नाड़ी ज्योतिष :: BASICS OF ASTROLOGY

नाड़ी ज्योतिष
(BASICS OF ASTROLOGY)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
किसी समय पर माँ पार्वती ने भगवान् शिव से यह जानने की जिद की कि सृष्टि के अंत तक धरती पर आने वाले मनुष्यों का जीवन कैसा होगा और वे कौन-कौन से, कैसे-कैसे कर्म करेंगे। भगवान् शिव ने पूरा वृतांत कहना शुरू किया किया जिसे नंदी महाराज ने सुना और भगवान् कार्तिकेय और अगस्त ऋषि को सुनाया। समयांतर में इस ज्ञान को 16 अध्यायों में विभाजित करके ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध किया गया।
नाड़ी ज्योतिष की प्रमुख विशेषता यह है कि अगर प्रश्नकर्ता को अपनी जन्मतिथि, जन्म नक्षत्र, वार, लग्न का पता होता है तो ताड़पत्र की तलाश आसानी से हो जाती है अन्यथा उसके अँगूठे की छाप लेकर मिलान किया जाता है, जिसमें गलती की पूरी संभावना होती है। ताड़पत्र में व्यक्ति की पत्नी, पति, माता-पिता का नाम, बच्चों के नाम, बच्चों की संख्या और उनसे संबंधित अन्य जानकारी लिखी होती है, जिसका मिलान ताड़पत्र से होने पर पूरा भविष्य सही-सही जाना जा सकता है।
ज्योतिष में बारह भाव होते हैं और नंदी नाड़ी ज्योतिष विधि में सोलह भाव होते हैं। नंदी नाड़ी ज्योतिष में दिन और निश्चित समय में होने वाली घटनाओं का जिक्र भी किया गया है। निश्चित समय में होने वाली घटनाओं को आधार मानकर, इससे पंचाग की सत्यता की भी जांच की जा सकती है।
तमिल भाषा में नाड़ी का अर्थ की भविष्य की खोज है। ज्योतिष शास्त्र में नाड़ी का तात्पर्य समय की एक मात्रा है, जो आधे मुहूर्त अथवा 24 मिनट के बराबर होती है। अतः यह समय वाचक है।
विभिन्न नाड़ी यथा अगथिया नाड़ी, शुख नाड़ी, ब्रह्मा नाड़ी, कौशिक आदि नाड़ी की तरह ताड़ के पत्तों में नाड़ी ज्योतिष उपलब्ध है। भृगु संहिता, अरूण संहिता, रावण-संहिता के समान नन्दी-नाड़ी, शुक्र-नाड़ी, भुजन्दर-नाड़ी, सप्तऋषि-नाड़ी, चन्द्रकला-नाड़ी आदि नाड़ी ग्रन्थ हैं, जिनमें मनुष्यों के जीवन के भूत और भविष्य का सम्पूर्ण वृतान्त पहले से ही लिखा है।
ताड़ के पत्तों पर शुभ अवसरों पर लिखा गया यह बहुमूल्य ज्ञान, मोर के तेल के लेपन के द्वारा संरक्षित हैं। इनके लेखन में स्वर्ण स्याही का प्रयोग किया गया है। कुछ ताड़पत्र अभी भी तमिलनाडु के सरस्वती (तंजावुर) तंजौर, महल पुस्तकालय में संरक्षित हैं।
प्रत्येक व्यक्ति के लिए ताड़ का पत्ता सम्बन्धित जिज्ञासु व्यक्ति के अंगूठे का निशान के आधार पर देखा जाता है। अंगूठे के निशानों को 108 श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है।
नाड़ी ज्योतिष के अनुसार दशायें :: (1). लग्न भाव से शरीर, जन्म, (2). धन-सम्पत्ति की स्थिति, पारिवारिक स्थिति व शिक्षा एवं नेत्र सम्बन्धी विषयों, (3). पराक्रम और भाई बहन, विपत्ति, (4). सुख, ज़मीन जायदाद, मकान एवं वाहन सहित मातृ सुख, कुशल क्षेम, (5). संतान, शरीर या परिवार से पृथक होना, (6). रोग एवं शत्रु, शरीर या मन को साधना, (7). मृत्यु योग, (8). कारक मृत्यु योग और (9). परममित्र।
सामान्य ज्योतिष में भाव तीस अंश का होता है और नाडी ज्योतिष में एक भाव की एक सौ पचास नाडियाँ होती हैं। सत्य की परख के लिए के लिये तीस अंश का एक सौ पचासवाँ हिस्सा प्रयोग किया जाता है।
