसमें वायु और आकाश तत्व प्रबल होते हैं।
पित्त दोष :: इसमें अग्नि दोष प्रबल होता है।
कफ दोष :: इसमें पृथ्वी और जल तत्व प्रबल होते हैं।
दोष सिर्फ किसी के शरीर के स्वरुप पर ही प्रभाव नहीं डालता, अपितु वह शारीरिक प्रवृतियाँ (जैसे भोजन का चुनाव और पाचन) और किसी के मन का स्वभाव और उसकी भावनाओं पर भी प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए जिन लोगों में पृथ्वी तत्व और कफ दोष होने से उनका शरीर मजबूत और हट्टा-कट्टा होता है। उनमें धीरे धीरे से पाचन होने की प्रवृति, गहन स्मरण शक्ति और भावनात्मक स्थिरता होती है। अधिकांश लोगो में प्रकृति दो दोषों के मिश्रण से बनी हुई होती है। उदाहरण के लिए जिन लोगों में पित्त कफ प्रकृति होती है, उनमें पित्त दोष और कफ दोष दोनों की ही प्रवृतियाँ होती हैं। परन्तु पित्त दोष प्रबल होता है। प्राकृतिक संरचना के गुण की समझ होने से मनुष्य अपना शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाये रखने के लिये सभी उपाय भली-भाँति कर सकते हैं।
त्रिदोष के पाँच भेद तथा हरेक दोष के पाँच भेद आयुर्वेद के मनीषियों नें निर्धारित किये हैं :: 
वात दोष के पाँच भेद :: (1). समान वात, (2).  व्यान वात, (3). उदान वात, (4). प्राण वात और (5). अपान वात हैं।
वात दोष को  वायु दोष भी कहते हैं।
पित्त दोष के पाँच भेद :: (1). पाचक पित्त, (2). रंजक पित्त, (3). भ्राजक पित्त, (4). लोचक पित्त और (5). साधक पित्त। 
कफ दोष के पाँच भेद :: (1). श्लेष्मन कफ, (2). स्नेहन कफ, (3). रसन कफ, (4). अवलम्बन कफ और (5). क्लेदन कफ। 
त्रिदोष :: तीन दोष यानि वात, पित्त, कफ़। 
वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः।[वाग्भट्ट अ.स.सू.प्र.अ.]
क्योंकि ये शरीर को दूषित करते हैं, इसलिए इन्हें दोष कहा जाता है।
"दूषणाद्दोषाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो शरीर को दूषित करते हैं, वे दोष हैं, ये दोष शरीर को तभी दूषित करते हैं, जब स्वयं विकृत हो जाते हैं।
''दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्'' कहा गया है। प्राकृतावस्था में तो दोष धातु, मल ही शरीर को धारण करते हैं।
किन्तु शरीर को दूषित करने के कारण ही इन्हें दोष नाम से वर्णित किया गया है। परन्तु सदैव ये इसी रूप में नहीं रहते।
साम्यावस्था प्रकृति :: जब ये प्राकृतावस्था में रहते हैं, तब शरीर को धारण करते हैं, इसीलिए समावस्था में स्थित वात्, पित्त, कफ़ को धातु कहते हैं। जब ये शरीर धारण के लिए अनुपयुक्त होकर शरीर को मलिन करते हैं, तब इन्हें मल कहते हैं।
इस प्रकार अवस्था भेद से वात, पित्त और कफ़ के लिए दोष, धातु और मल इन तीनों संज्ञाओं का व्यवहार होता है। 
वात, पित्त, कफ़ को रसादि सप्त धातुओं का निर्माण कर्ता तथा शरीरोत्पत्ति का कारण कहा गया है।[अथर्ववेद]
वात, पित्त और कफ़ ये त्रिदोष प्राणियों के शरीर में सर्वदा रहते हैं। शरीर के प्रकृति भूत ये त्रिदोष आरोग्य प्रदान करते हैं तथा विकृत होने पर ये विकार कहे जाते हैं। त्रिदोष का प्रकृतिस्थ रहना ही आरोग्य है।[चरक संहिता] 
दोषा पुनस्त्रयो वात पित्त श्लेष्माणः।
ते प्रकृति भूताः शरीरोपकारका भवन्ति॥ 
विकृतिमापन्नास्तु खलु नानाविधैविर्कारेः शरीरमुपतापयन्ति।[च.वि.अ. 1]
प्राकृतावस्था में लाभकारी और विकृति आने पर शरीर में रोगोत्पत्ति दोषों के ही परिणाम स्वरूप होती है अर्थात् इनकी साम्यावस्था ही स्वस्थता का प्रतीक है और इसमें परिवर्तन होना विकार का कारण है। 
रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यरोगतां।
इन दोषों में परिवतर्न आना ही रोग का मूल कारण होता है। अनेक प्रकार के मिथ्याहार-विहारों के सेवन करने पर भी यदि मनुष्य की क्षमता के आधार कारण दोष का कोप न हो अथवा स्वल्प मात्रा में दोष कुपित हो, तब रोग की संभावना नहीं होती। 
सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः।
तत प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधः हितसेवनम्[वाग्भट्ट]
विसगार्दानविक्षेपैः सोमसूयार्निला यथा।
धारयन्ति जगद्देहं वात पित्त कपस्तथा॥[सुश्रुत संहिता (सु.सू.) 21]
जैसे वायु, सूर्य, चंद्रमा परस्पर विसर्ग आदान और विक्षेप करते हुए जगत को धारण करते हैं, उसी प्रकार वात, पित्त और कफ़ शरीर को धारण करते हैं। शरीर में दोषों की उपयोगिता और महत्त्व इनके प्राकृत और अप्राकृतिक कर्मों के आधार पर ही है। प्राकृतावस्था में शरीर का धारण तथा विकृतावस्था में विनाश त्रिदोष है।
वात पित्त श्लेष्मणां पुनः सवर्शरीरचराणां।
सर्वाणि स्रोतांस्ययनभूतानि॥[च.वि. 5.5]
वातपित्तकफा देहे सवर्स्रोतोऽनुसारिणः। [च.चि. 28.59]
वात, पित्त और कफ़ का स्थान समग्र शरीर है। सारे ही स्रोत, इनके स्रोत हैं। यद्यपि इनकी उत्पत्ति और संचय का एक मूल स्थान है, परन्तु समग्र शरीर ही इनका स्थान है।
त्रिदोष का पञ्चमहाभूत से सम्बन्ध :: मानव शरीर का निर्माण पंच महाभूत से होता है। शरीर का एक भी अणु महाभूत का संगठन से रहित नहीं है। जब सम्पूर्ण शरीर ही पंचभौतिक है, तो शरीर में रहने वाले तथा शरीर के विभिन्न क्रिया-कलापों में सक्रिय रूप से सहयोग करने वाले त्रिदोष का पंचभौतिक संगठन भी स्वाभाविक है। तीनों दोषों में जो गुण और कर्म विद्यमान हैं, उनका आधार पंचमहाभूत ही है। पंच महाभूत सृष्टि के सूक्ष्म तत्त्व हैं, जिनमें संपूर्ण सृष्टि एवं सृष्टि के संपूर्ण चराचर द्रव्य प्रभावित है और उन संपूर्ण तत्त्वों में पंचमहाभूत व्याप्त हैं।
चेष्टा वायुः खभाकाशमूष्माग्निः सलिलंद्रवम्।
पृथिवी चात्र संघातः शरीरं पाञ्चभौतिकम्॥
इत्येते पञ्चभिभूतेर्र्क्तं स्थावर जङ्गमम्।[महाभारत]
शरीर में चेष्टा वायु का कर्म है। अवकाश (पोलापन-रिक्त स्थान) आकाश है। उष्णता अग्नि है। द्रव रूप जल है और स्थूलता पृथ्वी है। इस प्रकार इन पाँचों भूतों से स्थावर और जंगम अर्थात् चर और अचर जगत् व्याप्त है।
सर्वद्रव्यं पाञ्चभौतिकमस्मिन्नर्थे।[च.सू.अ. 41]
पंचमहाभूतों से तीनों दोषों की उत्पत्ति महाभूत के गुणों के आधार पर ही होती है। आकाश व वायु से वात की उत्पत्ति। तेज से पित्त की तथा पृथ्वी व जल से कफ़, दोष की उत्पत्ति होती है।
आकाश मारुताभ्याम् वातः।
वह्नि-जलाभ्यां पित्तं, अदभ्यः पृथिवीभ्यां श्लेष्मा॥[अ.हृ.सू.]
वायौरात्मैवात्मा, पित्तमाग्नेयम् श्लेष्मा सौम्य इति।[सु.सू. अ. 42]
यद्यपि तीनों दोषों की पृथक-पृथक उत्पत्ति में पृथक-पृथक महाभूत कारण होते हैं किन्तु प्रत्येक महाभूत का अल्पांश भी होता है। जिसकी अधिकता होगी, उसी महाभूत का व्यपदेश किया जाता है।
त्रिदोष का सत्व, रज और तम से संबंध :: जिस प्रकार शरीर के वात, पित्त और कफ़ प्राकृतावस्था में धारण करने वाले और विकृतावस्था में व्याधिग्रस्त करने वाले होते हैं, उसी शरीर में मन से सम्बन्ध रखने वाले रज और तम, ये दो दोष होते हैं। यद्यपि सत्व का सम्बन्ध मन से होता है, तथापि वह दोष न कहलाकर गुण शब्द से व्यवहृत होता है। सत्व, रज और तम मानस भावों को उत्पन्न करने वाले होते हैं। अतः इन्हें मानसिक गुण या मानसिक दोष कहा जाता है। सत्व में कभी विकृति न होने के कारण वह हमेशा गुण ही रहता है तथा रज और तम जब विकृत होकर मन को दूषित करके विभिन्न मानसिक व्याधियों को उत्पन्न करते हैं, तो इनकी दोष संज्ञा हो जाती है। वात, पित्त एवं कफ़ का सीधा संबंध सत्व, रज और तम से है। क्योंकि शरीर में जब किसी भी मानसिक भाव की उत्पत्ति होती है अथवा कोई मानसिक विकार उत्पन्न होता है, तो उसका प्रभाव शारीरिक दोषों पर पड़ता है। इसके अतिरिक्त सत्व, रज, तम के गुणों में समानता है। वात, पित्त, कफ़ के सदृश ही लक्षण होते हैं। अतः शारीरिक एवं मानसिक गुणों में परस्पर सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। त्रिदोष पंच भौतिक संगठन वाले होते हैं तथा पंच महाभूत त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज तमयुक्त होते हैं। वायु-रजो गुण प्रधान है। सत्व और रजो गुण युक्त अग्नि है। जल-सत्व और तमो गुण बहुल है। इस प्रकार ऋतुओं से त्रिदोष का घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोषों का संचय, प्रकोप तथा शमन स्वभावतः ऋतुओं के अनुसार होता है।
"दोषसंचयप्रकोप शमन वातग्रीष्मवषार्शरद
पित्तवषार्शरदहेमन्त कफहेमन्तबसन्तग्रीष्म"
वात का संचय ग्रीष्म में, प्रकोप वर्षा में तथा शमन शरद ऋतु में होता है। पित्त का संचय वर्षा, प्रकोप शरद एवं शमन हेमन्त ऋतु में होता है। कफ़ का संचय हेमन्त प्रकोप, बसन्त तथा शमन ग्रीष्म ऋतु में होता है।
यद्यपि ये वात, पित्त, कफ संज्ञक तीनों दोष सर्वशरीर व्यापी हैं, परन्तु क्रमशः हृदय और नाभि के नीचे तथा पृथ्वी तमो गुण प्रधान है। अतः त्रिदोष का त्रिगुणात्मक होना संदेह रहित है अथार्त् शरीर की प्राकृत एवं वैकृत अवस्था दोनों में ही मानसिक दोष एवं शारीरिक दोष का न्यूनाधिक रूप में कुछ न कुछ पारस्परिक सम्बन्ध अवश्य रहता है।
वात, पित्त और कफ ये तीन दोष है, परन्तु वृद्धि, क्षय तथा साम्यभेद से इनका एक-एक दोष तीन-तीन प्रकार का होता है। जैसे कि वृद्धि भेद से वृद्ध वायु, वृद्ध पित्त तथा वृद्ध कफ। इसी प्रकार क्षय भेद से तीन प्रकार तथा साम्य भेद से तीन प्रकार होते हैं। दोष वृद्धि की तरह क्षीणता भी तीन ही प्रकार की होती हैं :- उत्कृष्ट, मध्यम तथा अल्प। 
वायुः पित्तं कपश्चेति त्रयोदोषाः समासतः
प्रत्येक ते त्रिधा वृद्धिक्षयसाम्यविभेदतः॥ 
उत्कृष्टमध्याल्पतया त्रिधा वृद्धि क्षयावपि।
विकृताविकृता देहं घ्नान्ति ते वतर्यन्ति च॥[अ.सं.सू. 1]
त्रिदोष का आयु, अहोरात्रि भोजन और ऋतु से संबंध ::
वयोऽहोरात्रिमुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात्।[अ.सं.सू.]
आयुवृद्धावस्थायुवावस्था बाल्यावस्था दिनसन्ध्याकालमध्याह्न प्रातःकाल
रात्रिअंतिमप्रहरमध्य रात्रि प्रारंभिक काल।[वाग्भट्ट]
आयु, अहोरात्रि (दिन और रात्रि) और भोजनकाल में दोषों की स्थिति क्रमशः उसके आदि, मध्य और अंत में होती है अर्थात् आयु के अंत में या वृद्धावस्था में वात का प्रकोप। आयु के मध्य युवावस्था में पित्त का प्रकोप तथा आयु के आदि अर्थात् बाल्यावस्था में कफ़ का प्रकोप होता है।
इसी प्रकार दिन के अंत में सन्ध्या काल में वायु का, दिन के मध्य, मध्याह्न में पित्त का और दिन के आदि प्रातःकाल में कफ़ का प्रकोप होता है। रात्रि के अंतिम प्रहर में वायु का, मध्य रात्रि में पित्त का और रात्रि के प्रारंभिक भाग में कफ़ का प्रकोप होता है। इसी प्रकार भोजन के अंतिम काल या परिपक्वावस्था में वायु का, मध्य यानि पच्यमानावस्था में पित्त का तथा आदि में अर्थात् आमावस्था में कफ़ का प्रकोप होता है।
भोजनपरिपक्वावस्थापच्यमानावस्था आमावस्था। 
तेव्यापिनोऽपि हृन्नाभियोरधोमहयोर्ध्वर् संश्रयाः॥[अ.स.सू. 1]
इस प्रकार वात, पित्त, कफ़ के दूषित यानि विकृत होने पर रोगोत्पत्ति होती है जिसके फलस्वरूप चिकित्सा सिद्धान्त का प्रथम सूत्र त्रिदोष चिकित्सा सूत्र पर आधारित होता है। कारण कि समस्त रोगों का मूल त्रिदोष में विकृति ही है, तथा इनकी चिकित्सा भी देश, काल, ऋतु, रोगी एवं आहार-विहार के अनुसार ही होती है।
पित्त :: अक्सर सुबह के समय, खाना न पचने पर उल्टी करते समय जो हरे व पीले रंग का तरल पदार्थ मुँह के रास्ते बाहर आता है, उसे ही पित्त कहते हैं। यह स्वाद में खट्टा, कड़वा व कसैला होता है। इसका रंग नीला, हरा व पीला हो सकता है। यह शरीर में तरल पदार्थ के रूप में पाया जाता है। यह वज़न में वात की अपेक्षा भारी तथा कफ की तुलना में हल्का होता है। पित्त यूँ तो सम्पूर्ण शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में रहता है, लेकिन इसका मुख्य स्थान हृदय से नाभि तक है। समय की दृष्टि से वर्ष के दौरान यह मई से सितम्बर तक तथा दिन में दोपहर के समय तथा भोजन पचने के दौरान पित्त अधिक मात्रा में बनता है। युवावस्था में शरीर में पित्त का निर्माण अधिक होता है। पित्त से लगभग 40 रोग-बीमारियाँ होती है। जैसे :- शरीर में जलन, खट्टी डकार, दुर्गन्धयुक्त अधिक पसीना आना, लाल चकत्ते निकलना, पीलिया,  मुँह का तीखापन, गल्पाक, गुदा में जलन, आँखों में जलन, मुँख की दुर्गन्ध, मुँह के छाले आदि।
लक्षण-प्रकृति :: पित्त प्रधान व्यक्ति के मुँह का स्वाद कड़वा, जीभ व आँखों का रंग लाल, शरीर गर्म, ऐसे व्यक्ति को क्रोध अधिक आता है। युवावस्था में बाल सफेद होना, नेत्र लाल या पीेले होना, बार-बार पेशाब जाना, पेशाब का रंग लाल या पीला होना, गर्म पेशाब आना, पेशाब में जलन होना, दस्त लगना, नाखून पीले होना, देह पीली होना, नाक से रक्त बहना, अधिक भूख लगना, ठण्डी चीजें अच्छी लगना, अधिक पसीना आना, शरीर में फोड़े होना, बेचैनी होना, गुस्सा आना, भूख-प्यास ज्यादा लगना, पीली त्वचा,  गर्मी सहन ना होना, धूप-आग बुरी लगती है।
कार्य :: सन्तुलित पित्त जहाँ शरीर को बल व बुद्धि देता है, वहीं असंतुलित पित्त बहुत घातक सिद्ध होता है। 
प्रमुख कार्य :: भोजन को पचाना, नेत्र ज्योति सही रखना, त्वचा को निर्मल और कान्ति युक्त बनाना, स्मृति तथा बुद्धि प्रदान करना, भूख प्यास की अनुभूति कराना, मल को बाहर कर शरीर को निर्मल करना।
इलाज :: देशी गाय का घी, त्रिफला।
निदान ::  नाड़ी की गति कूदती (मेंढक या कौवे की चाल वाली), उत्तेजित व भारी होती है।
पित्त के प्रकार ::  शरीर को गर्मी देने वाला तत्व ही पित्त कहलाता है। पित्त शरीर का पोषण करता है। यह शरीर को बल देने वाला है। लारग्रंथि, अमाशय, अग्नाशय, लीवर व छोटी आँत से निकलने वाला रस भोजन को पचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब तक शरीर गर्म है तभी तक मनुष्य जीवित है। जब शरीर की गर्मी समाप्त हो जाती है अर्थात् शरीर ठण्डा हो जाता है, तो उस मनुष्य को मृत घोषित कर दिया जाता है। 
शरीर में पित्त का निर्माण अग्नि तथा जल तत्व से हुआ है। जल इस अग्नि के साथ मिलकर इसकी तीव्रता को शरीर की जरूरत के अनुसार सन्तुलित करता है। पित्त शारीरिक अग्नि का दूसरा नाम है। 
अग्नि के दो गुण विशेष :: (1). वस्तु को जला कर नष्ट कर देना,  (2). ऊर्जा प्रदान करना। प्रभु ने मानव शरीर में इसे जल में धारण करवाया है, जिस का अर्थ है कि पित्त की अतिरिक्त गर्मी को जल नियन्त्रित करके, उसे शरीरिक ऊर्जा के रूप में प्रयोग में लाता है। 
असंतुलित पित्त के कारण :: (1). कड़वा, खट्टा, गर्म व जलन पैदा करने वाले भोजन का सेवन करना। (2). तीक्ष्ण द्रव्यों का सेवन करना। (3). तला हुआ व अधिक मिर्च, मसालेदार भोजन करना। (4). अधिक परिश्रम करना। (5). नशीले पदार्थों का सेवन करना। (6). ज्यादा देर तक तेज धूप में रहना। (7). अधिक नमक का सेवन करना।
पित्त शब्द की निरुक्ति :: तप संतापे धातु से कृदन्त विहित प्रत्यय द्वारा "तपति इति पित्तं" जो शरीर में ताप, गर्मी उत्पन्न करे उसे पित्त कहते हैं। शरीर में पित्त शब्द से उस स्थान का बोध होता है, जो उष्णता प्रदान करता है।
तस्मात् तेजोमयं पित्तं पित्तोष्मा यः स पक्तिमान। [भोज]
पित्त के द्वारा शरीर में जो कुछ भी कार्य संपन्न होता है, वह अग्नि के समान गुण, कर्म वाला होता है, इसलिए पित्त शरीर में अग्निभाव का द्योतक है।
पित्त का स्वरूप :: पित्त शरीरान्तर्गत एक ऐसा महत्त्वपूर्ण धातु है, जो शरीर को धारण करता है और अपने प्राकृत कर्मों द्वारा शरीर का उपकार करता है। शरीर को धारण करने के कारण पित्त धातु भी कहलाता है। पित्त के विशिष्ट गुणों के आधार पर ही उसके स्वरूप का निर्धारण किया गया है।
तत्र औष्ण्यं तैक्ष्ण्यं लाघवं द्रवमनतिस्नेहो।
वर्णश्चाशुक्लः गन्धश्च विस्रः रसः कटुकाम्लौ सरश्च पित्तस्यात्मरूपाणि
उष्णता, तीक्ष्णता, लघुता, द्रवति, अनतिस्निग्धता, शुक्लरहित वर्ण, विस्रगंध, कटु और अम्ल रस तथा सर के पित्त के आत्मरूप है। अतः इन गुणों से युक्त जो भी कोई द्रव्य है, वह पित्त है। वाह्य लोक में जो अग्नि का महत्त्व है, वही शरीर में पित्त का है।
