AUTHOR OF ASTROLOGY-BHRAGU भृगु संहिता के रचयिता-भृगु :: BASICS OF ASTROLOGY

AUTHOR OF ASTROLOGY-BHRAGU
भृगु संहिता के रचयिता-भृगु 
BASICS OF ASTROLOGY
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj 
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ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु :: वेद-पुराणों में भगवान् ब्रह्मा के मानस पुत्रों का वर्णन है। वे दिव्य सृष्टि के अंग थे। महाप्रलय, भगवान् ब्रह्मा जी के दिन-कल्प की शुरुआत में उनका उदय होता है। वेदों, पुराणों इतिहास को वे ही पुनः प्रकट करते हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु का श्रुतियों में विशेष स्थान है। उनके के बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। उन्हें भगवान् विष्णु के श्वसुर और भगवान् शिव के साढू के रूप में भी जाना जाता है। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान प्राप्त है।
 भृगु की  तीन पत्नियाँ :: ख्या‍ति, दिव्या और पौलमी। पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो दक्ष कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता (काव्य शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा) तथा एक पुत्री श्री लक्ष्मी का जन्म हुआ। घटनाक्रम एवं नामों में कल्प-मन्वन्तरों के कारण अंतर आता है। [देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद् भागवत] लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान् विष्णु से कर दिया था।
आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। 
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।
दूसरी पत्नी पौलमी :: उनके ऋचीक व च्यवन नामक दो पुत्र और रेणुका नामक पुत्री उत्पन्न हुई। भगवान् परशुराम महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ऋषि ऋचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। रेणुका का विवाह विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) से किया।
जब महर्षि च्यवन उसके गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में एक दिन अवसर पाकर दंस (पुलोमासर) पौलमी का हरण करके ले गया। शोक और दुख के कारण पौलमी का गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह च्यवन (गिरा हुआ) कहलाया। इस घटना से दंस पौलमी को छोड़कर चला गया, तत्पश्चात पौलमी दुख से रोती हुई शिशु (च्यवन) को गोद में उठाकर पुन: आश्रम को लौटी। पौलमी के गर्भ से 5 और पुत्र बताए गए हैं।
भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए। 
भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। भार्गवों को अग्निपूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
शुक्राचार्य :: शुक्र के दो विवाह हुए थे। इनकी पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयंती थी, जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था और उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। दूसरी स्त्री का नाम गोधा (शर्मिष्ठा) था जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे।
च्यवन ऋषि :: मुनिवर ने गुजरात के भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
सुकन्या से च्यवन को अप्नुवान नाम का पुत्र मिला। द‍धीच इन्हीं के भाई थे। इनका दूसरा नाम आत्मवान भी था। इनकी पत्नी नाहुषी से और्व का जन्म हुआ। [और्व कुल का वर्णन ब्राह्मण ग्रंथों में, ऋग्वेद में 8.10.2-4 पर, तैत्तरेय संहिता 7.1.8.1, पंच ब्राह्मण 21.10.6, विष्णुधर्म 1.32 तथा महाभारत अनु. 56 आदि में प्राप्त है]
ऋचीक :: पुराणों के अनुसार महर्षि ऋचीक, जिनका विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ था, के पुत्र जमदग्नि ऋषि हुए। जमदग्नि का विवाह अयोध्या की राजकुमारी रेणुका से हुआ जिनसे परशुराम का जन्म हुआ।
विश्वामित्र :: गाधि के एक विश्वविख्‍यात पुत्र हुए जिनका नाम विश्वामित्र था जिनकी गुरु वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वामित्र और भगवान् शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया।
मरीचि के पुत्र कश्यप की पत्नी अदिति से भी एक अन्य भृगु उत्त्पन्न हुए जो उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। इनके पुत्र वृहस्पति जी हुए, जो देवगणों के पुरोहित-देव गुरु के रूप में जाने जाते हैं।
Photoभृगु ने ही भृगु संहिता, भृगु स्मृति,  भृगु संहिता-ज्योतिष, भृगु संहिता-शिल्प, भृगु सूत्र, भृगु उपनिषद, भृगु गीता आदि की रचना की। 