नाड़ी दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा को लेकर भी विभिन्न ज्योतिषियों के मत भिन्न भिन्न होने के कारण बहुत अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है जिसके कारण आम जातक को बहुत दुविधा का सामना करना पड़ता है। कुछ ज्योतिषियों का यह मानना है कि नाड़ी दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा केवल नासिक स्थित भगवान् शिव के त्रंयबकेश्वर नामक मंदिर, उज्जैन, हरिद्वार, गया जी, श्री बद्रीनाथ धाम तथा अन्य इसी प्रकार के धार्मिक स्थानों पर ही की जानी चाहिए जो उचित नहीं है तथा नाड़ी दोष निवारण पूजा किसी भी मंदिर में की जा सकती है, हालांकि धार्मिक स्थानों पर इस पूजा को करने से इसके फल अधिक अवश्य हो जाते हैं।
नाड़ी दोष के निवारण के लिए महामृत्युंजय मंत्र के माध्यम से नाड़ी दोष निवारण पूजा की जाती है तथा इसी पूजा के माध्यम से कुंडली मिलान के समय बनने वाले अन्य दोषों जैसे कि भकूट दोष, गण दोष, ग्रह मैत्री दोष आदि दोषों का निवारण भी किया जाता है।
गुण मिलान के समय बनने वाले नाड़ी दोष तथा भकूट दोष आदि जैसे दोषों के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा में वर तथा वधू अथवा भावी वर तथा वधू दोनों को एक साथ उपस्थित होना पड़ता है तथा यह पूजा वैदिक ज्योतिष के अनुसार की जाने वाली अधिकतर अन्य पूजाओं की भांति एक जातक के लिए न करके एक साथ दो जातकों के लिए की जाती है।
किसी भी प्रकार के दोष के निवारण के लिए की जाने वाली पूजा को विधिवत करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, उस दोष के निवारण के लिए निश्चित किये गए मंत्र का एक निश्चित सँख्या में जाप करना तथा यह सँख्या अधिकतर दोषों के लिए की जाने वाली पूजाओं के लिए 1,25,000 मंत्र होती है अर्थात महामृत्युंजय मंत्र का 1,25,000 बार जाप करना अनिवार्य होता है। पूजा के आरंभ वाले दिन पाँच या सात पंडित पूजा करवाने वाले यजमान अर्थात जातक के साथ भगवान शिव के शिवलिंग के समक्ष बैठते हैं तथा शिव परिवार की विधिवत पूजा करने के पश्चात मुख्य पंडित यह संकल्प लेता है कि वह और उसके सहायक पंडित उपस्थित वर वधू अथवा भावी वर वधू के लिए नाड़ी दोष के निवारण मंत्र का 1,25,000 बार जाप एक निश्चित अवधि में करेंगे तथा इस जाप के पूरा हो जाने पर पूजन, हवन तथा कुछ विशेष प्रकार के दान आदि करेंगे। जाप के लिए निश्चित की गई अवधि सामान्यतया 7 से 10 दिन होती है। संकल्प के समय मंत्र का जाप करने वाली सभी पंडितों का नाम तथा उनका गोत्र बोला जाता है तथा इसी के साथ पूजा करवाने वाले वर वधू का नाम, उनके पिता का नाम तथा उनका गोत्र भी बोला जाता है तथा इसके अतिरिक्त जातकों द्वारा करवाये जाने वाले नाड़ी दोष के निवारण मंत्र के इस जाप के फलस्वरूप मांगा जाने वाला फल भी बोला जाता है जो साधारणतया वर वधू की कुंडली में नाड़ी दोष, भकूट दोष, गण दोष अथवा ऐसे ही किसी एक या एक से अधिक दोषों का निवारण होता है तथा सुखमय वैवाहिक जीवन की मनोकामना होती है।