पित्त के गुण ::  पित्त, तीक्ष्ण, द्रव, दुर्गन्धित, नील, पीत वर्ण, उष्ण, कटु, सर विदग्ध और अम्ल रस वाला होता है।
पित्तं तीक्ष्णं द्रवं पूति नीलं पीतं तथैव च।
उष्णं कटुरसं चैव विदग्धं चाम्लमेव च॥
ये गुण पित्त में विशेष रूप से होते हैं। तीक्ष्णता होना इस बात की ओर संकेत करता है कि पित्त में मंदता के विपरीत तीव्र रूप से छेदन-भेदन करने की प्रक्रिया, इसी गुण के कारण होती है। पित्त का कोई प्राकृत वर्ण न होने के कारण, उसमें नील और पीत वर्ण का संयोजन होने के ही कारण, इन दोनों वर्णों को बताया है। उष्ण गुण के कारण पित्त उष्णता, ताप दहन-पाचन आदि क्रियाओं को करने में समर्थ होता है।
सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमग्लं सरं कटु।[चरक] 
पित्त स्नेह, तीक्ष्ण, उष्ण, द्रव, अम्ल, सर और कटु रस वाला होता है।
उपयुक्त गुण पित्त के भौतिक गुण हैं, क्योंकि पित्त में इन गुणों का समावेश महाभूत के कारण होता है। परन्तु इन सभी में अग्नि गुणों की अधिकता है, इसलिए पित्त, अग्नि महाभूत का प्रतिनिधि द्रव्य है। पित्त के नैसर्गिक गुणों में शब्द, स्पर्श और रूप ये तीन गुण होते हैं।
सत्वरजोबहुलोऽग्नः।[महाभूत] 
पित्त के प्राकृत गुणों में सत्व और रज प्रधान है, क्योंकि अग्नि  में इन दोनों गुणों का निर्देश किया गया है।
पित्त के कार्य :: ये दो प्रकार के हैं :- प्राकृत कर्म एवं वैकृत कर्म। जब पित्त प्राकृतावस्था में रहता है, तब उसके द्वारा सम्पन्न होने वाला प्रत्येक कर्म शरीर के लिए उपयोगी और शरीर को स्वस्थ रखने वाला होता है। किन्तु वही पित्त जब विकृत हो जाता है, तब उसके द्वारा किये जाने वाला कर्म शरीर को विकार ग्रस्त बनाता है, जिससे शरीर में पित्त जनित रोग उत्पन्न होते हैं।
नेत्रों के द्वारा देखने की क्रिया, खाये हुए आहार का परिपाक करना, शरीर में उष्मा का निर्माण करना, यथावश्यक भूख उत्पन्न करना, प्यास लगाना, शरीर में मृदुता उत्पन्न करना, शरीर को प्रसन्न रखना और बुद्धि उत्पन्न करना, ये प्राकृत पित्त के कर्म हैं।[चरक]
दर्शनं पक्तिरुष्मा च क्षुत्तृष्णा देहमादर्वम्।
प्रभा प्रसादों मेधा च पित्त कर्माविकारजम्॥[च.स.अ. 18]
उष्ण गुण वाले पित्त से ही मनुष्यों के शरीर में सभी प्रकार का पाक होता है और वही पित्त कुपितावस्था में अनेक विकारों को उत्पन्न करता है, यथा :-
पित्तदेवोष्मणः पक्तिनर्राणामुपजायते।
पित्तं चैव प्रकुपितं विकारान् कुरुते बहून[चरक]
पित्त के भेद एवं कर्म :: स्थान एवं कर्मानुसार पित्त पाँच प्रकार का होता है। यथा- पाचक, रंजक, आलोचक, साधक और भ्राजक पित्त।
(1). पाचक पित्त :: शरीर के सूक्ष्मतम भाग में होने वाले पाक का आधार यही पाचक पित्त है। यह पित्त शरीर में मुख्य रूप से पक्वाशय और आमाशय के मध्य भाग में स्थित ग्रहण प्रदेश में होता है। इसी पाचक पित्त के कारण धात्वाग्नि और भौतिक अग्नियों के नाम रहते हैं। पाचक पित्त अन्न का पाचन (जरण) करके उसके अवयवों को सूक्ष्म रूप प्रदान करता है, जिससे धात्वग्नियाँ सरलता पूर्वक उनका परिपाक करके धातुओं में परिवर्तित कर देती हैं।
तच्चादृष्टहेतुकेन विशेषेण पक्वाशयमहपस्थ 
पित्तं चतुर्विधमन्नपानं पचति।[सुश्रुत]
पक्वाशय और आमाशय के मध्य में स्थित चार प्रकार के अन्न प्राशन का पाचन करता है और दोष रस मूत्र पुरीष का विवेचना करता है। वहीं पर स्थित रहता हुआ पित्त अपनी शक्ति से शरीर के शेष पित्त स्थानों का और शरीर का अग्नि कर्म के द्वारा अनुग्रह करता है। स्थान भेद से पाचक पित्त के निम्न भेद हैं।
मुखगत पाचक पित्त, आमाशयगत पाचक पित्त, यकृतगत पाचक पित्त। क्लोम या पित्ताशयगत पाचक पित्त, क्षुद्रान्तगत पाचक पित्त। इन समस्त पाचक पित्तों का कार्य, ग्रहण किये हुए आहार का परिपाक करना एवं उसे अवस्थान्तर प्रदान करना है।
पाचक पित्त अग्नियों (पाचक ग्रन्थियों) से निकलने वाले रसों का सम्मिश्रित रूप है। इसमें अग्नि तत्व की प्रधानता पायी जाती है। ये पाँच रस इस प्रकार हैः-
(1.1). लार ग्रन्थियों से बनने वाला लार रस। (1.2). आमाशय में बनने वाला आमाशीय रस। (1.3). अग्नाशय का स्त्राव। (1.4).  पित्ताशय से बनने वाला पित्त रस।(1.5). आन्त्र रस।
पाचक पित्त पक्कवाशय और आमाशय के बीच रहता है। इसका मुख्य कार्य भोजन में मिलकर उसका शोषण करना है। यह भोजन को पचा कर पाचक रस व मल को अलग-अलग करता है। यह पक्कवाशय में रहते हुए दूसरे पाचक रसों को शक्ति देता है। शरीर को गर्म रखना भी इसका मुख्य कार्य है। जब पाचक पित्त शरीर में कुपित होता है तो शरीर में निम्न लिखित विकार-रोग हो सकते हैं :-
जठराग्नि का मन्द होना, दस्त लगना, खूनी पेचिश, कब्ज बनना, मधुमेह, मोटापा, अम्लपित्त, अल्सर, शरीर में कैलस्ट्रोल का अधिक बनना, हृदय रोग। यदि शरीर में पाचक पित्त सम अवस्था में बनता है तो पाचन शक्ति सुदृढ़ है। जब शरीर में पाचन और उत्सर्जन क्रियाएँ सन्तुलित होती हैं तो मनुष्य उपरोक्त रोगों से बच सकता है। 
पित्त को सन्तुलित करने के लिए सहायक क्रियाएँ :-
शुद्धि क्रियाएँ :: कुंजल, शंख प्रक्षालन (यह हृदय रोगियों के लिए निषेध है)।  
आसन :: त्रिकोणासन, जानुशिरासन, कोणासन, सर्पासन, पादोतानासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, शवासन।
प्राणायाम :: अग्निसार, शीतली, चन्द्रभेदी, उड्डियान बन्ध व बाह्य कुम्भक का अभ्यास।
भोजन :: सुपाच्य भोजन, सलाद, हरी सब्जियाँ तथा ताजे फलों का सेवन भी पाचक पित्त को सम अवस्था में रखने में सहायक है।
(2). रंजक पित्त :: यकृत प्लीहा में जो पित्त स्थित रहता है, उसकी रंजकाग्नि संज्ञा है। वह रस का रंजन कर उसे लाल वर्ण प्रदान करता है। इसके अनुसार रंजक पित्त का मुख्य स्थान यकृत और प्लीहा माना गया है।
यत्तु यकृत प्लीहोः पित्तं तस्मिन रंजकोग्नि रिति संज्ञा। 
स सरसस्य राग कृदुक्तः
कुछ आचार्यों ने रंजक पित्त का स्थान आमाशय और हृदय प्रदेश भी माना है।
आमाशयाश्रितं पित्तं रज्जकं रसरज्जनात्। [वाग्भट्ट] 
आमाशय में आश्रत पित्त रस का रंजन करने से रंजक पित्त कहलाता है। 
रसस्तु हृदयंगति समान मारुतेरीतः।
रज्जितः पाचितस्त्र पित्तेनायति रक्तताम्[शाङ्ग्रर्धर]
रस के रंजन का कार्य क्षेत्र हृदय प्रदेश में है। 
रंजक पित्त की मुख्य स्थान यकृत एवं प्लीहा है, अतः रस के रंजन का कार्य इन्हीं स्थानों में होता है। रंजक पित्त रस का ही नहीं, वरन् मूत्र एवं पुरीष का भी रंजन करता है। जिसका स्पष्ट प्रतीति पाण्डु रोग में होती है। रंजक पित्त का एक मुख्य कार्य त्वचा को वर्ण प्रदान करना है। इस प्रकार रंजक पित्त के द्वारा रस, मूत्र, पुरीष, त्वचा, केश और नेत्रों को वर्ण प्रतीत होता है।[सुश्रुत]
रंजक पित्त लीवर-यकृत में बनता है और पित्ताशय में रहता है। शरीर में भोजन के पचने पर जो रस बनता है, रंजक पित्त उसे शुद्ध करके उससे खून बनाने का कार्य करता है। अस्थियों की मज्जा से जो रक्त कण बनते हैं, उन्हें यह पित्त लाल रंग में रंगने का कार्य करता है। उसके बाद इसे रक्त भ्रमण प्रणाली के माध्यम से पूरे शरीर में पहुँचा दिया जाता है। यदि इस पित्त का सन्तुलन बिगड़ जाता है, तो शरीर में लीवर से सम्बन्धित रोग आते हैं, जैसे कि पीलिया, अल्प रक्तता तथा शरीर में कमजोरी आना अर्थात् शरीर की कार्य क्षमता कम हो जाना इत्यादि। यह निम्न लिखित क्रियाओं के अभ्यास से नियन्त्रित होता है।
शुद्धि क्रियाएं :: अनिमा, कुन्जल। 
आसन :: त्रिकोणासन, पश्चिमोत्तानासन, कोणासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, मन्डूकासन, पवन मुक्तासन, आकर्ण धनुरासन। 
प्राणायाम :: कपाल भाति, अनुलोम-विलोम, बाह्य कुम्भक, अग्निसार तथा उडिडयान बन्ध का अभ्यास। 
(3). साधक पित्त :: शरीर के सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान हृदय में साधक पित्त का स्थान है।
यत्पित्तं हृदयस्थितं तस्मिन साधकोऽग्नि रितिसंज्ञा।
सोऽभिप्राथिर्त मनोरथ साधन कृयुक्तः
जो पित्त हृदय में स्थित रहता है, उसकी साधकाग्नि संज्ञा है। वह इच्छित मनोरथों का साधन करने वाला होता है। हृदय में जो पित्त या द्रव्य विशेष होता है, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ का साधन करने वाला होने से, उसे साधक पित्त या साधकाग्नि की संज्ञा दी गई है।[डल्हण]
यह हृदय के आवश्यक कफ़ और तम को दूर कर मन को विमल और उत्कृष्ट करता है। जिससे हृदय में अन्य कलुषित भाव उत्पन्न नहीं होते और निद्रा, आलस्य आदि विभाव स्वतः नष्ट हो जाते हैं।
बुद्धिमेधाभिधानाद्यैरभिप्रेताथर् साधनात् साधकं हृदगतं पित्तं।[वाग्भट्ट]
बुद्धि, मेधा और अभिधान (स्मृति) आदि के द्वारा अभिलषित विषयों का साधन करने से साधक पित्त कहलाता है तथा हृदय में स्थित रहता है।
साधक पित्त हृदय में रहता है। बुद्धि को तेज करता है और प्रतिभा के विकास में सहायक है। उत्साह एवं आनन्द की अनुभूति करवाता है। आध्यात्मिक शक्ति देता है। सात्विक वृत्ति का निर्माण करता है। ईर्ष्या, द्वेष व स्वार्थ की भावना को समाप्त करता है। साधक पित्त के कुपित होने पर स्नायु तन्त्र तथा मानसिक रोग होने लगते हैं, यथा :- नीरसता, माईग्रेन-सिर दर्द, मूर्छा, अधरंग, अनिद्रा, उच्च व निम्न रक्तचाप, हृदय रोग व अवसाद। 
निम्न लिखित क्रियाओं के अभ्यास से यह सन्तुलित रहता है :-
शुद्धि क्रियाएं :: सूत्र नेति, जल नेति, कुंजल आदि।
आसन :: सूर्य नमस्कार पहली व बारहवीं स्थिति, शशांक आसन, शवासन, योग निद्रा।
प्राणायाम :: अनुलोम-विलोम, भ्रामरी व नाड़ी शोधन, उज्जायी प्राणायाम व ध्यान। आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना, महापुरुषों के प्रवचन सुनना, आत्म-चिन्तन करना तथा लोकहित के कार्य करना इसमें लाभप्रद है।
(4). आलोचक पित्त :: जो पित्त नेत्र में रहता है, उसका नाम आलोचक पित्त है। इसका कार्य नेत्र को ज्योति प्रदान करना है। 
यद्दृष्टयां पित्तं तस्मिन् आलोचकोऽग्निरिति
 संज्ञा सरूपग्रहणेऽधिकृतः।[सुश्रुत]
दृष्टि में जो पित्त रहता है, उसकी आलोचकाग्नि संज्ञा दी है। वह विषयों के रूप को ग्रहण करने में अधिकृत है।
आलोचक पित्त आँखों में रहता है। देखने की क्रिया का संचालन करता है। नेत्र ज्योति को बढ़ाना तथा दिव्य दृष्टि को बनाए रखना, इसके मुख्य कार्य हैं। जब आलोचक पित्त कुपित होता है, तो नेत्र सम्बन्धी दोष शरीर में आने लगते हैं यथा नज़र कमजोर होना, आँखों में काला मोतिया व सफेद मोतिया के दोष आना।
इस पित्त को नियन्त्रित करने के लिये साधक को नीचे लिखी क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिये :-
शुद्धि क्रियाएं :: प्रतिदिन चौड़े बर्तन में पलकों को खोलकर और बन्द करके आँखें साफ करें। नेत्र धोति का अभ्यास करें। मुँह में पानी भरकर आँखों में शुद्ध जल के छींटे लगायें। उपरोक्त चौड़े बर्तन में आँखों को डुबो कर आँख की पुतलियों को तीन-चार बार ऊपर-नीचे, दायें-बायें व वृत्ताकार दिशा में घुमायें। इसके लिए शुद्ध जल या त्रिफले के पानी का प्रयोग कर सकते हैं।
आसन :: कोणासन, उष्ट्रासन, भुजंगासन, धनुर व मत्स्यासन, ग्रीवा चालन, शवासन तथा नेत्र सुरक्षा क्रियायें।
प्राणायाम :: गहरे लम्बे श्वास, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी, मूर्छा प्राणायाम।
ध्यान :: प्रतिदिन 10 मिनट ध्यान में बैठें।
भोजन ::  हरी व पत्तेदार सब्जियों का सेवन अधिक करें।
(5). भ्राजक पित्त :: यह पित्त शरीर के त्वचा प्रदेश में रहता है। इसका मुख्य कार्य त्वचा का भ्राजन (रंजन) करना है। भ्राजक पित्त के द्वारा शरीर के त्वचा का वर्ण प्रकाशित होता है। 
यत् त्वचि पित्तं तस्मिन भ्राजकोऽग्निरिति संज्ञा।[सुश्रुत]
सोऽभ्यंगपरिषेकावगाहनलेपादि द्रव्याणां व्यक्ता छायानां च प्रकाशकः।[सुश्रुत]
त्वचा में जो पित्त रहता है, उसकी भ्राजकाग्नि संज्ञा है। वह अभ्यंग, परिषेक, अवगाहन और लेप आदि में प्रयुक्त किये हुए द्रव्यों का पाचन करता है तथा छायाओं का प्रकाशक है। भ्राजक पित्त अर्थात् स्वेद का वहन करने वाले।
भ्राजक पित्त सम्पूर्ण शरीर की त्वचा में रहता है। भ्राजक पित्त शरीर में विभिन्न कार्य जैसे कि त्वचा को कान्तिमान बनाना, शरीर को सौन्दर्य प्रदान करना, विटामिन डी को ग्रहण करना तथा वायुमण्डल में पाए जाने वाले रोगाणुओं से शरीर की रक्षा आदि करता है।
इसके कुपित होने पर शरीर में नीचे लिखे रोग आने की सम्भावना बनी रहती है :-
त्वचा पर सफेद तथा लाल चकत्तों का दोष होना, चर्म रोग का होना,  शरीर में फोड़ा, फुन्सी होना, एग्जिमा, त्वचा का फटना आदि।
भ्राजक पित्त को शरीर में सम अवस्था में रखने के लिए नीचे लिखी क्रियायें करनी चाहिएँ :-
शुद्धि क्रियाएं :: कुंजल, नेति व शंख प्रक्षालन।
आसन :: सूर्य नमस्कार, नौकासन, चक्रासन, हस्तपादोत्तानासन।
प्राणायाम :: गहरे लम्बे श्वास, प्लाविनी, तालबद्ध व नाड़ी शोधन प्राणायाम तथा तीनों बन्धों का बाह्य व आन्तरिक कुम्भक के साथ अभ्यास करें, (हृदय रोगी के लिए कुम्भक निषेध है)।
विशेष क्रिया :: पूरे शरीर में तेल की मालिश करें। सर्दी के मौसम में सूर्य स्नान करें।
वात :: वायु या वात शब्द का निर्माण ''वा गतिगन्धनयोः'' धातु में वत प्रत्यय लगाकर हुआ है। जिसका ज्ञान मुख्य रूप से त्वचा द्वारा होता है। वायु एक अमूर्त द्रव्य है, जिसका संगठन पंच भौतिक है। अमूर्त होने के कारण उसका कोई रूप या आकृति दिखाई नहीं देती, किन्तु वायु का ज्ञान उसके गुण कर्मों के द्वारा किया जाता है।
गुण एवं कर्म :: 
"वायुस्तंत्रयन्त्रधरः"
प्रवर्तकश्चेष्टानामुच्चावचानां नियतां। 
प्रणेता च मनसः सर्वेर्नदिरयाणामुद्योजक॥[च.सू. 12.8]
वायु शरीर रूपी यंत्र का संचालन करने वाला है। वही प्राणि मात्र की स्थिति उत्पत्ति का हेतु है और वायु ही संयोग विभाग और प्राक्तना कर्म के द्वारा गर्भ को विभिन्न आकृतियाँ प्रदान करती हैं। शरीर में प्रत्येक धातु स्थूल और सूक्ष्म रचना का कारण वायु ही है। प्रत्येक अवयव का अन्य अवयवों के साथ रचनात्मक तथा कर्म विषयक संधान वायु की ही प्रेरणा से होती है। शरीर की सभी चेष्टाएँ वायु द्वारा ही होती है। 
उत्साहोच्छवासनिः श्वासचेष्टा धातुगतिः समा। 
समो मोक्षो गतिमतां वायोः कर्मविकारजम्॥[च.सू. 18.49]
वायु से ही उच्छ्वास-निःश्वास आदि जीवनोपयोगी, अनैच्छिक स्वतंत्र चेष्टाएँ होती हैं। वायु ही मन को उसके विषयों में नियोजित करता है। वायु ही वाणी का प्रवर्तक है। स्पर्श और शब्द का ज्ञान वायु के द्वारा ही होता है। सभी प्राणियों में चेष्टा ज्ञान का मूल वायु ही होता है।
सर्वा ही चेष्टा वातेन स प्राणः प्राणिनांस्मृतः
तेनैव रोगा जायन्ते तेन चैवोपरुध्यते॥[सू. 17.118]
शरीर में समस्त प्रकार की क्रियाएँ वायु के द्वारा ही होती है। वायु प्राणियों का प्राण माना जाता है। उसी वायु के द्वारा विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं किन्तु रोगों के शमन भी वायु के द्वारा ही होता है। वायु ही दोष और मलों को स्व: स्थान पर रखता है और आवश्यकता होने पर योग्य स्थान पर पहुँचाता है। वायु के बिना पित्त और कफ़ पंगु है।
पित्तं पंगु कफः प्ङ्गः प्ङ्गवो मलधातवः।
वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेधवत्[शा.पू. 5.43]
सर्व अवयव और चेष्टाओं का निमित्त भूत होने से वायु सर्वात्म (विश्वरूप) है। वायु ही बल है। वायु ही आयु है। वायु ही प्राणियों का प्राण है। वायु ही हर्ष और उल्लास का हेतु है।
वायुवायुबलं वायुर्वायुधाता शरीरिणाम्।
वायुर्विश्व्वमिदं सर्व प्रभुर्वायुश्च कीर्तितः[च.चि.28.34]
वायु के मुख्य सात गुण निम्न हैं :-  
रुक्षः शीतो लघुः सूक्ष्म चलोऽथ विशद खरः।
रुक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, विशद और खर, इनका सम्बन्ध विशेषतः पाँचों महाभूत से होने के कारण इनको भौतिक गुण कहा गया है। इसलिए इन द्रव्यों में स्थित गुण वायु के भौतिक गुणों को प्रभावित करते हैं। शरीर में वात दोष के क्षय या वृद्धि का जो स्वरूप होता है, वह इन गुणों पर ही आधारित होता है। महाभूत के कारण इन गुणों की क्षय या वृद्धि होती है। इसलिए ही इन्हें भौतिक गुण कहा गया है। वायु के उपर्युक्त सात गुणों के अतिरिक्त निम्न चार गुण और हैं :- 