भृगु संहिता त्रिकाल अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों का समान रूप से प्रामाणिक ब्योरा देती है। भृगु संहिता महर्षि भृगु और उनके पुत्र शुक्राचार्य के बीच संपन्न हुए वार्तालाप के रूप में एक दुर्लभ ग्रंथ है। उसकी भाषा शैली गीता में भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य हुए संवाद जैसी है। हर बार आचार्य शुक्र एक ही सवाल पूछते हैं :-
वद् नाथ दयासिंधो जन्मलग्नषुभाषुभम्। येन विज्ञानमात्रेण त्रिकालज्ञो भविष्यति॥  
भार्गव वंश के मूल पुरुष महर्षि भृगु थे जिनको जन सामान्य ॠचाओं के रचिता, भृगुसंहिता के रचनाकार, यज्ञों में  ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानता है। महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्म-दक्ष प्रजापति की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। इनके पिता प्रचेता ब्रह्मा की दो पत्नियाँ थीं। 
महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए, इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्य कश्यप की पुत्री दिव्या थी और दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दिव्या से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए,जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्हीं भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी पौलमी की तीन संताने हुईं। दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था। च्यवन ॠषि का विवाह शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु ने राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में लेकर किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया।
भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणुका के पति भगवान् विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड गई। इस लडाई में  महर्षि भृगु ने पत्न्नी के पिता दैत्यराज हिरण्य कश्यप का साथ दिया। क्रोधित भगवान् विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला। इस पारिवारिक झगड़े को आगे  बढ़ने से रोकने के लिए महर्षि भृगु के पितामह ॠषि मरीचि ने भृगु को नगर से बाहर चले जाने की सलाह दिया और वह धर्मारण्य में  आ गए।
मन्दराचल पर्वत पर हो रहे यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया। भगवान् शिव की परीक्षा के लिए जब भृगु कैलाश पर्वत पर पहुँचे तो उस समय भगवान् शिव माता  पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। शिव गणों ने महर्षि को उनसे मिलने नहीं दिया। महर्षि भृगु ने भगवान् शिव को तमोगुणी मानते हुए शाप दे दिया कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी। भगवान् शिव आदि देव हैं। उन पर किसी के किसी भी श्राप का असर नहीं होता, अपितु श्राप देने वाला स्वयं ही मुसीबत में फँस जाता है। 
महर्षि भृगु अपने पिता भगवान् ब्रह्मा के ब्रह्मलोक पहुँचे। वहाँ इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे। जिन्होंने सोचा पुत्र ही तो है, मिलने के लिए आया होगा। महर्षि का सत्कार नहीं हुआ। तब नाराज होकर इन्होंने भगवान् ब्रह्मा को रजो गुणी घोषित करते हुए शाप दिया कि आपकी कहीं पूजा नही होगी। 
श्राप देने वाला व्यक्ति अपने सृजित पुण्य नष्ट कर लेता है। अतः कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो मनुष्य को किसी को भी कभी भी श्राप या बद्दुआ नहीं देनी चाहिए और ना ही किसी बुरा सोचना-करना चाहिये। श्राप को होनी-प्रारब्ध समझकर ग्रहण कर लेने  और पलटकर श्राप देने से अपने संचित पुण्यकर्म मनुष्य की रक्षा करते हैं। 
क्रोध में  तमतमाए महर्षि भगवान् विष्णु के श्री धाम पहुँचे। वहाँ भगवान् श्री हरी विष्णु क्षीर सागर में योग निद्रा में   थे और माता लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थीं। क्रोधित महर्षि ने परीक्षा लेने के लिए उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया। भगवान् विष्णु ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और पूछा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर में चोट तो नहीं लगी। महर्षि  के पैर में तीसरी आँख थी जिससे उन्हें भविष्य का ज्ञान हो जाता था। भगवान् विष्णु उनकी इन्तजार कर ही रहे थे। उन्होंने मौके का फायदा उठाकर, उनकी तीसरी आँख मूँद दी। महर्षि  को इसका भान-आभास भी नहीं हुआ। परन्तु माँ लक्ष्मी ने उन्हें श्राप दे दिया कि उनके वंश में उत्पन्न ब्राह्मण दरिद्र ही रहें। देवी लक्ष्मी को भृगु का  ऐसा करना नहीं भाया और उन्होंने ब्राह्मण समाज को श्राप दे दिया कि उनके वंश-खानदान में मेरा (लक्ष्मी का) वास नहीं होगा और वे दरिद्र बनकर इधर उधर भटकते रहेंगे।