इस संकल्प के पश्चात सभी पंडित अपने यजमानों अर्थात जातकों के लिए नाड़ी दोष निवारण मंत्र अर्थात महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना शुरू कर देते हैं तथा प्रत्येक पंडित इस मंत्र के जाप को प्रतिदिन लगभग 8 से 10 घंटे तक करता है, जिससे वे इस मंत्र की 1,25,000 सँख्या के जाप को संकल्प के दिन निश्चित की गई अवधि में पूर्ण कर सकें। निश्चित किए गए दिन पर जाप पूरा हो जाने पर इस जाप तथा पूजा के समापन का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, जो लगभग 2 से 3 घंटे तक चलता है। सबसे पूर्व भगवान् शिव, माँ पार्वती, गणेश जी महाराज तथा शिव परिवार के अन्य सदस्यों की पूजा फल, फूल, दूध, दहीं, घी, शहद, शक्कर, धूप, दीप, मिठाई, हलवे के प्रसाद तथा अन्य कई वस्तुओं के साथ की जाती है। इसके पश्चात मुख्य पंडित के द्वारा नाड़ी दोष के निवारण मंत्र का जाप पूरा हो जाने का संकल्प किया जाता है, जिसमें यह कहा जाता है कि मुख्य पंडित ने अपने सहायक अमुक अमुक पंडितों की सहायता से इस मंत्र की 1,25,000 सँख्या का जाप निर्धारित विधि तथा निर्धारित समय सीमा में सभी नियमों का पालन करते हुए किया है। यह सब उन्होंने अपने यजमानों अर्थात जातकों के लिए किया है जिन्होंने जाप के शुरू होने से लेकर अब तक पूर्ण निष्ठा से पूजा के प्रत्येक नियम की पालना की है तथा इसलिए अब इस पूजा से विधिवत प्राप्त होने वाला सारा शुभ फल उनके यजमानों को प्राप्त होना चाहिए।
इस समापन पूजा के चलते नवग्रहों से संबंधित अथवा नवग्रहों में से कुछ विशेष ग्रहों से संबंधित कुछ विशेष वस्तुओं का दान किया जाता है जो विभिन्न जातकों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है। इन वस्तुओं में सामान्यतया चावल, गुड़, चीनी, नमक, गेहूं, दाल, खाद्य तेल, सफेद तिल, काले तिल, जौं तथा कंबल इत्यादि का दाने किया जाता है। इस पूजा के समापन के पश्चात उपस्थित सभी देवी-देवताओं का आशीर्वाद लिया जाता है। तत्पश्चात हवन की प्रक्रिया शुरू की जाती है जो जातकों तथा पूजा का फल प्रदान करने वाले देवी देवताओं अथवा ग्रहों के मध्य एक सीधा तथा शक्तिशाली सम्बन्ध स्थापित करती है। औपचारिक विधियों के साथ हवन अग्नि प्रज्जवल्लित करने के पश्चात तथा हवन शुरू करने के पश्चात नाड़ी दोष के निवारण मंत्र का जाप पुन: प्रारंभ किया जाता है। प्रत्येक बार इस मंत्र का जाप पूरा होने पर स्वाहा: का स्वर उच्चारण किया जाता है, जिसके साथ ही हवन कुंड की अग्नि में एक विशेष विधि से हवन सामग्री डाली जाती है। हवन सामग्री विभिन्न पूजाओं तथा विभिन्न जातकों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकती है। नाड़ी दोष निवारण मंत्र की हवन के लिए निश्चित की गई जाप सँख्या के पूरे होने पर कुछ अन्य महत्वपूर्ण मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तथा प्रत्येक बार मंत्र का उच्चारण पूरा होने पर स्वाहा की ध्वनि के साथ पुन: हवन कुंड की अग्नि में हवन सामग्री डाली जाती है।