परुश, दारुण, अनावस्थित और अमूर्तत्व। 
इनका सामंजस्य इस प्रकार है :-
परुश :- खर। 
दारुण :- खर + रुक्ष। 
अनवस्थित :- चल। 
अमूर्तत्व :- यह कोई गुण नहीं, क्योंकि इसका कोई कर्म नहीं।
तत्रशैक्ष्यं शैत्यंलाधवं वैशद्यं गतिः। अमूत्तर्त्वं वायोरात्मरुपाणि॥
त्रुक्षता, शीतता, लघुता, विशद, गति और अमूर्त्तता, ये सब वायु के आत्म रूप हैं। वायु का ग्रहण सामान्यतया त्वक् इन्द्रिय के द्वारा किया जाता है। किन्तु शरीर में विद्यमान वात दोष जो कि शरीर को धारण करता है, उसका ज्ञान इन आत्म रूपों द्वारा ही हो सकता है।
वात के भेद एवं स्थान :: शरीर में स्थित वायु सर्वत्र एक ही रूप में रहता है। अतः उसको विभाजित नहीं किया जा सकता, किन्तु भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित होकर वायु भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मों को करता है। इसलिए उसके स्थान और कर्मों के आधार पर वायु के पाँच प्रकार बताये गये हैं।
प्राणोदानौ समानश्च व्यानश्चापान एव च।
स्थानस्था मारुताः पञ्च यापयन्ति शरीरिणाम्॥[सु.नि.अ. 1]
प्राण, उदान, समान, व्यान और अपान यह पाँच प्रकार का वायु विभिन्न स्थानों में स्थित रहता हुआ मनुष्यों के जीवन का यापन करता है। ये वायु के पाँच भेद हैं तथा कर्मानुसार इनका स्थान भिन्न-भिन्न है; परन्तु स्वतंत्र रूप जीवन स्वरूप जो वायु है, उसका स्थान भी नियत है, जहाँ पर वायु स्थित रहता है और उन स्थानों में स्थित वायु अपने प्राकृत कर्मों द्वारा शरीर का अनुग्रह करता है।
सामान्यतः निम्नलिखित स्थान वायु के हैं :-
पित्ताशय कटिसक्थि श्रोतास्थिस्पर्शनेन्दि्रयम्।
स्थानं वातस्य तत्रापि पक्वाधानं विशेषतः॥
पित्ताशय, कटि, सक्थि, श्रोत्र, अस्थि स्पर्शेन्द्रिय; ये वायु के स्थान हैं। इनमें भी पित्ताशय वायु का विशेष स्थान है। चूँकि पित्ताशय में वायु ग्रहण किये आहार से उत्पन्न होता है। इसलिए पित्ताशय को वायु का विशेष स्थान बताया गया है। इसी प्रकार पाँच प्रकार की वायु के स्थान हैं; परन्तु वायु का विशेष स्थान हृदय और नाभि प्रदेश मुख्य है।
(1). प्राण वायु :: शरीर के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसके द्वारा संपन्न होने वाली क्रियाएँ शरीर के जीवनयापन से सम्बन्ध रखती हैं। क्योंकि शरीर में चेतनता इसी के द्वारा रहती है।
वायुर्यो वक्त्रसंचारी सप्राणो नामदेहधृक।
सोडन्नं प्रवेशयत्यतः प्राणीश्चात्यवलम्बते॥[सु.नि.अ. 1]
जो वायु मुख प्रदेश में संचरण करता है, वह प्राण वायु कहलाता है और वह शरीर को धारण करता है। इसके अतिरिक्त यह वायु मुख द्वारा ग्रहण किये हुए आहार को अंदर प्रविष्ट करता है।
स्थानं प्राणस्य मूधोर्रः कण्ठजिह्वास्यनासिकाः।
ष्ठीवन क्षवथुद्गार श्वासाहारादि कर्म च[च.चि.अ. 28] 
प्राण, वायु के मूर्धा, वक्ष प्रदेश, कण्ठ, जिह्वा, मुख, नासिका स्थान है। छींकना, थूकना, उद्गार, श्वास, आहारादि को ग्रहण करने का कार्य प्राण वायु के द्वारा किया जाता है। अष्टांग हृदयकार प्राण वायु के स्थान-मूर्धा, उर प्रदेश, कण्ठ प्रदेश बतलाते हैं और यह बुद्धि, हृदय, इन्द्रिय  और चित्त को धारण करता है।
प्राणोऽत्र मूर्धजः उरः कण्ठचरो बुद्धिहृदयेन्र्दिय चित्तधृक।[अ.हृ.सू. अ. 12]
प्राण वायु मुख्य रूप से वक्ष प्रदेश, कण्ठ प्रदेश और कण्ठ से ऊपर शिर प्रदेश में स्थित रहता है। यह मुख द्वारा ग्रहण किये हुए अन्न को अंतः प्रवेश कराने में सहायक होता है। फुफ्फुस की गति और क्रिया में सहायक होता है। विकृत होने पर श्वास कास, प्रतिश्याय, स्वर्ग आदि होते हैं।
(2).  उदान वायु :: महर्षि चरक के अनुसार उदान वायु का स्थान नाभि प्रदेश, वक्ष एवं कण्ठ है। इसके द्वारा किये गये कर्मों में वाणी की प्रवृत्ति, शरीर की शक्ति प्रदान करना मुख्य है तथा शरीर के बल और वर्ण को स्थित रखना है।
उदानस्य पुनः स्थानं नाम्यूरः कण्ठ एव च।
वाक्प्रवृत्ति प्रयत्नोजार् बल वर्णादि कर्म च[च.चि.अ. 28] 
विकृत होने पर नेत्र, मुख, नासिका, कर्ण और शिरो रोग होते हैं।
(3).  समान वायु :: समान वायु पाचक अग्नि के समीप आमाशय और ग्रहण में रहती है। इसका कार्य अन्न को पचाना, अग्नि को बल प्रदान करना तथा रस पुरीष और मूत्र को पृथक करना है। यह स्वेदवह, अम्बुवह स्रोतों का नियामक है।
स्वेद दोषाम्बुवाहीति स्रोतांसि समधिष्ठितः।
अन्तरग्नेश्च पाश्वर्स्थः समानोऽग्नि बलप्रदः॥[च.चि.अ. 28]
चरक के अनुसार स्थान जठराग्नि के समीप है। मुख्य कार्य अग्नि को बल प्रदान करना, परिपक्व आहार को सार एवं कीट भाग में विभाजित करना है। इसमें विकृति आने पर गुल्म मांद्य अग्नि अतिसार रोगों का प्रादुर्भाव होता है।
(4). व्यान वायु :: व्यान वायु को सर्वशरीर व्यापी बताया गया है और इसके द्वारा मुख्य रूप से शरीर में रस के संवहन का कार्य किया जाता है। स्वेद और रुधिर का स्राव करता है।
सर्वदेहचरो व्यानो रससंवहनोधतः।
स्वेदा सृक्स्रावणश्चापि पञ्चधर चेष्टयत्यपि॥[सु.नि.अ. 1]
चरक के अनुसार शरीर के प्रत्येक अवयव में होने वाली क्रिया व्यान वायु के आधीन है। चाहे वह क्रिया ऐच्छिक हो या अनैच्छिक व्यान वायु के द्वारा उसे गति प्राप्त होती है। इस प्रकार व्यान वायु के द्वारा सम्पूर्ण  चेष्टाएँ होती है और शरीर में रस का संवहन होता है। इसके कुपित होने पर ज्वर अतिसार रक्तपित्त यक्ष्मा प्रभृति सर्वाङ्ग रोग होते हैं।
(5). अपान वायु :: अपान वायु मुख्य रूप से शरीर के अधोभाग में रहती है और अधोमार्ग से बाहर निकलने वाले द्रव्यों के निष्कासन का कार्य करता है।
वृष्णौ बस्तिमेद्रं च नाम्यूरुवंक्षणोर् गुदम्।
अपानस्थानमन्त्रस्थः शुक्र मूत्र शकृन्ति च सृजत्यात्तर्व गर्मों च...... [च.चि.अ. 28]
दोनों अण्डकोष, बस्ति प्रदेश, शिश्न, नाभि, उरु, वंक्षण प्रदेश, गुदप्रदेश और बृहदन्त्र है। इन स्थानों में स्थित रहता हुआ अपान वायु, शुक्र, मूत्र, पुरीष, आर्त्तव और गर्भ को बाहर निकालता है। कुपित होने पर यह अश्मरी, मूत्र कृच्छ, शुक्र दोष, अर्श, भगन्दर, गुदपाक आदि रोग उत्पन्न करता है।
क्षय एवं वृद्धि रूप वायु के लक्षण :: 
क्षीण वात के लक्षण :: मुख से लार टपकना, अरुचि, उबकाई, जी मचलाना, संज्ञा मोह अर्थात् बुद्धि की विचार शक्ति में अक्षमता, अल्पवाक्यता, जाठर अग्नि की विषमता आदि विकारों को उत्पन्न करके क्षीण हुआ वायु पीड़ादायक होता है।
बढ़े हुए वायु के लक्षण :: शरीर में बढ़ा हुआ वायु कृशता पैदा करता है। वण्य में कालापन, शरीर का काँपना, अंगों का फड़कना, उष्णता की अभिलाषा, संज्ञा और निद्रा की नाश, बल एवं इंद्रियों की हानि, मज्जशोष, मलमूत्र, स्वेद की अवरोध, पेट फूलना, पेट की गड़ गड़ाहट, मूर्च्छा, दैन्य, भय, शोक, प्रलाप आदि करके शरीर को पीड़ा देता है।
वात-वायु दोष :: जब शरीर में वायु तत्व सामान्य से अधिक हो जाता है, तो इसे वात दोष कहा जाता है। नाड़ी देखते समय अँगूठे के पास पहली अँगुली में ज़्यादा स्पंदन महसूस होगा। सामान्यतः शरीर में वात शाम के समय और रात्रि के अंतिम प्रहर में बढ़ता है। इस समय किसी रोग की तीव्रता बढना रोग के वात रोग होने की तरफ इशारा करता है। जीवन के अन्तिम प्रहर यानी बुढापे में भी वात प्रबल होता है। वात के साथ पित्त दोष भी होने से इसे नियंत्रित करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, पर असम्भव  नहीं। वात यानी हवा का गुण है कि वह फुलाता है। इसलिए वात दोष होने से शरीर कभी-कभी फूल जाता है। हवा का एक अन्य गुण है, सुखाना। इसलिए कभी-कभी वात रोगी सूख के काँटा हो जाता है; कितना भी खाएँ-पीयें, शरीर कृशकाय ही रहता है। सुखाने के गुण के कारण ही वात जब बढ़कर संधियों (joints) में, रक्त नलिकाओं में प्रविष्ट होता है, तो वहाँ भी सुखाता है। इससे संधियों का द्रव्य सूख जाता है और अर्थराइटिस-घुटनों के दर्द  की शुरुवात होने लगती है। घुटनों में हवा भरेगी और उठते बैठते कड़-कड़ की आवाज़ आएगी और दर्द शुरू हो जाएगा। रक्त नलिकाओं की दीवार रुखी हो जाने से वहाँ कुछ ना कुछ चिपकने लगेगा और वह संकरी  जायेगी। उसकी लचक-लौंच कम होने से रक्तदाब (ब्लड प्रेशर) बढेगा। सुखाने के गुण के कारण ही त्वचा रुखी होने लगेगी। एड़ियों में दरारें पड़ने लगेंगी। बाल रूखे होंगे। रूसी (dandruff) होगी। 
इसके बिगड़ने से मुख्यतः 80 प्रकार की  बीमारियाँ होती हैं, जैसे हड्डियों और माँस पेशियों में जकड़न, याद-दास्त की कमी, फटी एड़िया, सूखी त्वचा, किसी भी तरह का दर्द, लकवा, भ्रम, विषाद, कान व आँख के रोग, मुख सूखना, कब्ज, आदि।
लक्षण :: मुँह में कड़वाहट, फटी त्वचा, नाखुनो का खुरदरा होना, ठण्ड बर्दास्त ना होना, कार्य जल्दी करने की प्रवृति, रंग काला, अनियमित पाचन, नींद कम आना, खट्टा व मीठे चीज के खाने की इच्छा करना, मैले नेत्र रूखे बाल।
निदान-पहचान :: नाड़ी की गति तेज व अनियमित, टेढ़ी-मेढ़ी (सर्पाकार) होती है। तेल मालिश और चूने का प्रयोग इलाज में सहायक हैं। (1). दाँत कमज़ोर होकर हिलने लगेंगे। (2). परेशानी, बेचैनी, नसों काकमजोर होना, चिड़-चिड़ापन, कम्पवात आदि रहेगा। (3). घबराहट या ज़्यादा डर लगने से भी वात बढ़ता है। अतः डरावनी, भयानक फ़िल्में, क्राइम सीरियल आदि देखने  से  भी  वात  बढता है। (4). स्वप्न आते हैं। रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न ज़्यादा आते है; क्योंकि यह वात का समय है। (5). शरीर में  वात का घर है; पैर और पेट में बड़ी आँत। इसलिए वात रोगी का पेट फूला हुआ और कड़क महसूस होगा, जैसे किसी गुब्बारे में हवा भरी हो। पेट छूने में नर्म नहीं लगेगा। ज़्यादा भाग दौड़ और चलना फिरना होने से पैरों पर काम का दबाव बढ़ता है और वात बढ़ता है। इसके  लिए घुटने और नीचे के  पैरों को, तलवों को खूब दबाये, तेल मलें। कुछ डकारें आ जाएंगी और आराम मिलेगा। (6). शादी ब्याह में खूब भाग दौड़ करने से वात बढ़ जाता है। इसलिए आखिर में खूब घी वाली खिचड़ी खाकर, गर्म कढ़ी पी जाती है। वात निकल जाता है। आराम मिलता है। (7). हवा का गुण है, चलना या रुकना। जब वात बढेगा तब शरीर की सामान्य हलन चलन की क्रियाएं, जैसे आँतों का हलन चलन प्रभावित होगा और कब्ज होगी। कितना भी सलाद खायें; कब्ज बनी रहेगी, मल सूख जाएगा। (8). मन चंचल रहेगा, कल्पनाएँ ज़्यादा करेगा, कभी कुछ सोचेगा; कभी कुछ, मूड़ बदलता रहेगा। (9). ज़्यादा वात विकार हिस्टीरिया, मानसिक विकार भी पैदा कर देता है। (10). कोई भी बदलाव वात बढ़ा देता है, फिर चाहे वो छोटा हो या बड़ा. जितना बड़ा बदलाव, उतना ज़्यादा वात बढेगा। जैसे सुबह उठे :- बदलाव है (सोते से उठे); सो वात थोड़ा बढ़ा, धूप से छाँव में या छाँव से धूप में गए, वात बढेगा, एसी कमरे से गर्मी में आये या गए, वात बढेगा, मौसम में बदलाव :- अचानक सर्दी या गर्मी बढ़ने से वात बढेगा। अचानक गंभीर चोट लगी, मानसिक आघात लगा, वात बहुत बढेगा। ऐसे समय यह सावधानी बरतें कि किसी रुखी या ठंडी वस्तु का सेवन ना करें, ठंडा पानी  या शीतल पेय  ना पिए। गर्म पानी पीयें। (11). जब विवाह होता है; तो यह एक बहुत बड़ा बदलाव है। इसलिए पति पत्नी कम से कम छः महीने महीने तक रुखी और ठंडी वस्तु जैसे आइस क्रीम आदि का सेवन ना करें। इससे मन में रूखापन नहीं आयेंगा और नए रिश्ते आसानी से बन पायेंगे और ज़िन्दगी भर बने रहेंगे।  आज कल तो पति पत्नी शादी में एक दूसरे को आइसक्रीम खिलाते है और रुखा डाइट फ़ूड लेते हैं। ठंडा पानी, शीतल पेय लेते है। फिर रिश्तों की बुनियाद कमज़ोर रह जाती है। (12). जब बच्चा होता है तो माँ के जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव है। इसलिए छः महीने तक सावधानी लेनी होती है। वरना शरीर फूल कर कमज़ोर हो जाता है। कई बार दूध सूख जाता है। कई बार गम्भीर बीमारियाँ इसी समय हमला करती हैं, जैसे दमा, अर्थराइटिस, रक्तचाप, पाइल्स, हिस्टीरिया आदि। (13). वात यानी हवा शरीर में घुसने के द्वार है नाक, कान, मुँह आदि। इसलिए नाक, कान आदि में तेल डालें। कान ढकना चाहिए।आजकल के युवा गाड़ी चलाते नहीं उड़ाते हैंऔर कान ढकते नहीं। फिर उनमें उन्माद, अचानक तीव्र आवेश, दुबलापन या मोटापा, बाल झड़ना आदि समस्याएँ पाई जाती हैं। इसलिए याद रखें कि गाड़ी उड़ाना नहीं चलाना है और कान ढ़ँकने में शर्म आती हो तो रुई डाल लें। (14). बस या ट्रेन में खुली खिड़की के पास बैठने से सिर दर्द होने लगता है, क्योंकि वात बढ़ जाता है। (15). वात दोष दूर होता है, गर्म पेय, गर्म पानी और शुद्ध घी और छने (filtered) तेल से। (16). कई बार ऐसा देखा गया की किसी को गम्भीर चोट लगी और उसे अस्पताल ले  जाया जा रहा है। उस वक्त उसे किसी ने ठँडा पानी पिला पिला दिया और वह अचानक मर गया। किसी के करीबी व्यक्ति की मौत हुई। वह रो रहा है। किसी ने उसे ठँडा पानी पिला दिया; उनकी भी बोलो राम हो गया। करीबी लोग सोचते रह जाते हैं कि ये अचानक क्या और कैसे हुआ? इसलिए यह जानना ज़रूरी है की गंभीर चोट या मानसिक आघात लगे तो व्यक्ति को पीने के लिए गर्म जल दें। (17). वात दोष ना हो, इसलिए ध्यान रखें कि पानी गटा-गट ना पीयें। मुँह में धीरे-धीरे एक-एक घूँट पीयें। कभी भी पानी खड़े-खड़े होकर ना पिए। हो सके तो उकड़ूँ बैठ कर पीयें। जिससे वात के अंग-निचला पेट और पिंडलियाँ दबती हैं और उनमें वात नहीं घुसता। (18). दूध हमेशा घी डाल कर खड़े-खड़े पीयें। (19). रिफाइंड तेल का प्रयोग कभी ना करे, यह जहर  है। कच्ची घानी का कोई भी तेल जैसे मूँगफली, तिल, नारियल, सरसों उत्तम  है। (20). वात बढाने वाला भोजन शाम 4 बजे के बाद ना ले। जैसे मूली, बैंगन, आलू, गोभी आदि। (21). जीवन के अन्तिम प्रहर यानी बुढापे में भी वात प्रबल होता है।
कफ :: इसकी रचना-उत्पत्ति-निर्माण पृथ्वी व जल तत्व से हुई है। यह अन्न व जल का सम्मिश्रित रूप है और पृथ्वी तत्व की अधिकता के कारण यह सघन, गाढ़ा, चिपचिपा, लसलसा है तथा जल की प्रधानता के कारण यह शीतल प्रकृति का है। थूक या बलगम के रास्ते यह मुँह से बाहर आता है।
बीमारियाँ-रोग :: इससे लगभग 20 प्रकार के रोग होते हैं, जैसे :- आलस्य, गल्कंड, विना खाए पेट भारी होना, बलासक, शरीर पर चकत्ते, ह्रदयोप्लेप, मुँह का फीकापन, कोरोना आदि।
लक्षण :: मोटापा, आलस्य, सब काम आराम से करते है, गुस्सा ना आना, किसी चीज को देर से समझना, मुँह से बलगम आना, भूख-प्यास कम लगना, चिकने नाख़ून व त्वचा, मधुरभाषी।
निदान-पहचान :: नाड़ी की गति मंद-मंद (कबूतर या मोर चाल युक्त), कमजोर व कोमल नाड़ी।
इलाज :: गुड़ और शहद।
कफ़ की निरक्ति :: दिवाद्वि गण में पठित श्लिष आलिंग ने दो चीजों को मिलाने वाली इस धातु से कृदन्तविहित प्रत्यय द्वारा श्लिष्यतेऽनेनेति श्लेष्मा जो मिलाता है वह श्लेष्मा कहलाता है। इस व्युत्पत्ति से श्लेष्मा शब्द बनता है।
''केन जलेन फलति इति कफः'' 
जिस जल से जो फलीभूत होता है अथवा जिसमें जल होता है, उसको कफ़ कहते हैं। इस व्युत्पत्ति से कफ़ शब्द बनता है।
यश्चाश्लिष्य कफः सदा रसयति प्रीणयति सोऽयं कफः। 
जो परस्पर विघटित अणुओं को आपस में संश्लिष्ट करके उन्हें मिलाने वाला होता है, वह कफ़ कहलाता है। शरीर के विभिन्न अवयवों को रस के द्वारा उपश्लेषण तथा पोषण करने वाला श्लेष्मा ही होता है अर्थात् श्लेष्मा के द्वारा शरीर में जो भाव उत्पन्न किये जाते हैं, वे शरीर के पोषण के लिए आवश्यक होते हैं। प्राकृत श्लेष्मा के द्वारा जो शरीर को पोषण प्राप्त होता है, वह शरीर की पुष्टि स्थिरता दृढ़ता के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
श्लेष्मा को शरीर के बल का आधार माना गया हैअर्थात् शारीरिक बल की पूर्ति के लिए कफ़ की विशेष उपयोगिता है।
प्राकृतस्तु बलं श्लेष्मा विकृतो मल उच्यते। [चरक च.सू.]