महर्षि भृगु बोले के मैंने यह कार्य देवताओं के कहने पर त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिये किया था। मैंने इसकी माफ़ी भी मान ली है, पर आपने तो मेरे साथ साथ पूरे भार्गव वंश को श्राप दे दिया। अब जो होना था वो हो गया पर मैं अपने ब्राह्मण समाज के लिए ज्योतिष ग्रन्थ का निर्माण करूँगा और जिसके आधार पर वे समस्त प्राणियों के भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में बता सकेंगे और दक्षिणा के रूप में धन प्राप्त कर पाएँगे और मेरे ग्रन्थ के ज्ञात किसी भी ब्राह्मण के घर में लक्ष्मी की कमी नहीं आएगी। 
भृगु की परीक्षा का आधार पर देवताओं ने देवों में भगवान् श्री हरी विष्णु को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर किया। यद्यपि आदि देव भगवान् महादेव ही इस ब्रह्माण्ड में श्रष्टि के मूल हैं। भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध तथा भवान ब्रह्मा और भगवान् विष्णु की आयु 2-2 परार्ध है। 
कुछ समय पश्च्यात महर्षि भृगु ने ज्योतिष ग्रन्थ लिख दिया परन्तु इसके पश्चात् भृगु को घमण्ड हो गया और वो भगवान् शिव के धाम में चले गए और घमण्ड में माता पार्वती से कहा कि मैंने ऐसा ग्रन्थ लिखा है जिससे किसी भी मनुष्य  का भूत, भविष्य और वर्तमान मालूम किया जा सकता है। माँ क्रोधित हो गयीं और उन्होंने भृगु को श्राप दे दिया कि तुम मेरे आवास में बिना अनुमति के अन्दर आ गए और अपनी विद्या पर इतना घमण्ड कर रहे हो। इसलिए तुम्हारी सारी  भविष्य वाणियाँ सच नहीं होगी।
महर्षि के परीक्षा के इस ढ़ंग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य में तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए गंगातट पर जाने का आदेश दिया। भृगु अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर वहाँ आ गए। यहाँ पर उन्होने गुरुकुल स्थापित किया। उस समय यहाँ के लोग खेती करना नही जानते थे। महर्षि भृगु ने उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया। यहीं रहकर उन्होने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगुसंहिता की रचना की। कालान्तर में अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहाँ प्रवाहित हो रही गँगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को वहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया।
भृगु संहिता ज्योतिष का आदि ग्रंथ है अपार श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। 
महर्षि पराशर के ग्रंथ बृहत्पाराषरहोराषास्त्र में महर्षि भृगु को ही ज्योतिष शास्त्र का आदि प्रवर्तक कहा  गया है।इससे स्पष्ट हो जाता है कि भृगु नामक एक प्रकांड ज्योतिषी हुए हैं। इस तरह भृगु ऐसे भविष्यवक्ता और त्रिकालज्ञ थे।
भृगु संहिता में दृषेत शब्द बहुत बार आया है और संस्कृत के इस शब्द का अर्थ या प्रयोग देखने, दिखाई देने और दर्षित होने के संदर्भ में किया जाता है। इससे लगता है कि महर्षि भृगु को भूत और भविष्य स्पष्ट दिखाई देता था। इसमें पूर्वजन्म का विवरण भी है। एक जगह पर आचार्य शुक्र महर्षि भृगु से पूछते हैं :- 
पूर्वजन्मकृतं पापं कीदृक्चैव तपोबल। तद् वदस्य दयासिंधो येन भूयत्रिकालज्ञः॥ 
अधिकांष स्थलों पर पूर्वजन्म, वर्तमान जन्म तथा आने वाले जन्म का हाल भी दिया गया है। कुछ मामलों में यहांँ तक कहा गया है कि कोई व्यक्ति भृगु संहिता कब, कहाँ, किस प्रयोजन से विश्वास या अविश्वास के साथ सुनेगा। पत्नी की कुंडली के बिना ही सिर्फ पति की कुंडली के आधार पर पत्नी के बारे में व्यापक विवेचन व उसके सही होने की पुष्टि अनेक विद्वानों ने की है। भृगु संहिता में गणनाओं का उल्लेख करते समय वर्ष, महिने और दिन का भी जिक्र आता है। कुछ कुंडलियों में प्रश्नकाल के आधार भी पर गणनाएँ गईं हैं। कहीं-कहीं प्रश्नकर्ता के जन्म स्थान, निवास स्थान, पिता तथा उनके नामों के पहले अक्षरों का भी विवरण मिलता है।
पितृव्यष्च सुखं पूर्ण नागत्रिंषतषत कवेः। सम्यक् ब्रूमि फलं तत्र पितृव्यष्च महतरम्॥ 
यह अनुमान लगाना असंभव है कि भृगु संहिता कितने पृष्ठों की है और इसका आकार क्या है। यह दुर्लभ ग्रंथ अरबों वर्ष पूर्व भोजपत्र पर लिखा गया था। प्राचीन अनमोल ग्रंथों को नालंदा विष्वविद्यालय में जला दिया गया था। अब भी कुछ दुर्लभ पांडुलिपियाँ उपलब्ध हैं जिनमें भृगु संहिता, षंख संहिता, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, रावण संहिता आदि सुरक्षित हैं। इनमें भृगु संहिता इतनी विशाल है कि उसे उठाना भी कठिन है।
भृगु संहिता नाम पर अनेकों प्रकाशकों ने पुस्तकें प्रकाशित की हैं जो कि अप्रमाणिक, अनुपयोगी हैं। 
There are several names which are significant in astrology like Dev Rishi Narad, Ravan, Samudr (Ocean) and Bhagwan Kartikey. Almost all sages-saints of the status of Bhawan were blessed with insight, intuition and peep into future.

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