अंत में एक सूखे नारियल को उपर से काटकर उसके अंदर कुछ विशेष सामग्री भरी जाती है तथा इस नारियल को विशेष मंत्रों के उच्चारण के साथ हवन कुंड की अग्नि में पूर्ण आहुति के रूप में अर्पित किया जाता है तथा इसके साथ ही इस पूजा के इच्छित फल एक बार फिर मांगे जाते हैं। तत्पश्चात यजमानों अर्थात जातकों को हवन कुंड की 3, 5 या 7 परिक्रमाएं करने के लिए कहा जाता है। वर-वधू के इन परिक्रमाओं को पूरा करने के पश्चात तथा पूजा करने वाले पंडितों का आशिर्वाद प्राप्त करने के पश्चात यह पूजा संपूर्ण मानी जाती है। हालांकि किसी भी अन्य पूजा की भांति नाड़ी दोष निवारण पूजा में भी उपरोक्त विधियों तथा औपचारिकताओं के अतिरिक्त अन्य बहुत सी विधियाँ तथा औपचारिकताएं पूरी की जातीं हैं। उपरोक्त विधियां तथा औपचारिकताएं इस पूजा के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। इसीलिए इन विधियों का पालन उचित प्रकार से तथा अपने कार्य में निपुण पंडितों के द्वारा ही किया जाना चाहिए। इन विधियों तथा औपचारिकताओं में से किसी विधि अथवा औपचारिकता को पूरा न करने पर अथवा इन्हें ठीक प्रकार से न करने पर जातकों को इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल में कमी आ सकती है तथा जितनी कम विधियों का पूर्णतया पालन किया गया होगा, उतना ही इस पूजा का फल कम होता जाएगा।
नाड़ी दोष निवारण के लिए की जाने वाली पूजा के आरंभ होने से लेकर समाप्त होने तक पूजा करवाने वाले जातकों को भी कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। इस अवधि के भीतर दोनों जातकों के लिए प्रत्येक प्रकार के माँस, अंडे, मदिरा, धूम्रपान तथा अन्य किसी भी प्रकार के नशे का सेवन निषेध होता है। इसके अतिरिक्त जातकों को इस अवधि में परस्पर शारीरिक सम्बन्ध अथवा किसी भी अन्य व्यक्ति के साथ शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिएं। इसके अतिरिक्त जातकों को इस अवधि में किसी भी प्रकार का अनैतिक, अवैध, हिंसात्मक तथा घृणात्मक कार्य आदि भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जातकों को प्रतिदिन मानसिक संकल्प के माध्यम से नाड़ी दोष निवारण पूजा के साथ अपने आप को जोड़ना चाहिए तथा प्रतिदिन स्नान करने के पश्चात दोनों जातकों को इस पूजा का समरण करके यह संकल्प करना चाहिए कि नाड़ी दोष निवारण पूजा उनके लिए अमुक स्थान पर अमुक सँख्या के पंडितों द्वारा नाड़ी दोष निवारण मंत्र के 1,25,000 सँख्या के जाप से की जा रही है तथा इस पूजा का विधिवत और अधिकाधिक शुभ फल उन्हें प्राप्त होना चाहिए। ऐसा करने से जातक मानसिक रूप से नाड़ी दोष निवारण पूजा के साथ जुड़ जाते हैं जिससे इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल और भी अधिक शुभ हो जाते हैं।
नाड़ी दोष निवारण के लिए की जाने वाली पूजा जातकों की अनुपस्थिति में भी की जा सकती है तथा जातकों के व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने की स्थिति में इस पूजा में जातकों की तस्वीरों अर्थात फोटो का प्रयोग किया जाता है; जिसके साथ-साथ जातकों के नाम, उनके पिता के नाम तथा उसके गोत्र आदि का प्रयोग करके जातकों के लिए इस पूजा का संकल्प किया जाता है। इस संकल्प में यह कहा जाता है कि दोनों जातक किसी कारणवश इस पूजा के लिए व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने में सक्षम नहीं हैं, जिसके चलते पूजा करने वाले पंडितों में से ही दो पंड़ित जातकों के लिए जातकों के द्वारा की जाने वाली सभी प्रक्रियाओं पूरा करने का संकल्प लेते हैं तथा उसके पश्चात पूजा के समाप्त होने तक वह पंडित ही जातकों की ओर से की जाने वाली सारी क्रियाएं