कफ़ का स्वरूप :: वस्तुतः जो श्लेष्मा हमें स्थूल रूप से दिखाई देता है, केवल वही उसका स्वरूप नहीं है अपितु जिन गुण और कर्मों के आधार पर शरीर में व्याप्त होकर शरीर का उपकार करता है, वे गुण और कर्म ही उसके स्वरूप के प्रतिपादक हैं। सामान्यतः जो लक्ष्ण, मृदु, स्थिर, श्वेत, स्निग्ध, सान्द्र और गुरु गुण वाला होता है, वही श्लेष्मा कहलाता है और यही शरीर को धारण करता है यद्यपि श्लेष्मा पंचभौतिक है तथापि इसमें जल महाभूत की प्रधानता होती है।
कफ के गुण एवं कर्म :: 
गुरूशीतो मृदु स्निग्धः मधुरः पिच्छिलस्तथा।
श्लेष्मणः प्रथमं यानि विपरीत गुणैर्गुणाः॥
गुरू, शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर और पिच्छिल ये श्लेष्मा के गुण होते हैं। इसके विपरीत गुण वाले द्रव्यों का सेवन करने से श्लेष्मा का शमन होता है।
स्नेहोबन्धः स्थिरत्वं च गौरवं वृषता बलम्।
क्षमाधृतिश्लोभश्च कफकमार्विकारजम्॥[चरक सू. 18.51]
स्नेह बन्ध, दृढ़ता, गुरुता, वृषता, बल, क्षमा, धैर्य और अलोभ ये कफ़ के प्राकृत कर्म होते हैं।
कफ स्वभावतः स्निग्ध गुण वाला होता है और अपनी स्निग्धता के कारण शरीर को निरन्तर स्नेह प्रदान करता रहता है। इस स्नेह कर्म के द्वारा शरीर में स्निग्धता बनी रहती है और वायु की रूक्षताजनित विकृति शरीर में उत्पन्न नहीं होने पाती। स्नेह के द्वारा शरीर को पर्याप्त पोषण भी प्राप्त होता है। कफ़ का दूसरा कार्य शरीर के समस्त विघटित अणुओं को परस्पर संश्लिष्ट करना एवं उन्हें बाँधकर रखना है। श्लेष्मा के बन्धन कर्म के द्वारा शरीर के प्रत्येक अवयव एक दूसरे से चिपके हुए रहते हैं, जिससे उनका स्थान भ्रंश नहीं होता। श्लेष्मा अपने स्थिर गुण के कारण शरीर को दृढ़ता-स्थिरता प्रदान करता है। मुख्य रूप से माँस पेशियों की दृढ़ता श्लेष्मा के कारण ही होती है।
स्नेहमङ्गेषु सन्धीनां स्थैर्य बलमुदीर्णताम्
करोत्यन्यान् गुणांश्चापि बलासः स्वाः सिराश्चरन[सु.शा.7.11]
प्राकृत अवस्था में श्लेष्मा बल की पूर्ति करने वाला होता है। इसलिए कफ़ को बल कारक कहा गया है। कफ़ मंद गुण वाला होने से पित्त के तीक्ष्ण आदि गुणों का शामक होता है । कफ़ के द्वारा सात्विक भाव उत्पन्न होने से रजो दोष जनित तीव्रता कम होती है, जिससे मनुष्य के हृदय में क्षमा, धैर्य और अलोभ की वृत्ति का उदय होता है।
कफ़ के स्थान :: यद्यपि सम्पूर्ण शरीर में श्लेष्मा व्याप्त रहता है, किन्तु कुछ स्थान नियत हैं, जहाँ विशेष रूप से पाया जाता है। इन विशिष्ट स्थानों में रहता हुआ श्लेष्मा अपने प्राकृत कर्मों को करता है।
उरः कण्ठशिरः क्लोमपवायार्मशयौ रसः।
मेदो घ्राणं च जिह्वा च कफस्य सुतरामुरः॥[अ.स.सू. 12.3]
उरः प्रदेश, कण्ठ शिर, क्लोम पर्व (अँगुलियों के पोर), रस मेद घ्राण (नाक) और जिह्वा, ये कफ़ के स्थान हैं, उनमें भी उर प्रदेश श्लेष्मा का विशेष स्थान है अर्थात् अन्य स्थानों की अपेक्षा श्लेष्मा वक्ष प्रदेश में विशेष रूप से पाया जाता है।
श्लेष्मा के भेद :: स्थान और कार्य की भिन्नता के आधार पर श्लेष्मा पाँच प्रकार का होता है :- क्लेदक, अवलम्बक, बोधक, तर्पक और श्लेषक कफ़।
मेदः शिरः उरोग्रीवा सन्धिबाहुः कफाश्रयः।
हृदयं तु विशेषण शष्मणः स्थानमुच्यते॥[का.सू. 27.11]
(1). क्लेदक कफ :: यह श्लेष्मा आमाशय में स्थित रहता है और खाये हुए आहार का क्लेदक करके उसे पचाने में सहायक होता है। आमाशय में क्लेदक कफ़ के कारण वहाँ जो पाक होता है, वह प्रथम अवस्था पाक कहलाता है। इस अवस्थापक के मधुर होने के कारण खाया हुआ छः रसों वाला आहार मधुर रस प्रधान होता है।
क्लैदकः सोऽन्नः संघात क्लेदनात् रसबोधनात्।[आ.स.सू.12.15.1]
क्योंकि प्रथम अवस्था पाक में श्लेष्मा का उदीरण होने से उस आहार का तथा वहाँ पर हुए अवस्थापाक का रस भी स्वभावतः मधुर होता है। इस मधुर विपाक के कारण भोजन करने के बाद प्रारम्भिक अवस्था में दो ढाई घँटे बाद तक आमाशय में मधुर और शीतल गुण वाले कफ़ की वृद्धि होती है। इसलिए भोजन के तत्काल बाद मनुष्य में आलस्य और निद्रा का प्रभाव देखा जाता है। इस प्रकार क्लेदक कफ़ के द्वारा आमाशय में प्रथम अवस्था पाक होता है। क्लेदक कफ़ का प्रकोप होने से अरूचि एवं मंदाग्नि आदि पाचन सम्बन्धी विकार होते हैं।
(2). अवलम्बक कफ़ :: यह शरीर के हृदय प्रदेश में रहता हुआ हृदय और शरीर का अवलम्बन करता है। यह उर (छाती) में रहता है। यह वात प्राण वायु और पित्त साधक पित्त की सहायता से हृदय में सात्विक भावों को उत्पन्न करता है तथा हृदय की प्राकृतावस्था में सहायक होता है। इसके क्षय व वृद्धि के कारण हृदय की गति हृदय सम्बन्धी विभिन्न रोग तथा मानसिक भाव प्रभावित होते हैं।
''प्राकृतं तु बलं श्लेष्मा'' बल को ही आचार्यों ने ओज माना है तथा ओज का स्थान भी हृदय बतलाया है और यह श्लेष्मा भी हृदय में ही स्थित रहता है। अतः यह कफ़ ओज का पूरक माना जाता है। क्योंकि ओज एवं अवलम्बक कफ़ के गुण धर्मों में बहुत कुछ साम्य होता है।
(3). बोधक कफ़ :: जिह्वा में स्थिर रहने वाला यह जिह्वा के माध्यम से विभिन्न रसों का ज्ञान कराने में सहायक होता है। जिह्वा के प्राकृत रहने पर भी बोधक कफ़ की क्षय वृद्धि रस ज्ञान को प्रभावित करती है। इसलिए कई बार मनुष्य स्वस्थ होते हुए भी रस ज्ञान करने में समर्थ नहीं होता। इसका कारण बोधक कफ़ का क्षय होता है।
रसबोधनात् बोधको रसनास्थायी। 
रसना इन्द्रिय यद्यपि रस को ग्रहण करती है, परन्तु बोधक कफ़ उसके ज्ञान में सहायक होता है।
(4). तर्पक कफ़ :: यह सिर में रहता है और वहाँ से इन्द्रियों का तर्पण करता है। 
''शिरः संस्थोऽक्षितपर्णात् तर्पकः'' 
अस्थि का तर्पण करने के कारण सिर में स्थित रहने वाला कफ़ तर्पक कफ़ कहलाता है। यह कफ़ सभी इन्द्रियों का तर्पक करता है।
सिर में स्थित तर्पक कफ़ के द्वारा बुद्धि तथा उससे सम्बन्धित स्मृति आदि अन्य भावों का तर्पक होता है। इस प्रकार तर्पक कफ़ के द्वारा सभी इन्द्रियों एवं समस्त बौद्धिक भावों का तर्पण किया जाता है तथा मानसिक भावों को स्थिर बनाता है।
(5). श्लेषक कफ़ :: इसका स्थान मुख्य रूप से सन्धियों में बताया गया है। विशेष रूप से चल सन्धियाँ ही इसका स्थान है। सन्धियों में निरन्तर गति होने के कारण वहाँ स्नेह तत्व की आवश्यकता रहती है। स्नेह तत्व के बिना सन्धियों में प्राकृतिक रूप से गति नहीं होती और वेदना आदि विकार वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं। श्लेषक कफ़ सन्धियों के आवश्यक स्नेहांश की पूर्ति करता है और उनके सुचारु रूप से संचालन में सहायक होता है। श्लेषक कफ का क्षय होने पर तज्जनित विकृति कारक परिणाम उत्पन्न होते हैं और उसकी पूर्ति हो जाने पर वहाँ विकृति दूर हो जाती है।
विशेष-कफ़ मानव शरीरगत दोषों में वात-पित्त से होने वाली व्याधियों में अपना विशिष्ट कार्य करता रहता है यथा कफ़ श्ष्मानुबन्धित दोषों के कारण वृद्धिगत सभी स्रोतों को अधिक रूप से बन्द करते हुए चेष्टा का नाश, मूर्छा आना, वाणी वैषम्य, शब्दों का ठीक न निकलना, अटपटा बोलना आदि लक्षणों को दूर करता है।
क्षीण कफ़ के लक्षण :: शरीर में क्षीण हुआ कफ़ भ्रम, उद्वेष्टन अर्थात् रस्सी से बाँधने के समान अंग-उपांग तथा पिण्डलियों का जकड़ना, नींद न आना, शरीर का टूटना, परिप्लोष अर्थात् सन्ताप के कारण त्वचा में दाह, कम्प, धूमायन, कण्ठ की जलन, सन्धियों का ढीला पड़ना, हृदय का काँपना, हृदय, कंठ आदि कफाशय का सूना सा हो जाना।
वृद्ध कफ़ के लक्षण :: शरीर में श्वेत वर्णता, शैत्य, स्थूलता, आलस्य, शरीर में भारीपन, शिथिलता, स्रोतों में रुकावट, मूर्च्छा, निद्रा, तंद्रा, श्वास, मुख से लार टपकना, अग्नि माँध, सन्धियों की जकड़ जाना आदि विकार कफ़ के बढ़ने पर होते हैं। स्वेद ग्रन्थियों को भी प्रभावित करता है। भ्राजक पित्त पर अधिक गर्मी, तीव्र धूप अग्नि सन्ताप आदि का प्रभाव पड़ने से उसमें वृद्धि होती है।
मानसिक दोष ::
रजस्तमश्च् मानसौ दोषौ तयोवकारा काम, 
क्रोध, लोभ, माहेष्यार्मानमद शोक चित्तोस्तो द्वेगभय हर्षादयः।
रज और तम ये दो मानस रोग हैं। इनकी विकृति से होने वाले विकास मानस रोग कहलाते हैं।
मानस रोग :: काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, मद, शोक, चिन्ता, उद्वेग, भय, हर्ष, विषाद, अभ्यसूया, दैन्य, मार्त्सय और दम्भ ये मानस रोग हैं।
(1). काम :: इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना काम कहलाता है।
(2). क्रोध :: दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं।
(3). लोभ :: दूसरे के धन, स्त्री आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं।
(4). ईर्ष्या :: दूसरे की सम्पत्ति-समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं।
(5). अभ्यसूया :: छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं।
(6). मार्त्सय :: दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा कूररता दिखाना मात्र्सय कहलाता है।
(7). मोह :: अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं।
(8). मान :: अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना 'मान' कहलाता है।
(9). मद :: मान की बढ़ी हुई अवस्था मद कहलाती है।
(10). दम्भ :: जो गुण, कर्म और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागर कर दूसरों को ठगना दम्भ कहलाता है।
(11). शोक :: पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं।
(12). चिन्ता :: किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना चिन्ता कहलाता है।
(13). उद्वेग :: समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है, उसे उद्वेग कहते हैं।
(14). भय :: अन्य आपत्ति जनक वस्तुओं से डरना भय कहलाता है।
(15). हर्ष :: प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हर्ष कहलाता है।
(16). विषाद :: कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना विषाद कहलाता है
(17). दैन्य :: मन का दब जाना अर्थात् साहस और धैर्य खो बैठना दैन्य कहलाता है।ये सब मानस रोग इच्छा और द्वेष के भेद से दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। किसी वस्तु (अथर्व) के प्रति अत्यधिक अभिलाषा का नाम इच्छा या राग है। यह नाना वस्तुओं और न्यूनाधिकता के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है।
हर्ष, शोक, दैन्य, काम, लोभ आदि इच्छा के ही दो भेद हैं। अनिच्छित वस्तु के प्रति अप्रीति या अरुचि को द्वेष कहते हैं। वह नाना वस्तुओं पर आश्रत और नाना प्रकार का होता है। क्रोध, भय, विषाद, ईर्ष्या, असूया, मात्सर्य आदि द्वेष के ही भेद हैं।
धातु :: ये शरीर को सम्बल देता है, उसके रूप में धातु को परिभाषित कर सकते हैं। शरीर में रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा तथा शुक्र, सात ऊतक प्रणालियाँ होती हैं, जो क्रमशः प्लाज्मा, रक्त, वसा ऊतक, अस्थि, अस्थि मज्जा और वीर्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। धातुएं शरीर को केवल बुनियादी पोषण प्रदान करते हैं और यह मस्तिष्क के विकास और संरचना में मदद करती है।
सप्त धातु :: (1). रस धातु, (2). रक्त धातु, (3). माँस धातु, (4). मेद धातु, (5). अस्थि धातु, (6). मज्जा धातु और (7). शुक्र धातु। 
सप्त धातु, वातादि दोषों से कुपित होतीं हैं। जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्त धातुएँ  तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्पन्न करती हैं। 
धातु शब्द की निरुक्ति ::
"धारणात् धातवः" 
जो शरीर का धारण करता है उसको धातु कहते हैं।
सामान्य रूप से तो मल और दोष भी शरीर को धारण करते हैं, परन्तु धातुएँ शरीर को धारण करती हैं तथा पोषण भी करती हैं। जो धातुएँ शरीर को धारण करती हैं, वे ही मुख्य रूप से शरीर का आधार होने के कारण अवलम्बन भी करती हैं।
शरीर उन धातुओं पर ही टिका रहता है; धातुओं के बिना शरीर की कोई स्थिति नहीं है।
धातुएँ शरीर को धारण करने का कार्य केवल स्थूल रूप से नहीं करती हैं, बल्कि अपने गुण व कर्मों के कारण शरीर को सतत पोषण प्रदान करती है तथा शरीर अवयवों एवं शरीरगत अन्य भावों की वृद्धि एवं शरीर का उपचय करने में समर्थ होती है।
शरीर को बल, स्थिरता, दृढ़ता और पोषण प्रदान करना भी धातु शब्द से अभिप्रेत है।
धातुओं की सँख्या :: शरीर में धातुएँ सामान्यतः सात होती है; रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। ये सभी दोषों द्वारा दूषित की जाती है अतः दूष्य कहलाती हैं।
रसाऽसं सृङ्गमांसमेदो अस्थि मज्जा शुक्राणु धातवः सप्त दूष्याः मला।
[अ.द.सू. 1]
यद्यपि इन सातों धातुओं के कार्य पृथक्-पृथक् रूप से भिन्न-भिन्न होते हैं, तथापि धारण और पोषण का कार्य सामान्य होने से इन्हें धातु की संज्ञा दी है। ये सातों धातुएँ अपने-अपने विभिन्न कर्मों के द्वारा शरीर का उपकार करती हुई, शरीर को स्थिरता व दृढ़ता प्रदान करती हैं। भिन्न-भिन्न रूप से किये जाने वाले इन सातों धातुओं के सभी प्रकार के कार्यों का अन्तिम परिणाम है, शरीर को धारण व पोषण प्रदान करना। अतः इन सातों को धातु कहा गया है।
धातुओं के कार्य ::
प्रीणनं जीवनं लेपः स्नेहो धारण पूरणे,
गर्भोत्पादश्च कर्माणि धातूनां क्रमशो विदुः।[अ.स.सू. 1]
रसादि धातुओं के क्रमशः प्रीणन, रस का ग्रहण धारण, विवेक, कार्य रक्त का; लेप माँस, स्नेह, मेद, धारण, अस्थि, पूरण मज्जा, गर्भोत्पादन शुक्र का मुख्य कर्म है।
शरीरं धरयन्त्येते धात्वाहाराश्च सर्वदा।[अ.स.सू. 1]
ये पूर्वोक्त रस रक्तादि धातुएँ शरीर को धारण करते हैं और धातुओं के आहार हैं अर्थात् जिस प्रकार प्राणियों की वृद्धि का कारण आहार है। ठीक उसी प्रकार धातुओं की वृद्धि का कारण धातु ही है । पूर्व-पूर्व उत्तरोत्तर धातुओं के आहार हैं। जैसे रस से रक्त का, रक्त से माँस तथा माँस से मेद का इत्यादि ।
धातुओं की उत्पत्ति :: शरीर के समस्त भावों की उत्पत्ति में पंच महाभूत मूल कारण है। समग्र सृष्टि अथवा सृष्टि के समस्त कार्य द्रव्वों की उत्पत्ति महाभूत से हुई है। अतः शरीर को धारण करने वाली धातुएँ भी पंच महाभूत से उत्पन्न होने के कारण अन्य द्रव्यों की भाँति भौतिक कहलाती है।
महाभूत के जो स्थूल गुण व कर्म होते हैं वे ही गुण कर्म धातुओं में भी संक्रमित होते हैं। इससे धातुओं का पंच भौतिकता स्वयंसिद्ध है।
(1). रस धातु :: सातों ही धातुओं में रस की गणना सबसे पहले की गई है, इस दृष्टि से यह सभी धातुओं में महत्त्वपूर्ण व अग्रणी माना जाता है। इसका एक कारण है कि रस के द्वारा ही समस्त धातुओं का पोषण होता है।
रस समस्त धातुओं के पोषण का माध्यम है। इसके अतिरिक्त शरीर को धारण करना तथा जीवन पर्यन्त शरीर का यापन करना ये दो इसके मुख्य कार्य हैं। इसके अतिरिक्त रस के माध्यम से ही सम्पूर्ण शरीर में रक्त का परिभ्रमण होता है।
तत्र रस गतौ धातुः अहरहगछतीति रसः।
रस गत्यर्थक धातु में प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द है, जिसके अनुसार जो प्रतिक्षण अहः चलता रहता है, उसे रस कहते हैं अर्थात् पंच भौतिक, चतुर्विध, षडरस युक्त दो प्रकार के अथवा आठ प्रकार के वीर्य वाले, अनेक गुण युक्त भली भाँति परिणाम को प्राप्त हुए आहार का जो तेजोभूत सार भाग अत्यन्त सूक्ष्म होता है, वह रस कहलाता है।
विण्मूत्र आहारमले सारः प्रागीरितो रसः।
सः तु व्यानेन विक्षिप्तः सर्वान् धातूना प्रतपर्येत्॥
पुरीष और मूत्र ये दोनों आहार के मल हैं और आहार का सार भाग रस कहलाता है। वह व्यान वायु के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में भ्रमित होता है और पूरे शरीर में भ्रमण करता हुआ,  सभी धातुओं का तर्पण करता है।
शरीर में रस का परिमाण :: प्रत्येक मनुष्य का शरीर भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार और भिन्न-भिन्न परिमाण वाला होता है। प्रत्येक मनुष्य की जठराग्नि और जरण शक्ति में भी भिन्नता पाई जाती है, अतः निश्चित रूप से कह सकना असम्भव है कि प्रत्येक शरीर में रस धातु का कितना प्रमाण है। रस धातु का निर्माण मुख्य रूप से उस आहार रस के द्वारा होता है, जो जठाराग्नि के द्वारा परिपक्व हुए आहार का परिणाम होता है।