करते हैं, जिसका पूरा फल संकल्प के माध्यम से जातकों को प्रदान किया जाता है। प्रत्येक प्रकार की क्रिया को करते समय जातकों की तस्वीर अर्थात फोटो को उपस्थित रखा जाता है तथा उसे सांकेतिक रूप से जातक ही मान कर क्रियाएं की जातीं हैं। यदि जातक के स्थान पर पूजा करने वाले पंडित को भगवान् शिव को पुष्प अर्थात फूल अर्पित करने हैं तो वह पंडित पहले पुष्प धारण करने वाले अपने हाथ को जातक के चित्र से स्पर्श करता है तथा तत्पश्चात उस हाथ से पुष्पों को भगवान् शिव को अर्पित करता है तथा इसी प्रकार सभी क्रियाएं पूरी की जातीं हैं।
व्यक्तिगत रूप से अनुपस्थित रहने की स्थिति में भी जातकों को पूजा के आरंभ से लेकर समाप्त होने की अवधि तक पूजा के लिए निश्चित किये गए नियमों का पालन करना होता है, भले ही दोनों जातक संसार के किसी भी भाग में उपस्थित हों। इसके अतिरिक्त जातकों को उपर बताई गई विधि के अनुसार अपने आप को इस पूजा के साथ मानसिक रूप से संकल्प के माध्यम से जोड़ना भी होता है जिससे इस पूजा के अधिक से अधिक शुभ फल जातकों को प्राप्त हो सकें।
नाड़ी दोष :: कुंडली मिलान के लिए प्रयोग की जाने वाली गुण मिलान की प्रक्रिया में बनने वाले दोषों में से नाड़ी दोष को सबसे अधिक अशुभ दोष माना जाता है तथा अनेक वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि कुंडली मिलान में नाड़ी दोष के बनने से बहुत निर्धनता होना, संतान न होना तथा वर अथवा वधू दोनों में से एक अथवा दोनों की मृत्यु हो जाना जैसी भारी मुसीबतें भी आ सकतीं है।
इसीलिए अनेक ज्योतिषी कुंडली मिलान के समय नाड़ी दोष बनने पर ऐसे लड़के तथा लड़की का विवाह करने से मना कर देते हैं।  
गुण मिलान की प्रक्रिया में आठ कूटों का मिलान किया जाता है जिसके कारण इसे अष्टकूट मिलान भी कहा जाता है तथा ये आठ कूट हैं :- वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी। 
तीन प्रकार की नाड़ी :- आदि नाड़ी, मध्या नाड़ी तथा अंत नाड़ी। 
प्रत्येक व्यक्ति की जन्म कुंडली में चन्द्रमा की किसी नक्षत्र विशेष में उपस्थिति से उस व्यक्ति की नाड़ी का पता चलता है। नक्षत्र सँख्या में कुल 27 होते हैं। इनमें से किन्हीं 9 विशेष नक्षत्रों में चन्द्रमा के स्थित होने से कुंडली धारक की कोई एक नाड़ी होती है। 
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की आदि नाड़ी होती है :- अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तर फाल्गुणी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा तथा पूर्व भाद्रपद।
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की मध्य नाड़ी होती है :- भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्व फाल्गुणी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा तथा उत्तर भाद्रपद।
चन्द्रमा के निम्नलिखित नक्षत्रों में स्थित होने से कुंडली धारक की अंत नाड़ी होती है :- कृत्तिका, रोहिणी, श्लेषा, मघा, स्वाती, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण तथा रेवती।
गुण मिलान करते समय यदि वर और वधू की नाड़ी अलग-अलग हो तो उन्हें नाड़ी मिलान के 8 में से 8 अंक प्राप्त होते हैं, जैसे कि वर की आदि नाड़ी तथा वधू की नाड़ी मध्य अथवा अंत। किन्तु यदि वर और वधू की नाड़ी एक ही हो तो उन्हें नाड़ी मिलान के 8 में से 0 अंक प्राप्त होते हैं तथा इसे नाड़ी दोष का नाम दिया जाता है।
नाड़ी दोष की प्रचलित धारणा के अनुसार वर-वधू दोनों की नाड़ी आदि होने की स्थिति में तलाक या अलगाव की प्रबल संभावना बनती है तथा वर-वधू दोनों की नाड़ी मध्य या अंत होने से वर-वधू में से किसी एक या दोनों की मृत्यु की प्रबल संभावना बनती है। 
नाड़ी दोष को निम्नलिखित स्थितियों में निरस्त माना जाता है :- यदि वर-वधू दोनों का जन्म एक ही नक्षत्र के अलग-अलग चरणों में हुआ हो तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के पश्चात भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
यदि वर-वधू दोनों की जन्म राशि एक ही हो किन्तु नक्षत्र अलग-अलग हों तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के पश्चात भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
यदि वर-वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक ही हो किन्तु जन्म राशियां अलग-अलग हों तो वर-वधू की नाड़ी एक होने के पश्चात भी नाड़ी दोष नहीं बनता।
प्रत्येक पुरुष की प्रत्येक तीसरी स्त्री के समान नाड़ी होगी जिससे प्रत्येक पुरुष तथा स्त्री के लिए हर तीसरा पुरुष या स्त्री केवल नाड़ी दोष के बनने के कारण ही प्रतिकूल हो जाएगा जिसके चलते लगभग 33% विवाह तो नाड़ी दोष के कारण ही संभव नहीं हो पायेंगे।
यदि किसी पुरुष की नाड़ी आदि है तो लगभग प्रत्येक तीसरी स्त्री की नाड़ी भी आदि होने के कारण इस प्रकार के कुंडली मिलान में नाड़ी दोष बन जाएगा जिसके चलते विवाह न करने का परामर्श दिया जाता है।
भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य लगभग किसी भी देश में कुंडली मिलान अथवा गुण मिलान जैसी प्रक्रियाओं का प्रयोग नहीं किया जाता। इसलिए इन देशों में होने वाला प्रत्येक तीसरा विवाह नाड़ी दोष से पीड़ित है, जिसके चलते इन देशों में होने वाले विवाहों में तलाक अथवा पति पत्नि में से किसी एक की मृत्यु की दर केवल नाड़ी दोष के कारण ही 33% होनी चाहिए।
नाड़ी दोष कुंडलीं मिलान के समय बनने वाले अनेक दोषों में से केवल एक दोष है तथा कुंडली मिलान में बनने वाले अन्य कई दोषों जैसे कि भकूट दोष, गण दोष, काल सर्प दोष, मांगलिक दोष आदि में से प्रत्येक दोष भी अपनी प्रचलित परिभाषा के अनुसार लगभग 50% कुंडली मिलान के मामलों में तलाक तथा वैध्वय जैसीं समस्याएं पैदा करने में पूरी तरह से सक्षम है।
इन सभी दोषों को भी ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि संसार में होने वाला लगभग प्रत्येक विवाह ही तलाक अथवा वैध्वय जैसी समस्याओं का सामना करेगा क्योंकि अपनी प्रचलित परिभाषाओं के अनुसार इनमें से कोई एक अथवा एक से अधिक दोष लगभग प्रत्येक कुंडलीं मिलान के मामले में बन जाएगा। 
कुंडली मिलान के किसी मामले में केवल नाड़ी दोष का उपस्थित होना अपने आप में ऐसे विवाह को तोड़ने में सक्षम नहीं है तथा ऐसा होने के लिए कुंडली में किसी ग्रह द्वारा बनाया गया कोई अन्य गंभीर दोष अवश्य होना चाहिए।
केवल नाड़ी दोष के उपस्थित होने से ही विवाह में कोई गंभीर समस्याएं पैदा नहीं होतीं। ऐसे बहुत से विवाहित जोड़ों  की कुंडली मिलान के समय नाड़ी दोष बनता है, किन्तु फिर भी ऐसे विवाह वर्षों से लगभग हर क्षेत्र में सफल हैं।