रस का परिमाण प्रत्येक मनुष्य की अपनी अंजलि में नौ अंजलि होता है। रस का मुख्य कर्म धारण करने के अलावा अवयवों को पोषण तत्त्व प्रदान करना है। मूल धातु होने के कारण शरीर के लिए आधारभूत है।
(2). रक्त धातु :: जिस प्रकार शरीर में समस्त धातुओं का मूल-रस धातु है, उसी प्रकार शरीर का मूल रक्त धातु है। आयुर्वेद के अनुसार रस का परिणाम ही रक्त है।रस धातु के सूक्ष्म भाग पर रक्त धात्वाग्नि की क्रिया के परिणाम स्वरूप ही रक्त का निर्माण होता है।
रक्त धातु उष्ण और पित्त गुण प्रधान होता है। रक्त धातु का मल पित्त होता है।
देहस्थ रुधिर मूलं रुधिरेणेव धार्यते, 
तस्माद्यप्नेन रक्तं जीव इति स्थिति।[सुश्रुत]
रक्त ही शरीर का मूल है और रक्त के द्वारा ही शरीर का धारण किया जाता है, इसलिए इस रक्त की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि रक्त ही प्राण होता है।
यद्यपि रक्त पित्तदोष एवं तेजो महाभूत प्रधान है तथापि इसके भौतिक संगठन में पाँचों महाभूत के गुणों का संयोग रहता है यथा-
विस्रता द्रवता रागः लघुता स्पन्दनं तथा।
भूम्यादीनां गुणा ह्येते दृश्यन्ते चात्रशोणिते 
विस्रगन्धता, द्रवता, अरुणता, लघुता और स्पन्दन ये गुण क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज, आकाश और वायु के रक्त में दिखाई पड़ते हैं।
रक्त का स्वरूप :: रक्त का वर्ण तपाये हुए स्वर्ण, वीर बहूटी (लाल वर्ण का एक छोटा कृमि, वर्षा ऋतु में जो घास में होता है), रक्त कमल, गुंजाफल के समान, लाल वर्ण का विशुद्ध रक्त होता है।
तपनीयेन्द्रगोपाभं पद्मालक्तसंतिभम्गु 
ञ्जाफल सवर्णं च विशुद्ध विद्वि शोणितम्।[च. सू. 24.22]
शुद्ध रक्त का वर्ण लाल होता है, जो समप्रकृति पुरुषों में होता है ।
स्वाभाविक रूप से रक्त में पिच्छिलता और सान्द्रता गुण होने के कारण वह एकदम पतला नहीं होता है, अपितु कुछ गाढ़ापन लिये होता है।
रक्त का परिमाण :: 
''अष्टौ शोणितस्य'' [च. शा. 7.15]
अपने हाथ की आठ अंजली प्रमाण होता है। जिसकी उत्पत्ति यकृत, प्लीहा और आमाशय में है।
रक्त के कार्य ::
रक्तं वर्ण प्रसादं मांसपुष्टि जीवयति च।[सु. सू. 15.5]
रक्त धातु वर्ण की प्रसन्नता या निमर्लता, अग्रिम माँस धातु की पुष्टि और शरीर को जीवित रखता है। इस प्रकार मुख्य तीन कार्य होते हैं, परन्तु सभी धातुओं का क्षय और वृद्धि होना रक्त के अधीन है, यथा :-
तेषां (धातुनां) क्षयवृद्धौशोणितनिमित्ते।
(3). माँस धातु :: शरीर में सबसे अधिक अंश माँस धातु का होता है और यह शरीर की स्थिरता, दृढ़ता और स्थिति के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। माँस धातु के द्वारा शरीर के आकार निर्माण में सहायता प्राप्त होती है। शरीर का गठन, पुष्टता और सुविभक्त गात्रता माँस धातु के द्वारा ही होती है। माँस धातु अस्थियों को भी आधार प्रदान करता है।
माँसपेशी के अभाव में अस्थि अथवा अस्थि संधि क्रियाशील नहीं हो सकती। अतः सभी सचल सन्धियों को क्रियाशीलता प्रदान करना माँसपेशियों के ही अधीन है। इसके अतिरिक्त अवयवों का निमार्ण माँस पेशियों के द्वारा ही होता है।
शरीर के कुल भार का 41 % माँस धातु है, इसमें 21% प्रोटीन तथा 5% जल होता है। यह पेशियों का उपादान धातु है। यह लोहित तंतुमय होता है तथा जोंक के शरीर की तरह सकुंचन प्रसरणशील होता है।
पेशीनामुपादान धातुर्मृदुलोहित तन्तुमयो
जलौक शरीरवत् संकोचप्रसरण शीलः।[प्र.शा.अ. 2]
माँस धातु का परिमाण :: शरीर में माँस धातु का परिमाण अन्य धातुओं की अपेक्षा सबसे अधिक होता है। आयुवेर्द में इसका निश्चित प्रमाण नहीं मिला; परन्तु आधुनिक मतानुसार सम्पूर्ण शरीर के भार का 41% भाग माँस का होता है।
माँस धातु का भौतिक संगठन :: शरीर में माँस धातु का आधार माँसपेशी निरुपित किया गया है। यह एक पाँच भौतिक द्रव्य है और विभिन्न महाभूतों के गुण इसमें पाये जाते हैं। यही कारण है कि पाँच भौतिक आहार के द्वारा उसका पोषण और वृद्धि होती है; तथापि सबसे अधिक पृथ्वी और जल महाभूतों का अंश माँस में पाया जाता है। माँस सवोर्त्तम माँस वद्धर्क होता है :-
(1). मांसमात्यायते मांसेन।[च.शा. 6.10]
(2). शरीरवृहणे नान्पत खाद्यं मांसाद्विशिष्यते।[च.सू. 27.28]
(3). शुष्यतां क्षीणमांसनां कल्पितानि विधानवित्
 दद्यात्मांसादमांसनि वृहणानि विशेषतः।[चि.चि. 9.49]
माँस धात्वाग्नि की रक्त धातु के अणु भाग पर क्रिया होने के पश्चात् माँस धातु का निमार्ण होता है। माँस धात्वाग्नि की क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ माँस धातु तीन भागों में विभक्त होता है। अणु, स्थूल और मल।  इसमें स्थूल भाग के द्वारा माँस धातु का पोषण होता है।
माँस धातु के कार्य ::
मांसं शरीर पुष्टिं मेदसश्च पुष्टिं करोति।[सु.सु. 15.5]
माँस का कार्य चेष्टा करना है। शरीर की विभिन्न क्रियाओं का संचालन यथा चलना- फिरना, उठना-बैठना आदि सभी कार्य माँस धातु के संकोच एवं प्रसरण के कारण ही सम्पन्न होते हैं। बिना माँस धातु के चल कार्य नहीं हो सकते।
(4). मेदधातु :: माँस धातु के पोषण अंश या अणु भाग से मेद धातु की उत्पत्ति होती है। उस अंश पर मेदोधात्वाग्नि की क्रिया के परिणाम स्वरूप जो अणु, स्थूल और मल इन तीन भागों का विभाजन होता है, उसमें स्थूल भाग मेद धातु का पोषक होता है और वही मेद धातु की उत्पत्ति करने वाला होता है।
मेद सान्द्र (घना, गाढ़ा) घी की तरह होता है और शरीर का स्नेह धातु है। मेद का अधिकांश स्थूलास्थियों (नलकास्थियों) में मज्जा नामक होता है। त्वचा के नीचे और माँस धरा कला के ऊपर मेदोधरा कला होती है। उदर में विशेष रूप से मेद का संग्रह होता है।
सान्द्रसपस्तुल्यः स्नेहधातुः शरीरस्थ, तस्य स्थानमुदरान्तः त्वचामधश्च।[प्र.शा.प्र.ख.अ. 2]
मेद धातु का परिमाण के सम्बन्ध में कहीं विशेष विवरण नहीं है, क्योंकि भिन्न-भिन्न शरीर की भिन्न-भिन्न आकृति और प्रकृति होने के कारण मेद धातु का परिमाण भी अलग-अलग होता है। अतः शारीरिक भिन्नता के कारण मेद धातु की निश्चित मात्रा बताना सम्भव नहीं है।
मेद धातु के कार्य :: 
मेदः स्नेहस्वेदौ दृढ़त्वं पुष्टिमस्थ्नां च।[सु.सु. 15.5]
मेद शरीर में स्नेह एवं स्वेद उत्पन्न करता है, शरीर को दृढ़ता प्रदान करता है तथा शरीर की अस्थियों को पुष्ट करता है। मेद का कार्य शरीर में स्नेह को उत्पन्न कर सम्पूर्ण अंगों को स्निग्धता प्रदान करना है।
धातुओं के सामान्य कार्य के अनुसार शरीर धारण के अतिरिक्त पोषण कार्य भी मेद करता है। मेद स्वभावतः स्नेह प्रधान होने के कारण शरीर तथा विभिन्न अवयवों का पोषण करता है।
मेद धातु में स्थित स्नेहांश सन्धियों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह स्नेहांश ही सन्धियों को संशलिष्ट रखता है और सन्धियों में स्थित शैष्मिक कला के निमार्ण में सहायक होता है, जो  सन्धियों को यथाशक्य स्नेहन कर गति प्रदान करने में सहायक बना रहता है।
(5). अस्थि धातु :: शरीर की स्थिति एवं स्थिरता अस्थि संस्थान पर अवलम्बित है। अस्थि पंजर ही शरीर का सुदृढ़, ढाँचा तैयार करता है। जिससे मानव आकृति का निमार्ण होता है। शरीर में यदि अस्थियाँ न हों तो सम्पूर्ण शरीर एक लचीला माँस पिण्ड बनकर ही रह जायेगा, शरीर को अस्थियों के द्वारा ही दृढ़ता और आधार प्राप्त होता है।
अस्थि में पृथ्वी, आकाश एवं वायु महाभूत की अधिकता होती है। अस्थि में स्थूलता और उसमें प्रतीत होने वाली गंध पृथ्वी महाभूत की स्थिति को बतलाती है। लघुता और सुषिरता आकाश महाभूत तथा रुक्षता वायु महाभूत के कारण होती है। 
आकार विशेषतः तेजस महाभूत के कारण होता है। अस्थियाँ स्थिर, कठोर एवं शरीर की अवलम्बक धातु है जो माँस पेशियाँ स्नायुयों द्वारा अस्थियों पर निबद्ध होती है, जिनके समागम स्थल को सन्धि कहते हैं।
ये संधियाँ दो प्रकार की होती हैं, चल सन्धि और स्थिर सन्धि शाखाओं हनु, कटि, ग्रीवा में चल तथा स्थिर सन्धियाँ होती हैं।
अस्थिनि नाम स्थिर कठिनावलम्बनोधातुः
कायस्य यमाश्रित्य समग्रं शरीरमवतिष्ठते।[प्र.शा.ख. अ. 2]
अस्थियों का ही सजातीय रूप तरुणास्थि है। स्थिति स्थापक और नम्र-लचीली होती हुई भी यह सुदृढ़ होती है-
ये प्रायः समस्त अस्थियों का पूर्व रूप होती हैं :- क्लोम तथा कण्ठ (स्वर यंत्र) तरुणास्थि से ही बने होते हैं।
पर्शुकाओं का उरः फलक से संधान तरुणास्थि से ही होता है। नासिका का अग्रभाग, कणर्शष्कुली तथा अधिजिह्विका तरुणास्थि से ही बने होते हैं। अस्थियों के सिरे तरुणास्थियों से ही बने होते हैं।
अस्थियों के कार्य :: मूल रूप से दो ही कार्य हैं :- देह को धारण करना और मज्जा की पुष्टि करना। शरीर को आधार प्रदान करना और अपने सामान्तर अवयव को पुष्टि करना। शरीर के विभिन्न भागों में स्थित मृदु और आघात असहिष्णु अवयवों की रक्षा करना है। मस्तिष्क, हृदय और फुफ्फुस की रक्षा का दायित्व मुख्य रूप से अस्थियों पर ही निभर्र है।
(6). मज्जा धातु :: मज्जा धातु मुख्य रूप से स्नेहांश प्रधान द्रव रूप में होता है। यह कुछ पीलापन लिए हुए होता है। यह धातु विशेष रूप से बड़ी अस्थियों में उनके मध्य में पाया जाता है। छोटी अस्थियों में पाई जाने वाली मज्जा का वर्ण कुछ रक्ताभ लिये हुए होता है।
अस्थि धातु के अणु भाग से मज्जा धातु की उत्पत्ति होती है। इसमें स्नेहांश और द्रवांश की अधिकता के कारण जल महाभूत की अधिकता लक्षित होती है।
मज्जा के कर्म :: शरीर में त्वचा की स्निग्धता मज्जा धातु के ही अधीन है। शरीर में बल उत्पन्न करने का महत्त्वपूर्ण कार्य मज्जा के द्वारा सम्पन्न होता है। मज्जा का अग्रिम धातु शुक्र होती है, अतः उसकी पुष्टि करना भी मज्जा का ही कार्य है। शुक्र की पुष्टि करना, अस्थियों के सुषिर भाग की पूरण करना आदि मज्जा के प्रमुख कार्य हैं।
यह विशेष रूप से शुक्र धातु का पोषण, शरीर का स्नेहन तथा शरीर में बल सम्पादन का कार्य करता है। मज्जा शरीर के विभिन्न अवयवों को पोषण प्रदान करती है, यह पोषण का कार्य मुख्य रूप से इसके स्नेहांश के द्वारा किया जाता है।
मज्जा के कारण शरीर और अस्थि दोनों को बल प्राप्त होता है। इस प्रकार यह स्वयं तथा अस्थियों के माध्यम से शरीर को धारण करती है।
(7). शुक्र धातु :: शरीर में ऐसा कोई स्थान विशेष नियत नहीं है, जहाँ शुक्र विशेष रूप से विद्यमान रहता हो। शुक्र सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है तथा शरीर को बल प्रदान करता है। इसके लिए कहा गया है, जिस प्रकार दूध में घी और गन्ने में गुड़ व्याप्त रहता है, उसी प्रकार शरीर में शुक्र व्याप्त रहता है।
शुक्र का आधार मनुष्य का ज्ञानवान शरीर है।[चरक]
शुक्र का स्वरूप :: 
स्फटिकामं द्रवं स्निग्धं मधुरं मधुगन्धिच।
शुक्रमिच्छन्ति केचित्तुु तेलक्षौद्रनिमं तथा॥[सुश्रुत]
स्फटिक के समान श्वेत वर्ण वाला द्रव स्निग्ध, मधुर और मधु के समान गन्ध वाला शुक्र होता है। शुक्र तैल या मधु के समान भी हो सकता है।
शुक्र की उत्पत्ति मज्जा धातु के अणु भाग पर शुक्र धात्वाग्नि की क्रिया के परिणाम स्वरूप होती है। शुक्र की उत्पत्ति का कार्य दोनों वृषण करते हैं। शुक्र सर्व शरीरस्थ है। जिस प्रकार ईख में रस, दूध या दही में घी या तिल में तेल अदृश्य रूप में सर्वांश में ओत-प्रोत होता है, वैसे ही शुक्र मनुष्य के सर्वांग में व्याप्त होता है यथा :-
यथा पयसि सपस्तु गूढ़श्चेक्षौ रसो यथा
शरीरेषु तथा शुक्र नृणां विद्यद्भिषग्वरः।[सु.शा. 4.21]
रस इक्षौ यथा दहिन सपस्तैलं तिले यथा।
सवर्त्रानुगतं देहे शुक्रं संस्पशर्ने तथा॥[च. चि. 4.46]
शुक्र के कार्य :: धैर्य अर्थात सुख, दुःखादि से विचलित न होना, शूरता, निभर्यता, शरीर में बल उत्साह, पुष्टि, गभोर्त्पत्ति के लिए बीज प्रदान तथा शरीर को धारण करना, इन्द्रिय हर्ष, उत्तेजना, प्रसन्नता आदि कार्य शुक्र के द्वारा होते हैं। इस प्रकार शुक्र धातु शरीर के साथ-साथ मन के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। इन सबके अतिरिक्त सबसे मुख्य कार्य सन्तानोत्पत्ति है।
धातु समवृद्धि के लक्षण
(1). क्षीण रस के लक्षण :: शब्द का सहन न होना, हृदय कम्पन, शरीर का कांपना, शोष, शूल, अंग शून्यता (प्रसुप्ति), अंगों का फड़कना, अल्प चेष्टा के करने पर भी थकावट और प्यास का अनुभव होना, ये सब मनुष्य शरीर में क्षीण रस के लक्षण हैं।
बढ़े हुए रस के कार्य :: मुख से लार टपकना, अरुचि मुख की नीरसता, लार सहित उबकाई, जी मचलाना, स्रोतों का अवरोध, मधुर रस से द्वेष, अंग-अंग का टूटना तथा कफ़ के विकारों को करके पीड़ा देता है।
(2). क्षीण रक्त के लक्षण :: शरीर में रक्त के क्षीण होने से चमड़ी पर रूखापन खटाई और ठण्डे पदार्थों की इच्छा-सिरा का ढीला पड़ना, ये लक्षण होते हैं।
बढ़े हुए रक्त के कार्य :: कोढ, विसर्पी, फोड़े-फुन्सी, रक्त प्रदर, नेत्र, मुख, लिङ्गं और गुदा का पकना, तिल्ली, बायगोला, बिदकती, मुख तरङ्ग अर्थात् मुख पर काली झाँई पड़ना, कामला, अग्निमान्ध, आँखों के सामने अंधियारी आना, शरीर और नेत्रों में ललाई, वातरोग आदि प्रायः पित्त के विकारों को करके शरीर में पीड़ा बढ़ाता है।
(3). माँस क्षीण के लक्षण :: शरीर में माँस के क्षीण होने से स्फिक्र (गण्ड स्थल के पास का भाग) और गण्ड स्थल (पौंर्दा) आदि में शुष्कता (सूख जाना), शरीर में टोचने की सी पीड़ा अंश ग्लानि अर्थात् इन्द्रियों का अपने काम करने में असामर्थ्य, सन्धि के स्थान में पीड़ा और धमनियों में शिथिलता ये ही इसके लक्षण हैं ।
धातु समवृद्धि के लक्षण ::
बढ़े हुए माँस के कार्य :: गण्डमाला अर्थात् कण्ठमाला, अर्बुद ग्रन्थि तालुरोग, जिह्वा रोग, कण्ठ के रोग, फींचे गाल, होंठ, बाहु, उदर तथा उरु जंघों में गौरव अर्थात् भारीपन आदि रोगों को करके तथा प्रायः कफ़ विकारों को करके शरीर को दुखी करता है।
(4). क्षीण मेद के लक्षण :: मेद के क्षीण होने से प्लीहा अर्थात् तिल्ली का बढ़ना, कमर में स्वाप अर्थात् सुप्तता अथवा शून्यता, सन्धि में शून्यता, शरीर में रुक्षता, कृशता, थकावट, शोष, गाढ़े माँस के खाने की इच्छा और उपयुक्त क्षीण मांस के कहे हुए लक्षण होते हैं।
बढ़े हुए मेद के कार्य :: बढ़ा हुआ मेद प्रमेह के पूर्वरूप अर्थात् स्वेद अण्डगन्ध आदि स्थूलता के उपद्रपादि और प्रायः कफ रक्त मांस विकारों को करके देह को पीड़ा देता है।
(5). क्षीण अस्थि लक्षण :: अस्थि के क्षीण होने से दाँतों, नखों, रोमों और केशों का गिरना, रुक्षता, पारूष्य अर्थात् कड़ा अथवा रूखा बोलना, सन्धियों में ढीलापन, हड्डियों में चुभने की सी पीड़ा, अस्थिबन्ध, माँस खाने की इच्छा का होना ये लक्षण हैं।
बढ़ी हुई अस्थि के कार्य :: बढ़ी हुई अस्थि हड्डियों और दाँतों में वृद्धि करके या अस्थि पर अस्थि, दाँत पर दाँत उत्पन्न करके देह को दुखी करती है।
(6). क्षीण मज्जा के लक्षणम :: मज्जा के क्षीण होने से अस्थिसौषय अर्थात् हड्डी में पोल का प्रतीत होना, बड़ी पीड़ा, दुर्बलता, चक्कर आना, प्रकाश में भी अँधेरे का अनुभव होना, इसके ये ही लक्षण होते हैं।
बढ़ी हुई मज्जा के कार्य :: नेत्र शरीर तथा रक्त में गुरुता अर्थात् भारीपन अँगुलियों के सन्धि में स्थूल मूल वाले व्रण को उत्पन्न करके पीड़ा देती है।
(7). शुक्र क्षय के लक्षण :: वीर्य के क्षीण होने पर थकावट, दुर्बलता, मुँह का सूखना, सामने अंधियारी का आना, शरीर का टूटना, शरीर का पीला पड़ जाना, अग्निमय नपुंसकता, अण्डकोष में टोचन की सी पीड़ा, लिङ्गं में धुलें जैसी प्रतीति अर्थात् दाह होना, स्त्री संग में बड़ी देर से वीर्य का स्खलन होना या वीर्य स्खलन न होकर बड़ी देर के बाद लिङ्गं इन्द्रियों से रक्त सह वीर्य का स्खलन होना; ये लक्षण होते हैं। इस प्रकार रस रक्तादि के क्षीण होने पर उक्त लक्षण होते हैं।
बढ़े हुए वीर्य के कार्य ‍बढ़ा हुआ शुक्र या वीर्य स्त्री संसर्ग की अति इच्छा तथा शुक्राश्मरी को उत्पन्न कर देह में पीड़ा कारक होता है। 
PSA increases considerably in those who think too much of sex leading to Prostrate Cancer. Slowly & gradually it spreads to other parts of the body. Normal PSA level is 4-10. One must adopt physical exercise, Yog, walking to control it.