जिसका कारण यह है कि लगभग इन सभी मामलों में ही वर वधू की कुंडलियों में विवाह के शुभ फल बताने वाले कोई योग हैं, जिनके कारण नाड़ी दोष का प्रभाव इन कुंडलियों से लगभग समाप्त हो गया है।
किसी भी कुंडली में किसी ग्रह द्वारा बनाया गया विवाह संबंधी कोई शुभ या अशुभ योग गुण मिलान के कारण बनने वाले दोषों की तुलना में बहुत अधिक प्रबल होता है तथा दोनों का टकराव होने की स्थिति में लगभग हर मामले में ही विजय कुंडली में बनने वाले शुभ अथवा अशुभ योग की ही होती है।
कुंडली में विवाह संबंधी बनने वाला मांगलिक योग अथवा मालव्य योग जैसा कोई शुभ योग गुण मिलान में नाड़ी दोष अथवा अन्य भी दोष बनने के पश्चात भी जातक को सफल तथा सुखी वैवाहिक जीवन देने में सक्षम है।
कुंडली में विवाह संबंधी बनने वाले मांगलिक दोष अथवा काल सर्प दोष जैसे किसी भयंकर दोष के बन जाने से नाड़ी मिलने के पश्चात तथा 36 में से 30 या इससे भी अधिक गुण मिलने के पश्चात भी ऐसे विवाह टूट जाते हैं अथवा गंभीर समस्याओं का सामना करते हैं।
विवाह के लिए उपस्थित संभावित वर-वधू को केवल नाड़ी दोष के बन जाने के कारण ही आशा नहीं छोड़ देनी चाहिए तथा अपनी कुंडलियों का गुण मिलान के अलावा अन्य विधियों से पूर्णतया मिलान करवाना चाहिए, क्योंकि इन कुंडलियों के आपस में मिल जाने से नाड़ी दोष अथवा गुण मिलान से बनने वाला ऐसा ही कोई अन्य दोष ऐसे विवाह को कोई विशेष हानि नहीं पहुँचा सकता।
कुंडली मिलान में बनने वाले नाड़ी दोष का निवारण अधिकतर मामलों में ज्योतिष के उपायों से सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
नाड़ी दोष के उपचार :- भारतीय वैदिक परम्पराओं को आधुनिक वैज्ञानिक शोधकर्ताओं ने भी नाड़ी दोष को सत्य साबित किया है। 
नाडी दोष :: नाडी = शिरा ,धमनिया में रक्त प्रवाह में वात, पित, कफ के संतुलन में असंतुलन नही हो का ध्यान पूर्वक अध्ययन नाड़ी दोष से बचाव करता है।
चिकित्सा की दृष्टि से मनुष्य आध्यात्मिकता, ज्योतिषी एवं सामाजिकता में पारिवारिक मूल्यांकनों का समावेश रहता है, जिसका भावी दाम्पत्य जीवन का गुण मेल-मिलाप में नाड़ी दोष के कारण का निवारण देखा जाता है।
भावी दाम्पत्य जीवन के मध्य सामजस्य, प्रेम ,सुखी जीवन, अपनी जीवन शैली में वंशवृद्धि जो अपनी कुल की परम्पराओं को बढ़ाने वाली, आय,समृद्धि और यश कीर्ति वान संतान की प्राप्ति देते पितृ ऋण से मुक्त वो सन्तान समाज के साथ अपना उत्थान करे। 
चिकित्सा की दृष्टि से नाड़ी की गति तीन मानी जाती है, जो उसकी चाल को कहते हैं :- आदि, मध्य और अंत। जो आदि वात, मध्य पित्त और अंत कफ मानी जाती है, जो शारीरिक धातु के रूप में जानी जाती है। इस लिए वैध जातक को वातिक को वायु-गैस उत्पन्न करने वाले भोजन की मना करते हैं। पेत्तिक को पित्त वर्धक और कफज को कफ वर्धक भोजन का मना किया जाता है।  शरीर में इन तीनों के समन्वय बिगाड़ने से रोग पैदा होता हैं। 
ज्योतिषी की भाषा में नाडियां तीन होती हैं ;- आदि, मध्य, अंत। इन नाड़ियों के वर-कन्या से सामान होने से दोष माना जाता है। समान नाड़ी होने से पारस्परिक विकर्षण पैदा होता हैं मानसिक रोग पैदा होता हैं और असमान नाड़ी  होने से आकर्षण के साथ मानसिक रोग मुक्त होता हैं। ***