मल :: मल का अर्थ है, अपशिष्ट उत्पाद या गन्दगी। यह शरीर की तिकड़ी यानी दोषों और धातु में तीसरा है। मल के तीन मुख्य प्रकार हैं, जैसे मल, मूत्र और पसीना। मल मुख्य रूप से शरीर के अपशिष्ट उत्पाद हैं, इसलिए व्यक्ति का उचित स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए उनका शरीर से उचित उत्सर्जन आवश्यक है। मल के दो मुख्य पहलू हैं अर्थात मल एवं कित्त। मल शरीर के अपशिष्ट उत्पादों के बारे में है जबकि कित्त धातुओं के अपशिष्ट उत्पादों के बारे में सब कुछ है।
मल तीन प्रकार के होतें हैं ::  (1). पुरीष, (2). मूत्र और (3). स्वेद। 
अग्नि :: शरीर की चयापचय और पाचन गतिविधि के सभी प्रकार शरीर की जैविक आग की मदद से होती हैं, जिसे अग्नि कहा जाता है। अग्नि को आहार नली, यकृत तथा ऊतक कोशिकाओं में मौजूद एंजाइम के रूप में कहा जा सकता है।
दोष और धातुओं के समान मलों की उपयोगिता भी मानव शरीर के लिए महत्त्वपूर्ण है। आयुर्वेद के अनुसार जो शरीर के धातुओं एंवम् उपधातुओं को मलिन करते हैं वे मल कहलाते हैं।
"मलिनीकरणान्मलाः"
स्वेद, मूत्र और पुरीष को मल की संज्ञा दी गई है।
दोष धातुमल मूलं हि शरीरम्।[सुश्रुत]
मानव शरीर दोष धातु और मल के बिना स्थिर नहीं रह सकता है, इससे मल की उपयोगिता स्वयं ही स्पष्ट हो जाती है। ये तीनों मल जब शरीर को धारण करते हैं, तब स्वास्थावस्था होती है और विषम होने पर शरीर में विकृति पैदा होती है।
शरीर में मल की एक निश्चित मात्रा का होना अनिवार्य है जो शरीर को धारण करती है। शरीर में मल का क्षय होने पर शरीर निर्बल हो जाता है, जिसके लिए अष्टांग हृदय में मल शरीर के लिए उपयोगी होते हैं, उनका क्षय उनकी वृद्धि की अपेक्षा अधिक कष्ट कारक होता है।
मलोचितत्वात् देहस्थ क्षयो वृद्धेस्तु पीडनः।[अ.छ. 21]
इसके अतिरिक्त धातुओं के क्षय से पीड़ित यक्ष्मा रोगी केवल पुरीष के द्वारा ही बल प्राप्त करता है यथा :-
तस्मात् पुरीषं संरक्ष्यं विशेषाद राजयक्षिणः।
सर्वधातुक्षयार्त्तश्य बलं तस्य हि विड्बलम्॥[च.चि.अ. 8]
इसी प्रकार स्वेद और मूत्र का भी एक निश्चित परिमाण शरीर की स्थिरता के लिए आवश्यक है।
(1). स्वेद :: स्वेद शरीर का वह जलीय अंश है, जो त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकलता है। स्वेद की प्रवृत्ति सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु में होती है, वातावरण की उष्णता, परिश्रम की अधिकता स्वेद प्रवृत्ति में मुख्य कारण है। कभी-कभी अधिक घबराने तथा भय के कारण भी स्वेद और मल-मूत्र की प्रवृत्ति होती है। अन्य मलों के उत्सर्ग की भाँति स्वेद का उत्सर्जन भी एक नैसर्गिक स्थिति है, क्योंकि स्वेद के माध्यम से शरीर में स्थित विषैले एवं दूषित तत्त्व शरीर से बाहर निकल जाते हैं।
स्वेद प्रवृत्ति मानव शरीर के लिए शुद्धिकरण क्रिया है। स्वस्थ मनुष्य के शरीर में उचित समय में उचित परिमाण में पसीना निकलना अत्यन्त आवश्यक है। ज़रूरत से ज्यादा पसीना निकलना भी सेहत के लिये हानि कारक है, क्योंकि इससे शरीर के अन्दर मौजूद लवणों का ह्रास भी होता है और शरीर में लोह तत्व आदि की कमी हो जाती है। इसलिये शरीर पर उतना ही जोर डालना चाहिये जितने से ज्यादा थकान न हो और न ही ज्यादा पसीना आये। ज्यादा गर्मी में शरीर में पानी का सन्तुलन प्यास लगते ही पानी पीना है। 
मलः स्वेदस्तु मेदसः स्वेद वहानां स्रोतसां मेदो मूलं लोमक्पाश्च।[च.वि. 5.8]
स्वेद मेद धातु का मल है। स्वेद स्रोतों का मूल अर्थात् उत्पत्ति स्थान मेद है। इसका दूसरा छोर रोम कूप में है।
स्वेद का वहन करने वाले स्रोत असंख्य हैं। अन्त:स्त्वक में स्वेद का निर्माण करने वाली स्वेद ग्रन्थियाँ होती हैं। इनके चारों ओर कोशिकाओं का घना जाल होता है। स्वेद ग्रन्थियाँ कोशिकाओं के रक्त से जल तथा कुछ घनीभूत द्रव्यों का सर्वदा निर्हरण किया करती है। यही जल तथा उसमें विलीन द्रव्य स्वेद कहलाते हैं।
त्वग्दोषाः संगोऽतिप्रवृतिर्यथा प्रवृर्त्ति मलायतन दोषाः।[सु.सू. 24]
स्वेद की यथोचित प्रवृत्ति न होने पर मल स्थानों के दूषित होने से त्वचा सम्बन्धी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।
स्वेद सर्वदा स्रवित होता रहता है और सामान्यतः उड़ता रहता है, अतः इसके प्रवाह का ज्ञान नहीं होता। वातावरण आर्द्र रहने पर या स्वेद का स्राव शीघ्र और अधिक होने पर स्वेद कणिका के रूप में प्रकट होता है।
तदुदकं दशाञ्जलि प्रमाणम्।[च.शा. 7.15]
शरीर में जल का प्रमाण अपने हाथ से दश अञ्जलि है। जिसमें स्वेद का जल प्रधान है।
(1). "स्वेदस्य क्लेदविधृति" :- शरीर की क्लिन्नता अथवा त्वचा की आर्द्रता और त्वचा की सुकुमारता को कायम रखने वाला है।
''स्वेदः क्लेदत्वक् सौकुमार्यकृत''[सु.सू. 15.5]
(2). दूषित एवं विषैले तत्त्वों को शरीर से बाहर निकालता है।
(3). शरीर की ऊष्मा का नियमन करता है।
मनुष्य की शारीरिक ऊष्मा सदैव प्रायः 980-990 फारेनह्वाइट होती है। व्यायाम या श्रम के कारण शरीर की ऊष्मा बढ़ने पर या धूप के कारण वातावरण उष्ण होने से ऊष्मा बढ़ने लगती है। तब त्वचा की कोशिकाओं में रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है, जिससे स्वेद ग्रन्थियों में स्वेद का स्राव होने लगता है। वायु लगने से यह स्वेद वाष्प बनकर उड़ जाता है, तब वाष्पीभूत के लिए अपेक्षित ताप त्वचा से मिलता है, जिससे त्वचा की शरीर की ऊष्मा कम हो जाती है।
जब स्वेद स्रोतों में विकृति या अवरोध उत्पन्न हो जाता है, तो वह ऊष्मा शरीर के बाहर नहीं निकल पाती और त्वचा में हमको उस ऊष्मा की प्रतीति होती है।
स्वेद क्षय होने पर रोमकूप का अवरोध, त्वचा की रुक्षता, त्वचा का फटना, स्पर्श ज्ञान न होना तथा रोम पात होता है। अभ्यंग, व्यायाम, मद्य, निद्रा, स्वेद, निवात ग्रह, निवास एवं स्वेद द्रव्यों के सेवन से क्षीण स्वेद अपनी साम्यावस्था में आ जाता है।
स्वेद रोमच्युतिः स्तवधरोमता स्फुटनं त्व चः।[अ.द्व्.सू. 11.12]
व्यायामाभ्यञ्जन स्वेदमद्यैः स्वेदक्षयोभवान्।[अ.ह.सू. 13.33]
स्वेद की वृद्धि से त्वचा में दुर्गन्ध और कण्डू (खुजली) उत्पन्न होते हैं।
स्वेद (अतिवृद्धि) त्वचो दौर्गन्ध्यं कण्डूं च।[सु.सू. 15.15]
व्यायाम, धूप, शीत एवं उष्ण का व्यतिक्रम सेवन तथा क्रोध, शोक एवं भय के कारण स्वेद वह स्रोत दूषित होते हैं। स्वेद स्रोतों में दुष्टि होने से स्वेद का अवरोध, अतिस्वेद त्वचा की पोरुषता, त्वचा की अतिस्निग्धता, अंगों में दाह और लोम हर्ष ये लक्षण होते हैं।
(2). मूत्र  :: आहार का मल है। यह वह निःसार भाग है जो शिश्न के द्वारा द्रव रूप में प्रतिदिन शरीर के बाहर निकाला जाता है। आहार के परिपाक के परिणाम स्वरूप जो कीट भाग निमित्त होता है, वह दो भागों में विभक्त हो जाता है :- मूत्र और पुरीष।
पाचक पित्त की क्रिया से परिपक्व आहार सारभूत रस और कीट भूत असार मल के रूप में द्विधा विभक्त हो जाता है। मल दो प्रकार का होता है। घन और द्रव, घन मल पुरीष है तथा द्रव मूत्र अर्थात् पेशाब।
तत्राहार प्रसादाख्यो रसः किट्टं च मलारण्यमभिनिवर्तर्ते। 
किट्टात स्वेद मूत्र पुरीष पुष्यति॥[च. सू. 28.4]
सर्व शरीर में अनुवर्धन (संचरण) करता हुआ रक्त जब वृक्क को प्राप्त होता है। तो उसके आंत्र नामक स्रोत उसके अन्तर्गत और उचित से अधिक जल के अंश का निर्हरण कर वृक्क की ओर शोधनार्थ आगे बढ़ाते रहते हैं। यही निवृत्त द्रव मूत्र है।
यदान्त्रेषु गवीन्योर्यद वस्तावधि संश्रितम्। एवापि ते मूत्रम्॥[अथर्व वेद 11.3]
जल महाभूत की अधिकता मूत्र में होती है और उसमें उत्पन्न होने वाली तीव्र गन्ध पृथ्वी महाभूत के कारण होती है। तीक्ष्णता तथा क्षारीयता अग्नि महाभूत के कारण, स्पर्शगुण, वायु तथा शब्द आकाश के कारण होता है।
जल प्रधान होने के कारण कफ दोष, तीक्ष्ण होने के कारण पित्त दोष और गतिमान होने के कारण वायु दोष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध मूत्र से परिलक्षित है। इसका मुख्य स्थान बस्ति प्रदेश है और इससे सम्बन्धित अवयव वृक्क गवीनी और शिश्न हैं।
मूत्र आहार का मल होता है, जो सार कीट विभाजन के बाद पक्वाशय से वृक्क में आता है।
मूत्र के कार्य :: मुख्य दो कार्य हैं, शरीर को क्लेद युक्त रखना तथा बस्ति। बस्ति मूत्र का मुख्य स्थान है, जिसमें संचित होता रहता है और अपने प्राकृत कर्म के द्वारा बस्ति को एक क्षण के लिए भी खाली नहीं रहने देता अन्यथा बस्ति में वायु भरने से वात विकार उत्पन्न हो सकते हैं। इसीलिए बस्ति प्रदेश में कोई भी विकृति जब उत्पन्न होती है तो उसका कारण वायु का प्रकोप अवश्य होता है। क्योंकि और कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ मूत्र संचय हो सके।
"मूत्रस्य क्लेदवाहनम्" क्लेद का सामान्य अर्थ आर्द्रता होता है। मूत्र जलीय होने से शरीर में तथा मूत्रवह स्रोतों से सम्बन्धित अवयवों में आर्द्रता बनाये रखता है तथा शरीरगत विष पदार्थों को बाहर निकालता रहता है। मूत्र का क्षय होने पर वायु का प्रकोप होता है, जिससे प्रकुपित वायु तीव्र वेदना तथा अन्य विकारों को उत्पन्न करता है। क्षय होने पर बस्ति प्रदेश में सुई चुभने जैसी व्यथा, मूत्र की न्यूनता, मूत्र कृच्छ विवर्णता, अति तृष्णा और मुख शोष ये लक्षण होते हैं। यही लक्षण प्रोस्ट्रेट-पौरुष ग्रन्थि कैंसर के भी हैं। 
मूत्रक्षये वस्तितोदोऽल्पमूत्रता च पिपासा बाधते चास्य मुखं च परिशुष्यति।[च.सू.  17.71]
मूत्र क्षय होने पर ईख का रस, ताड़ी का रस, मधुर, अम्ल, लवण, रस युक्त पदार्थ तथा द्रव का सेवन करना चाहिए। मूत्र की वृद्धि होने पर अधिक मात्रा में स्राव, बार- बार मलत्याग की इच्छा बस्ति में व्यथा और आहमान ये लक्षण होते हैं।
मूत्रं (अतिवृद्ध) मुहुर्मुहुः प्रवृत्ति वस्तितोद माहमानं च।[ सु.सू. 15.15]
बढ़ा हुआ मूत्र बस्ति प्रदेश में व्यथा कष्ट आदि होती है।
मूत्रं तु बस्तिनिस्तोदं कृतेऽत्यकृत संज्ञताम्।[अ.ह.सू.स. 12]
मूत्र के वेग को रोकने से अंगों का टूटना, पथरी का बन जाना, बस्ति और वक्ष में वेदना होती है एवं कालान्तर में मूत्र से निस्सारित होने वाले विष पदार्थ नहीं निकल पाते हैं। वही पदार्थ पुनः रक्त में समावेशित होकर अनेकानेक रोगों का कारण बन जाते हैं।
(3). पुरीष :: भुक्त आहार का आमाशय, पच्यमानाशय और पक्वाशय में त्रिविध पाक होने के परिणाम स्वरूप जो निःसार भाग मलद्वार से बाहर निकलता है वह पुरीष कहलाता है।
पक्वाशय में स्थित अंश को भी मल की संज्ञा दी गई है, क्योंकि खाये हुए अन्न का जो परिपाक क्षुद्रान्त में होता है; उसके परिणाम स्वरूप प्रसाद भाग के रूप में आहार रस वहीं पर विभूषित होकर धमनियों और रसवाहीनियों के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में पहुँचा दिया जाता है। अवशिष्ट किट्ट भाग पक्वाशय में प्रवेश करता है, इस किट्ट भाग में जो स्नेह और क्लेद होता है, वह पक्वाशय में स्थित अग्नि के द्वारा परिपक्व एवं शुष्क कर दिया जाता है। जिसके कारण पक्वं में प्रवेश के समय जो किट्ट भाग द्रव रूप में था अब वह पक्व होकर पिण्ड रूप में हो जाता है, वह पुरीष संज्ञा को धारण करता है।
पक्वाशयं तु प्राप्तव्य शोष्यमाणस्य वायुना।
परिपिण्डित पक्वस्य वायुः स्याद कटुभावतः॥[च.चि. 15.11]
पुरीष के कटुरस होने से पक्वाशय में दूषित वायु का प्रादुर्भाव होता है और यह वायु अपान वायु होता है। पक्वाशय में स्थित पुरीष यद्यपि मल रूप होता है और निस्सार होने के कारण उसका अधिकांश भाग शरीर के बाहर निकाल दिया जाता है। इसके बाद भी उसका कुछ अंश पक्वाशय में रह जाता है, जिसके द्वारा वह शरीर को धारण करता है। पक्वाशय में पुरीष की समुचित मात्रा निश्चय ही शरीर की प्राकृतिक स्थिति में सहायक होती है। क्योंकि इसका क्षय या अधिक मात्रा में निर्गमन शरीर के लिए हानिकारक होता है। पक्वाशय या स्थूल में पुरीष धरा कला स्थित है, यह कोष्ठ में चारों ओर क्षुद्रान्त्र यकृत तथा प्लीहा के ऊपर रहती है। आहार का किट्टांश जो प्रथम दण्डुक में आता है उसे यह कला पुरीष मूत्र और वायु के रूप में विभक्त कर देती है।
पुरीष धरा कला के दो भाग :: उनका एक मूल गुदा में तथा दूसरा छोर पक्वाशय में होता है।
(1). पुरीषवहे द्वे तयोर्मूलं पक्वाशयो गुदं च।[सु.शा. 9.12]
(2). पुरीषवहानां स्रोतसां पक्वाशयो मूलं गूदे च॥[च.वि. 5.8]
पुरीष के क्षीण होने पर वायु शब्द के साथ आँतों को ऐंठते हुई सी उदर में घूमती है तथा हृदय और पार्श्व को अतिशय दबाती हुई उर्ध्वगमन करती है, जिससे हृदय और पार्श्व में अत्यन्त पीड़ा होती है।
पुरीषे वायुरन्त्राणि सशब्दो वेष्टयत्रिव।
कुक्षौ भ्रमति यात्थूर्ध्व हृदपार्श्व पीडयति भृशम्[अ.छ.]
पुरीष में वृद्धि होने पर कुक्षि में शूल, अन्त्रकूजन, आहमान तथा शरीर का भारीपन आदि होते हैं। अतिसंचय वायु के प्रकोप का कारण होता है। उदावर्त रोगों को भी उत्पन्न करता है। अग्निमय, अल्पता, अरुचि आदि होती है।
पुरीष का वेग रोकने से ऐंठन, प्रतिश्याय, सिरःशूल, उद्गार हृदयगति में अवरोध आदि विकार होते हैं।
प्राणियों का बल शुक्र के अधीन तथा जीवन मल के अधीन होता है। राजयक्ष्मा में अग्नि मंद होने से पोषक तत्त्व प्रायः मलरूप में परिणत हो जाते हैं। अतः मल की रक्षा-निष्कासन सावधानी से करने का निर्देश है।
तस्मात् पुरीषं संरक्ष्यं विशेषाद् राजलक्षिणः सर्वधातुक्षयतिस्य।[च.चि. 8]
पुरीष का क्षय होने पर अन्त्र हृदय और पार्श्व में पीड़ा ध्वनि गड़गड़ाहट के साथ वायु का ऊपर-नीचे निर्गमन आहमान आदि होते हैं।
पुरीषक्षये हृदयपार्श्वपीड़ा सशवदस्य च।
वायौरुर्ध्वगमनं कुक्षौ संचरण च॥[सु.स. 15.1]
पुरीष का क्षय प्रकृति वाले मनुष्यों के लिए अधिक कष्टदायक होता है। अष्टांग हृदय में पुरीषक्षय से उत्पन्न आयुर्वेद मतानुसार जो कलाएँ मानी गई हैं, उनमें एक पुरीषधरा कला भी है, जो पुरीष को धारण करती है और इसका मुख्य कार्य अन्तः कोष्ठ में स्थित मल का विभाजन करना है।
पुरीष के कार्य :: यह उपस्तंभ है अर्थात जो आधार रूप होता है। पुरीष शरीरगत वायु एवं अग्नि को भी धारण करता है।
पुरीष मुपस्तम्भं वारवाग्निधारणञ्च।[सु.सु. 15.4.2]
पुरीष में रुक्ष गुण वायु निकटता को बतलाने वाला है।
"अवष्टभ्य पुरीषस्थं"  पुरीष अवष्टभ्य (धारण) करने वाला होता है।[अष्टांग हृदय]
देह प्रकृति :: समग्र प्रकृति की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। मनुष्य उसी की एक इकाई है। प्रत्येक मनुष्य का शरीर भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार एवं परिमाण वाला होता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य में शारीरिक एवं मानसिक गुणों की दृष्टि से भी भिन्नता पाई जाती है। शुक्र, शोणित तथा गर्भवती के आहार-विहार, गर्भाशय एवं ऋतु दोष से बालक की प्रकृति बनती है।
मनुष्य का स्वभाव उसके शरीर की आकृति एवं उसके गुण आदि का स्वाभाविक रूप से जो निर्माण होता है, सामान्यतः उसे ही उसकी प्रकृति कहा जाता है।
प्रकरोति इति प्रकृतिः।  
प्रकृति शब्द मात्र मानव स्वभाव का बोधक है। अतः यहाँ इसे मनुष्य के स्वभाव, मानव शरीर का आकार-प्रकार एवं परिमाण के रूप में ही ग्रहण कर गया है।  
आयुर्वेद में भी मनुष्य के विशिष्ट शारीरिक स्वरूप एवं मानसिक स्वभाव को ही प्रकृति की संज्ञा प्रदान की है।
प्रकृति के भेद ::
(1). गर्भ शरीर प्रकृति और (2). जात शरीर प्रकृति। 
जात शरीर प्रकृति में गर्भ शरीर प्रकृति का निर्माण गर्भ धारण होने के समय ही हो जाता है और जात शरीर प्रकृति का निर्माण प्रसव होने के पश्चात् अथवा बालक का जन्म होने के बाद होता है।
दोषों का प्रकृति से सम्बन्ध :: गर्भ शरीर में प्रकृति का जो निर्माण होता है, उसका प्रभाव केवल गर्भकाल तक ही सीमित नहीं रहता, अपितु मनुष्य की आयु पर्यन्त वही प्रकृति उसके साथ रहती है। गर्भ शरीर प्रकृति का स्थायित्व इतना अधिक है कि बाद में अनेक प्रयत्न करने पर भी उसमें परिवर्तन सम्भव नहीं होता।
गर्भ शरीर प्रकृति का निर्माण करने में दोष ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। 
शुक्र शोणित संयोग यो भवेत् दोष उत्कट प्रकृतजायते तेन।[सु.शा.अ. 4]
शुक्र और शोणित के संयोग होने पर जिस दोष की अधिकता होती है, उसी के अनुसार प्रकृति का निर्माण होता है। 
शुक्रार्त्तवस्थैजन्मादौ विशेषेण विषक्रमेः,
तैश्च तिस्रः प्रकृतयोः हीनमध्योत्तमा पृथक।
समधातुः समस्तासु श्रेष्ठा निंधा द्विदोषजाः॥[वाग्भट्ट, अष्टांग हृदय सूत्र 1]
जिस प्रकार विष से विषकृमि उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार जन्म के समय में शुक्र और आर्तव में स्थित वात, पित्त, कफ़ से मनुष्यों की तीन प्रकृतियाँ बन जाती हैं।
ये प्रकृतियाँ वात से हीन, पित्त से मध्यम तथा कफ़ से उत्तम होती हैं। जब वात, पित्त, कफ़ ये तीनों समान होते हैं तो सम प्रकृति होती है। यह सम प्रकृति इन सब में श्रेष्ठ है तथा दो दोषों के संसर्ग से बनी प्रकृतियाँ निन्दित होती हैं शुक्र और शोणित के संयोग के समय दोष विशेष की अधिकता निम्न बातों पर आधारित होती है :-
(1). शुक्र शोणित काल की प्रकृति अर्थात् उस समय दोष विशेष का आधिक्य। उस समय ऋतु अहोरात्र आदि काल में संचित या प्रकुपित दोष का  प्रभाव भी तत्कालीन गर्भ को प्रभावित करता है।
(2). शुक्र शोणित संयोग के समय तत्कालीन गर्भाशय की प्रकृति, प्रभाव अथवा उस समय गर्भाशय में स्थित दोष का प्रभाव गर्भ के ऊपर पड़ता है।
(3). शुक्र शोणित संयोग के पहले माता के आहार-विहार की प्रकृति या उसके कारण उत्पन्न दोष का प्रभाव गर्भ पर पड़ता है।
(4). शुक्र शोणित के संयोग के समय तत्कालीन पंचमहाभूतों की प्रकृति का प्रभाव गर्भ शरीर पर पड़ता है।
(5). शुक्र शोणित के संयोग के समय तत्कालीन मानसिक स्थिति का गर्भ शरीर की प्रकृति को प्रभावित करती है।
उपर्युक्त समस्त प्रकार की स्थिति और वातावरण के अनुसार जिस दोष की बहुलता होती है उसी के अनुसार गर्भ शरीर की प्रकृति का निर्माण होता है। दोषों की न्यूनाधिकता के कारण ही मनुष्यों की प्रकृति में भिन्नता पाई जाती है। इसलिए दोषों को प्रकृति के मूल कारण के रूप में मानने से इनकार नहीं किया जा सकता।
प्रकृति के प्रकार :: आयुर्वेद के अनुसार दोषों द्वार निमित्त होने वाली प्रकृति को सात प्रकार में विभाजित किया गया है।
''सप्त प्रकृतयोः भवन्ति दोषेः पृथग द्विशः समस्तैश्च''
(1). पृथक दोषों से उत्पन्न प्रकृति तीन प्रकार की होती है :- वातज, पित्तज, कफज।
(2). संसर्ग जन्य या द्वन्द्वज :- दो दोषों के संयोग से यह भी तीन प्रकार की होती है।
(3). सन्निपातिक प्रकृति :- इसका निर्माण तीनों दोषों की समानता से होता है।
इस प्रकार दोषों द्वारा सात प्रकार की प्रकृति का निर्माण होता है। इन सात प्रकार की प्रकृतियों में समान दोष वाली प्रकृति श्रेष्ठ मानी जाती है।
विषजातो यथा कीटों न विषेण विपद्यते।
तद्यत प्रकृतयो भर्त्यन शक्नुवन्ति बाधितुम॥
जिस प्रकार विष में उत्पन्न हुआ कीड़ा विष के द्वारा विपत्ति को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति भी मनुष्य को बाधित करने में समर्थ नहीं है।
(1). श्लैष्मिक प्रकृति के लक्षण :: शेष्मा, स्निग्ध, श्क्ष्ण, मृदु, मधुर, सान्द्र, मंद, स्थिर, स्तम्भित, गुरु, शीत, पिच्छिल और अच्छे गुण प्रधान होता है। इन गुणों के कारण शेष्मा प्रकृति वाले पुरुष स्निग्ध अंग वाले, श्क्ष्ण अंग वाले, गौर वर्ण वाले, अधिक शुक्रयुक्त, व्यवसाय सक्षम और अधिक संतान वाले, सुगठित और स्थिर शरीर वाले, मंद चेष्टा, आहार-विहार वाले, परिपुष्ट और सम्पूर्ण अंग वाले, विलम्ब पूर्वक आरम्भक, क्षोभ और विकार वाले, सारवत स्थिति वाले, अल्प क्षुधा, अल्प सन्ताप और अल्प स्वेद वाले चिकनी और सुगठित सन्धिवाले, प्रसन्न मुख, स्निग्ध वर्ण और मधुर स्वर वाले तथा क्षमाशील, भाग्यवान, कृतज्ञ, स्थायी स्वभाव वाले, श्रद्धालु, गुरु परम्परा को मानने वाले सरल स्वभाव के मनुष्य होते हैं।[चरक]
(2). पित्त प्रकृति के लक्षण :: पित्त सामान्यतः उष्ण, तीक्ष्ण, विस्र, अम्ल और कटु गुण प्रधान होता है। इन गुणों के आधार पर पित्त प्रकृति वाले मनुष्य उष्ण गुण के कारण गर्मी को सहन न करने वाले, ऊष्ण मुख तथा सुकुमार शरीर वाले, अत्यधिक मस्सा और तिल वाले, पिडि़काओं से युक्त अधिक भूख और प्यास वाले, शीघ्र ही बालों का झड़ना, बालों का सफेद होना, बालों पर रूसी पड़ जाना आदि दोषों से युक्त और प्रायः कोमल अल्प कपिल श्मश्रु लोम केश वाले होते हैं। इनकी मध्यम, आयु, मध्यम बल से अनूदित तथा झंझटों से दूर, क्रोध के कारण इनका चेहरा शीघ्र ही तमतमा जाता है। पित्त के तीक्ष्ण गुण के कारण पित्त प्रकृति वाले मनुष्य तीव्र पराक्रम वाले, तीक्ष्ण अग्नि वाले, अधिक भोजन करने वाले तथा सभी कष्टों को सहन करने वाले होते हैं। पित्त के द्रव गुण के कारण मृदु सन्धि और माँस वाले अधिक स्वेदादि विसर्जन करने वाले इस प्रकार विभिन्न गुणों के योग से पित्त प्रकृति वाले मनुष्य मध्यम बल वाले, मध्यम आयु वाले, मध्यम ज्ञान-विज्ञान वाले, मध्यम पित्त वाले तथा मध्यम साधन वाले होते हैं।
(3). वात प्रकृति के लक्षण :: वात के गुणों के आधार पर मनुष्य में प्रकृति का निर्माण होता है। वायु सामान्यतः रुक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल विशद और खर गुण वाला होता है। वायु की रुक्षता के कारण वात प्रकृति वाले मनुष्य रुक्ष, अल्प और दुर्बल शरीर वाले, रुक्ष, कर्कश, भिन्न और जर्जर स्वर वाले तथा जागरूक होते हैं। पर प्रायः कद में लम्बे, बातुल (बढ़ा-चढ़ाकर बात करने वाले) स्वप्नों के संसार में जीवित रहते हैं। चल गुण के कारण अवस्थित सन्धि अक्षि, भू, कर्ण, ओष्ठ, जिह्वा, सिर, कन्धे और हाथ-पैर वाले होते हैं। बहल गुण होने के कारण अधिक प्रलाप वाले। शीघ्र कुपित होने वाले शीघ्र प्रसन्न होने वाले, सुनी हुई बात को ग्रहण करने वाले और अल्प स्मृति वाले होते हैं, स्फुटित अंग अवयव वाले सदैव सन्धियों के शब्द को सुनने वाले मनुष्य होते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त गुणों के योग से वात प्रकृति वाले मनुष्य प्रायः अल्प बल वाले, अल्पायु, अल्प सन्तान वाले, अल्पधन साधन वाले होते हैं। इस प्रकार दोषों की प्रधानता के कारण प्रकृति का निर्माण होता है। इसमें वात प्रकृति हीन, पित्त प्रकृति मध्य तथा शेष्म प्रकृति मनुष्यों की उत्तम प्रकृति होती है।
अग्नि :: शरीर की चयापचय और पाचन गतिविधि के सभी प्रकार शरीर की जैविक आग की मदद से होती हैं, जिसे अग्नि कहा जाता है। अग्नि को आहार नली, यकृत तथा ऊतक कोशिकाओं में मौजूद एंजाइम के रूप में कहा जा सकता है।
देहाग्नि की महत्ता :: मनुष्य के शरीर की आयु, वर्ण, बल, स्वस्थता, उत्साह, शरीर की वृद्धि, कान्ति, ओज, तेज, अग्नियाँ और प्राण ये सभी देह की अग्नि (पाचक अग्नि) के प्रबल होने पर ही स्थिर रहते हैं। यदि जठराग्नि शान्त हो जाये (नष्ट हो जाय) तो मनुष्य की मृत्यु हो जाती है और जठराग्नि में विकृति आ जाय तो मनुष्य रोगी हो जाता है। इसलिये अग्नि को आयु, वर्ण, बल आदि का मूल कहा गया है।
अग्नि के 13 प्रकार :: (1). पाचकाग्नि या जठाराग्नि, (2). सात धातवाग्नि और (3). पाँच भूताग्नि।  
अग्नि के कार्य :: प्रतिक्षण, शारीरिक धातुओं का क्षय होता रहता है। उस क्षय की पूर्ति के लिये आहार की आवश्यकता होती है। जब आहार द्रव्य पाचकाग्नि द्वारा पचित होता है, तब रस धातु का निर्माण होता है और इसके बाद धातुओं की सात धात्वाग्नियों द्वारा पाचन होकर पोषण रूप बनता है, जिनके द्वारा शरीर का पोषण आयु, बल, वर्ण, कान्ति आदि की स्थिति बनी रहती है। किन्तु जब पाचकाग्नि में ही विकृति आ जाती है तो विकृत रस के निर्माण होने पर सभी धातुएँ विकृत हो जाती है।
जठाराग्नि का महत्त्व :: जो अन्न शरीर धातु, ओज, बल और वर्ण आदि का पोषक है उसमें अग्नि (जठाराग्नि) ही प्रधान कारण है, क्योंकि अपच आहार से इस आदि धातुओं की उत्पत्ति उचित रूप से नहीं हो पाती।
जठाराग्नि के कार्य :: खाये हुये आहार को आदान कर्म (ग्रहण करने वाली) प्राण वायु कोष्ठ (आमाशय) में ले जाती है। आमाशय में जब अन्न प्रविष्ट हो जाता है तो आमाशयस्थित द्रव (क्लेदल कफ़) द्वारा उसका संघात (कड़ापन) छिन्न-भिन्न हो जाता है तथा क्लेदल कफ़ में वर्तमान स्नेहांश से वह आहार कोमल हो जाता है। फिर समान वायु से प्रेरित उदर की अग्नि (पाचकाग्नि) प्रबल होकर उचित समय पर सम मात्रा में खाये गये उस अन्न को आयु आदि की वृद्धि के लिये उचित रूप से पकाती है। जिस प्रकार एक पात्र में चूल्हे के ऊपर रखा हुआ जल और चावल को पकाकर बाह्याग्नि भात को पकाती है। उसी प्रकार आमाशय में रहने वाले आहार को आमाशय के अन्धःप्रदेश में रहने वाली पाचकाग्नि उचित रूप में पकाकर रस एवं मल को उत्पन्न करती है।
भूताग्नि का कार्य :: भोजन द्रव्य पंचभौतिक है। फिर भी जिसमें पार्थिव गुण अधिक होते है उन्हें पाथव कहते हैं। इस प्रकार पाथव आहार पाथवोष्मा, आप्य आहार की आप्योष्मा, आग्नेय आहार की आग्नेयोष्मा, वायवीय आहार की वायोष्मा और नाभस आहार की नाभोष्मा, शरीर के पाँच प्रकार की ऊष्माओं की अर्थात् पंचभौतिक देह की पाथवोष्मा को पंचभौतिक आहार की पंचभौतिक आहार की आपोष्मा, पंचभौतिक शरीर की आप्योष्मा को, पंचभौतिक आहार की आग्नेयोष्मा पंचभौतिक देह की आग्नेयोष्मा को, पंचभौतिक आहार की वायव्योष्मा पंचभौतिक देह की वायव्योष्मा को तथा पंचभौतिक आहार की नाभयोष्मा पंचभौतिक देह की नाभयोष्मा को पुष्ट करती है। अतः इस पंचभौतिक देह द्रव्य का पोषण पंचभौतिक आहार (भोजन) द्रव्य से होता है। पोषण का क्रम यह है कि वह पंचभौतिक आहार द्रव्य में जो पाथव आहार है, वह देह के पाथव का और जो आप्य द्रव्य है, वह शरीर के आप्य अंश का पोषण या वृद्धि "सर्वदा सवर्ण भावानां सामान्यं वृद्धि कारणम्" के नियम से करता है। इस प्रकार पाथवादि आहार द्रव्य का पाचन या पोषण होने के बाद वह आहार द्रव्य शरीर के अनुकूल हो जाता है और आहार रस की उत्पत्ति होती रहती है।
इस रस से फिर क्रमशः रस इत्यादि धातुओं की अपनी-अपनी अग्नियों द्वारा पाचन होता है और इन धात्वाग्नियों द्वारा पाचन होने के बाद वह रस उस धातु के सात्म्य हो जाता है और उस धातु में मिश्रित हो जाता है या शोषित कर लिया जाता है। इस प्रकार क्रमशः सभी धातुओं की या एक ही बार पाचन होने पर उस धातुओं की वृद्धि होती जाती है।
पाचकाग्नि ::  क्रियाशील दीपन-पाचन स्राव, जीवन रसायन धर्म या आग्नेय द्रव्य तथा इनके साथ-साथ सदा विद्यमान ऊष्मा, इन सबको समवेत रूप में पाचकाग्नि कहा गया है।[महास्त्रोतस्]
इसके द्वारा होने वाले अग्निकर्म (जीव रसायन क्रिया) का विशेष महत्त्व प्रतिपादित करते हुये इसे पाचनकर्म करने वाली अग्नि (पाचकाग्नि) कहा है।[धान्वन्तर सम्प्रदाय]
इसी के भौतिक-आग्नेय द्रव्यमय रूप को यथायोग्य निर्धारित करने के लिए इसे पचाने वाला प्राणिज द्रव्य विशेष पाचक-पित्त कहकर सम्बोधित किया है।[आग्नेय सम्प्रदाय]
यह दोनों एक ही हैं और पाचक पित्त ही पाचकाग्नि है।
रसाग्नि :: रस धातु में स्थित पित्तोष्मा को रसाग्नि कहा गया है। रसाग्नि से वे पाचनांश और ताप अभिप्रेत है जो देहपोषक रस में रहते हुये कुछ निश्चित रासायनिक क्रियायें सम्पन्न करते है। ये पाचनांश और इनकी क्रियाओं के लिए अपेक्षित ताप, इन दोनों का समवेत रूप रसाग्नि है। जब अन्नरस में नाना भौतिक आहार द्रव्यों के साथ-साथ गयी हुई भूताग्नियाँ, पाचकाग्नि के प्रभाव से प्रदीप्त होकर, उस अन्नरस को देह धातुओं का सजातीय बना देती हैं, तब वह अन्नरस देह पोषक रस कहलाता है।
रसाग्नि कर्म और इसके परिणाम :: रसाग्नि या रसगत पाचनांश और ऊष्मा का क्रिया क्षेत्र देह पोषक रस या रस धातु है। रसाग्नि शब्द से अभिहित पूर्वोक्त पाचन द्रव्य रस धातु पर विविध अग्निकर्म या रासायनिक क्रियाए करते हैं। इन रस धातुगत रसायनिक क्रियाओं के या रसाग्नि कर्म के परिणाम स्वरूप देह पोषक रस के प्रसाद धातु और किट्ट ये तीन रूपान्तर हो जाते हैं। प्रसाद रूप वह, जो कालान्तर में रस उत्कृष्टतर धातु रक्त या रुधिर का रूप ग्रहण कर लेता है, धातु रूप वह है जो स्वरूप में स्थायी रस धातु के रूप में परिणत होता है और किट्ट रूप वह जिसे स्थूल शेष्मा कहते हैं। रक्ताग्नि आहार द्रव्यों से उत्पन्न अन्नरस जब देह जातीय बनकर रसाग्नि पाक के उपरान्त रस धातु बन जाता है और रक्त में मिश्रित होकर तद्रूप हो लेता है तब इसका रक्ताग्नि से पाक होता है।
रक्ताग्नि :: रक्तगत पित्तोष्मा है अर्थात् रक्त में विद्यमान भिन्न-भिन्न प्रकार के पाचनांश और उनकी क्रियाओं के लिए आपेक्षित ताप का समवेत रूप रक्ताग्नि कहा जा सकता है।
रक्ताग्नि के कार्य :: रक्ताग्नि द्वारा रक्त का पाक कुछ काल तक होता रहता है और इसके प्रसाद, धातु और किट्ट तीन प्रकार के अंशों का प्रादुर्भाव होता है। प्रसाद-रूप अंश से उत्तर धातु मास के उपादान बनते हैं। धातु रूप भाग वह लाल रक्त, श्वेत रक्त और चक्रिकाओं के रूप में यकृत, प्लीहा, मज्जा के भीतर प्रस्तुत होता है। किट्ट भाग से पित्त की उत्पत्ति होती है जो लोहित कणों के टूटने और रक्त रंजक के विघटित होने पर पतले रंजक द्रव्य में तदनन्तर यकृत पित्त स्राव के रूप में परिणत होकर अन्त्र के भीतर परिस्रुत होता रहता है।
माँसाग्नि, रसाग्नि और रक्ताग्नि के समान माँसाग्नि भी माँसगत पित्तोष्मा है अर्थात् यह विशिष्ट प्रकार के पाचनांशों और उनकी क्रियाओं के लिए अपेक्षित ताप का समवेत रूप है।
साम-निराम :: साम शब्द का अर्थ होता है आम सहित और निराम शब्द का अर्थ होता है आम रहित। तीन दोष अथवा कोई एक दोष जब आम से युक्त होता है तो उसे साम दोष कहते हैं।
आम युक्त दोष :: विकृतावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और वे व्याधि को उत्पन्न करते हैं, वही दोष जब आम से रहित होता है तो निराम कहलाता है। निराम दोष समानतया प्राकृत या अविकृत दोषों को कहा जाता है। इस प्रकार दोषों की साम अवस्था विकारोत्पादक और निराम अवस्था विकार शामक होती है।
जठाराग्नि अथवा धात्वाग्नि की दुर्बलता के कारण अन्न तथा प्रथम धातु अर्थात रसधातु या आहार रस का समुचित रूप से पाक न होने के कारण अपक्व रस उत्पन्न होता है, यह अपक्व रस ही आम कहलाता है।
आम के दो प्रकार :: (1). अपक्व अन्न रस, (2). धात्वाग्नियों की दुर्बलता से अपक्व रस धातु।
प्रथम जठाराग्नि की दुर्बलता से अवस्था में आम की उत्पत्ति होती है। यह आमोत्पत्ति की अवस्था आमाशय गत होती है। दूसरी अवस्था धात्वाग्नि की दुर्बलता के कारण रस रक्तादि धातुओं के परिपाक में होती है। यह आमोत्पत्ति धातुगत होती है। इस आम को आमविष भी कहते हैं। यही आम दोषों के साथ संयुक्त होकर विकारों को उत्पन्न करता है। यह सभी दोषों का प्रकोपक होता है। अपक्व अन्नरस में सड़न होने से यह शुक्तरूप अर्थात सिरका की तरह होकर विषतुल्य हो जाती है :-
जठराग्नि दौर्बल्यात् विपक्वस्तु यो रसः।
स आम संज्ञको देहे सर्वदोष प्रकोपणः
अपच्यमानं शुक्तप्वं यात्यन्नं विषरूपताम्॥[च.चि. 15.44]
अग्नि की मन्दता के कारण आद्य अपचित धातु जो दूषित अपक्व होकर आमाशय में रहता है वह रस आम कहलाता है :-
उष्मणोऽल्पबलत्वेन धातु माद्यमपचितम्
दुष्टमानाशयगतम् दुष्टमानाशयगतं रसमामं प्रचक्षते। [अ.छ्र.सू. 13.25]
साम लक्षण :: अपक्व अन्नरस किंवा अपक्व प्रथम रस धातु से मिले हुए दोष यथा वात, पित्त, कफ़ और दूष्य यथा रक्तादि धातु-साम कहे जाते हैं और इनसे उत्पन्न रोगों को सामरोग कहा जाता है जैसे :-
सामज्वर, सामातिसार, आमेन तेन सम्प्रक्ता दोषाः दुष्यश्च दूषिता।
सामादुत्युपदिश्यन्ते येष रोगास्तदृदभषाः[अ.छ.सू. 13.27]
साम व्याधि :: आलस्य, तंद्रा, अरुचि, मुखवैस्य, बेचैनी, शरीर में भारीपन, थकावट और अग्निमांध आदि साम रोग के लक्षण हैं।
निराम व्याधि :: शरीर में हल्कापन, इन्द्रियों की प्रसन्नता, आहार में रुचि और वायु का अनुलोमन होने पर रोग को निराम जानना चाहिये।
अन्न रस जब तक आमाशय में रहता है तब तक उसका शरीर में ग्रहण होना सम्भव नहीं होता। वह विशेषकर उदर प्रदेश में ही विभिन्न विकृतियाँ अजीर्ण आदि उत्पन्न करता है। परन्तु इसके सड़ने से उत्पन्न विषद्रव्यों की आंत्रों द्वारा ग्रहण होता है। ग्रहीत होकर ये विष द्रव्य शरीर में पहुँचते हैं और अनेक विकारों को पैदा करते हैं।
धात्वाग्नियों के दौबर्ल्य वश स्वयं धातुओं में भी रसधातु आमावस्था में रहता है, जिससे उत्तरोत्तर धातुओं की पुष्टि नहीं होती जिसके कारण अपोषण जनित विकारों का जन्म होता है।
साम दोष लक्षण :: स्वेद मूत्रादि स्रोतों का अवरोध, बल की हानि, शरीर में भारीपन, वायु का ठीक से न होना, आलस्य, अजीर्ण, थूक या दूषित कफ अधिक निकलना, मल का अवरोध, अरुचि, क्लम अर्थात् इन्द्रियों की अपने विषयों में अप्रवृति और श्रम मालूम होना, ये साम दोषों के लक्षण है :-
स्रोतोवरोध बलभ्रशं गौरवानिल मूढ़ता आलस्यपक्तिनिष्टीव 
मलसङ्गा रुचि क्लमाः लिङ्ग मलानां समानाम्।[अ.हृ.सू. 13.23] 
निरामदोष लक्षण :: स्रोतों का प्राकृत रूप से कार्य करना, बल का ह्रास न होना, शरीर में हल्कापन, स्फूर्ति, समाग्नि, विषबन्ध न होना, आहार में रूचि और थकावट की प्रतीति न होना, ये निरामदोष के लक्षण होते हैं :- 
"निरामाणं विपयर्यः" [अ. ह.]
सामवात के लक्षण :: विबन्ध-अग्नि मांद्य, तन्द्रा, आँतों में गुड़गुड़ाहट, अंगवेदना, अंगशोथ, कटि पाश्वार्दि में पीड़ा, उरुस्तम्भ, स्तैमित्य, आरोचक, आलस्यादि सामवायु के लक्षण होते हैं । वायु की वृद्धि होने पर समस्त शरीर में संचरण करता है तथा परिस्थिति अनुसार एकांग या सर्वांग में विकार उत्पन्न करता है ।
निराम वायु लक्षण :: निरामवायु विशद रुक्ष, विबन्ध रहित और अल्पवेदना वाला होता है तथा विपरीत गुणोपचार से शान्त होता है।
निरामो विशदोरुक्षो निविर्न्धोऽल्पवेदनः
विपरीत गुणैःशान्ति स्निग्धैयार्ति विशेषतः।[अ.छ.सू. 13]
सामपित्त के लक्षण :: सामपित्त दुर्गन्ध युक्त हरित या इषत कृष्ण अम्ल स्थिर अर्थात् जल में न फैलने वाला अम्लोद्गार, कण्ठ और हृदय में दाह उत्पन्न करने वाला होता है।
'दुगर्न्धं हरितंश्यावं पित्तमम्लं घनं गुरू
अम्लीकाकण्ठहृद्दाहकरं सामं विनिदिर्शेत्।[अ. छ.]
निराम पित्त के लक्षण :: किन्चित् ताम्रवणर् या पीतवर्ण, अतिउष्ण, तीक्ष्ण, तिक्तरस, अस्थिर, गन्धहीन तथा रुचि अग्नि एवं बल का वधर्क होता है।
साम कफ के लक्षण :: अस्वच्छ ततुंओं से युक्त सान्द्र कण्ठ को लिप्त करने वाला दुगर्न्धयुक्त भूख और डकार को रोकने वाला होता है।
निराम कफ लक्षण :: फेन वाला, पिण्ड रूप अर्थात् जिसमें तंतु नहीं होते, हल्का गन्धहीन एवं मुख को शुद्ध करने वाला होता है।
रस (षट्रस) :: वस्तुतः मनुष्य जो भी खाद्य पदार्थ एवं वस्तुएँ ग्रहण करते हैं, उनमें से जिस स्वाद का ज्ञान जिह्वा के द्वारा होता है, उसे ही रस कहते हैं।
"रसानार्थो रसः" [च.सू.अ. 1]
इस उक्ति के अनुसार शब्द, स्पर्श, रूप आदि अन्य इन्द्रियों के अर्थों के समान रस जिह्वा इन्द्रिय का अर्थ है, क्योंकि रस का निश्चय जिह्वा पर पड़ने से ही होता है। इसलिए इसकी रस संज्ञा होती है तथा रसेन्द्रिय के विषय को रस कहते हैं।
रसेरन्दि्र्यग्राह्यो योडर्थः स रसः। [शि.]
रसस्तु रसनाग्राह्यो मधुरादिरनेकधा।  [का.]
जिस गुण का रसना के द्वारा ग्रहण होता है व रस कहलाता है। मधुर अम्ल आदि में पृथक वैशिष्ट्य होने पर भी सारतत्त्व सब में समान रूप से रहता है, अतः ये रस कहलाते हैं।
रस और उनका आश्रय :: द्रव्य में रहने वाले मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय ये छः रस हैं तथा इसमें जो रस जिस रस के पूर्व में रहता है, वह उससे बलवान होता है अर्थात् रसों की पहचान जीभ के ग्रहण करने पर ही होती है यथा स्वाद से जैसी प्रतीति होती है, मधुर, अम्ल, लवण या मीठा खट्टा नमकीन आदि।
रसा स्वादाम्ललवणतिक्तोष्ण कषायकाः
षड् द्रव्यमाश्रितास्ते च यथापूर्व बलावहाः।[अ.स.सू.अ. 1]
छः रस :: 
रसास्वात् षट् मधुराम्ललवण कटु तिक्त कषाय।[च.चि. 1]
मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय।
इन्हें सामान्य बोलचाल की भाषा में क्रमशः मीठा, खट्टा, नमकीन, कडुआ, तीता और कसैला कहते हैं। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं :-
मधुर :: गुड़, चीनी, घृत, द्राक्षा आदि।
अम्ल :: इमली, नीबू, चांगेरी।
लवण :: सैधंव समुद्र लवण आदि।
कटु :: निम्ब, चिरायता, करेला आदि।
तिक्त :: मरीच, लंका (लाल मिर्च) पिप्पली।
कषाय :: हरीतकी, बबूल, घातकी।
रसों की संख्या के विषय में आचार्य कठोरता वादी हैं और उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। इसलिए रस छः ही हैं, न कम न अधिक। यद्यपि रसों की सँख्या के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं, परन्तु मान्य छः रस ही हैं।
रसों का पञ्च भौतिकत्व :: द्रव्य के समान रस भी पंचभौतिक हैं। जल तो मुख्य रूप से और पृथ्वी जलवायु प्रवेश के कारण अप्रत्यक्ष रूप से रस का समयवी कारण है। इसके अतिरिक्त आकाश, वायु और अग्नि ये तीन महाभूत रस की सामान्य अभिव्यक्ति तथा वैशिष्ट्य में निमित्त कारण होते हैं। इस प्रकार पाँचों महाभूत रस के कारण तथा सम्बद्ध है। द्रव्य और रस दोनों पंचभौतिक होने के कारण द्रव्य अनेक रस होते हैं। वस्तुतः रस जलीय है और पहले अव्यक्त रहता है, वही एक आप्य रस काल के छः ऋतुओं में विभक्त होने के कारण पंचमहाभूतों के न्यूनाधिक गुणों से विषम मात्रा में विदग्ध होकर मधुर आदि भेद से अलग छः प्रकारों में परिणत हो जाता है। अतः रसों की उत्पत्ति पंचमहाभूतों के द्वारा ही होती है।
तत्र भूजलयोबार् छुयान्मधुरो रसः। भूतेजसोरम्लः जलतेज सोलवर्णः। वाय्वा काशयोस्तिक्तः। वायु तेजसोः कटुकः। वायुव्योर् कषायः।
(1). मधुर :: जल + पृथ्वी। 
(2). अम्ल :: पृथ्वी + अग्नि [चरक, वृद्धवाग्भट और वाग्भट], जल + अग्नि [सु.]।
(3). लवण :: जल + अग्नि [चरक, वाग्भट], पृथ्वी अग्नि [सुश्रुत], अग्नि जल [नागार्जुन]।
(4). कटु :: वायु + अग्नि। 
(5). तिक्त :: वायु +आकाश। 
(6). कषाय :: वायु + पृथ्वी
महाभूत की न्यूनाधिकता ऋतुओं के अनुसार होती है और उसके कारण विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न रसों की उत्पत्ति होती है।
"ऋतु महाभूताधिक्य रसोत्पत्ति"
(1). शिशिर :: वायु आकाश-तिक्त। 
(2). वसन्त :: वायु पृथिवी-कषाय। 
(3). ग्रीष्म :: वायु अग्नि-कटु। 
(4). वर्षा :: पृथिवी अग्नि-अम्ल। 
(5). शरत :: जल अग्नि-लवण। 
(6). हेमन्त :: पृथिवी जल-मधुर। 
रस के भेद :: 
(1). मधुर रस लक्षण :: मधुर रस जिह्वा में डालने पर पैछित्य संयोग से मुँह मे लिपट जाता है, जिससे इन्द्रियों में प्रसन्नता होती है। गुण भी माधुर्य, स्नेह गौरव, सव्य और मार्दवं है। अतः मधुर रस कफ वर्द्धक है, इसके सेवन से शरीर में सुख की प्रतीति होती है, जो भ्रमर कीट मक्खी आदि को अत्यन्त प्रिय होता है। मूत्र के साथ शर्करा जाती है, जो मधुमेह का एक कारण है।
कार्य :: शरीर के सभी धातुओं को बढ़ाता है तथा धातुओं के सारभूत ओज की वृद्धि करने के कारण यह बल्य जीवन तथा आयुष्य भी है। शरीर पोषक- पुष्टि कारक एवं जीवन प्रद है।
(2). अम्ल रस लक्षण एवं कार्य :: जिससे जिह्वा में उद्वेग होता है, छाती और कण्ठ में जलन होती है, मुख से स्राव होता है, आँखों और भौहों में संकोच होता है, दाँतों एवं रोमावली में हर्ष होता है। अम्ल, रस, वायु नाशक तथा वायु को अमुलोमन करने वाला पेट में विदग्ध करने वाला, रक्त पित्त कारक, उष्णवीर्य, शीत स्पर्श, इन्द्रियों में चेतनता लाने वाला होता है।
(3). लवण रस लक्षण :: जो मुख में जल पैदा करता है, कण्ठ और गालों पर लगने से जलन सी होती है और जो अन्न में रुचि उत्पन्न करता है, उसे लवण रस कहते हैं।
कार्य :: लवण रस जड़ता को दूर करने वाला, काठिन्य नाशक तथा सब रसों का विरोधी, अग्नि प्रदीप रुचि कारक, पाचक एवं शरीर में आर्द्रता लाने वाला, वातनाशक, कफ़ को ढीला करने वाला गुरु स्निग्ध तीक्ष्ण और उष्ण है। लवण रस नेत्रों के लिए अवश्य है, सैन्धव लवण अहितकारी नहीं।
(4). तिक्त रस लक्षण एवं कर्म :: जो मुख को साफ करता है, कण्ठ को साफ करता है तथा जीभ को अन्य रसों को ग्रहण करने में असमर्थ बना देता है, उसे तिक्त रस कहते हैं।
तिक्त रस स्वयं अरोचिष्णु, अरुचि, विष कृमि, मूर्च्छा, उत्क्लेद, ज्वर, दाह, तृष्णा, कण्डू आदि को हरने वाला होता है। रुक्ष-शीत और लघु है, कफ़ का शोषण करने वाला दीपन एवं पाचन होता है।
(5). कटु रस लक्षण एवं कर्म :: जो बहुत चरपरा होता है, जीभ के अग्र भाग में चरचराहट पैदा करता है। कण्ठ एवं कपोलों में दाह पैदा करता है। मुख, नाक, आँखों में जिसके कारण पानी बहने लगता है और जो शरीर में जलन पैदा करता है उसे कटु रस कहते हैं।
दीपेन पाचन है। उष्ण होने से प्रतिश्याय कास आदि में उपयोगी है। इन्द्रियों में चैतन्य लाने वाला, जमे हुए रक्त को भेदकर विलयन करने वाला होता है।
(6). कषाय रस लक्षण एवं कर्म ::  जीभ में जड़ता लाता है। कण्ठ को रोकता है, हृदय में पीड़ा करता है, वह कषाय रस है। स्तम्भन होने के कारण रक्तपित्त अतिसार आदि में ये द्रव पुरीष तथा रक्तादि को रोकने के लिए उपयोगी है। शीतवीर्य, तृप्तिदायक, व्रण का रोपण करने वाला तथा लेखन है।
हरे वृक्ष काटना निषेध ::
मा काकम्बीरमुद वृहो वनस्पतिमशस्तीर्वि हि नीनश:। 
मोत सूरो अह एवा चन ग्रीवा आदधते वे॥
किसी मनुष्य को श्रेष्ठ वृक्ष वा वनस्पति न नष्ट करने चाहिए, किन्तु उनमें जो दोष हो उनका निवारण करके इन्हें उत्तम सिद्ध करना चाहिए। हे मनुष्यो! जैसे श्येन-बाज पक्षी और पखेरूओं की गर्दनें पकड़ कर घोंटता है, वैसे किसी को दु:ख न दो।[ऋग्वेद 6.48.17]     


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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

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