विवाह मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार मे बंधने से पूर्व वर एवं कन्या के जन्म नामानुसार गुण मिलान करके की परिपाटी है । गुण मिलान नही होने पर सर्वगुण सम्पन्न कन्या भी अच्छी जीवनसाथी सिद्व नही होगी । गुण मिलाने हेतु मुख्य रुप से अष्टकूटों का मिला न किया जाता है । ये अष्टकुट है वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रहमैत्री, गण, राशि, नाड़ी । विवाह के लिए भावी वर-वधू की जन्मकुंडली मिलान करते नक्षत्र मेलापक के अष्टकूटों (जिन्हे गुण मिलान भी कहा जाता है) में नाडी को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है । नाडी जो कि व्यक्ति के मन एवं मानसिक उर्जा की सूचक होती है । व्यक्ति के निजि सम्बंध उसके मन एवं उसकी भावना से नियंत्रित होते हैं । जिन दो व्यक्तियों में भावनात्मक समानता, या प्रतिद्वंदिता होती है, उनके संबंधों में ट्कराव पाया जाता है । जैसे शरीर के वात, पित्त एवं कफ इन तीन प्रकार के दोषों की जानकारी कलाई पर चलने वाली नाडियों से प्राप्त की जाती है, उसी प्रकार अपरिचित व्यक्तियों के भावनात्मक लगाव की जानकारी आदि, मध्य एवं अंत्य नाम की इन तीन प्रकार की नाडियों के द्वारा मिलती है ।
नाड़ी दोष होने पर यदि अधिक गुण प्राप्त हो रहे हो तो भी गुण मिलान को सही माना जा सकता अन्यता उनमे व्यभिचार का दोष पैदा होने की सभांवना रहती है । मध्य नाड़ी को पित स्वभाव की मानी गई है । इस लिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमे परस्पर अंह के कारण सम्बंन्ध अच्छे बन पाते । उनमे विकर्षण कि सभांवना बनती है । परस्पर लडाईझगडे होकर तलाक की नौबत आ जाती है । विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है । गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है । अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव की मानी इस प्रकार की स्थिति मे प्रबल नाडी दोश होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखे । जिस प्रकार वात प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए वात नाडी चलने पर, वात गुण वाले पदार्थों का सेवन एवं वातावरण वर्जित होता है अथवा कफ प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए कफ नाडी के चलने पर कफ प्रधान पदार्थों का सेवन एवं ठंडा वातावरण हानिकारक होता है, ठीक उसी प्रकार मेलापक में वर-वधू की एक समान नाडी का होना, उनके मानसिक और भावनात्मक ताल-मेल में हानिकारक होने के कारण वर्जित किया जाता है । तात्पर्य यह है कि लडका-लडकी की एक समान नाडियाँ हों तो उनका विवाह नहीं करना चाहिए, क्यों कि उनकी मानसिकता के कारण, उनमें आपसी सामंजस्य होने की संभावना न्यूनतम और टकराव की संभावना अधिकतम पाई जाती है । इसलिए मेलापक में आदि नाडी के साथ आदि नाडी का, मध्य नाडी के साथ मध्य का और अंत्य नाडी के साथ अंत्य का मेलापक वर्जित होता है । जब कि लडका-लडकी की भिन्न भिन्न नाडी होना उनके दाम्पत्य संबंधों में शुभता का द्योतक है । यदि वर एवं कन्या कि नाड़ी अलग -अलग हो तो नाड़ी शुद्धि मानी जाती है । यदि वर एवं कन्या दोनो का जन्म यदि एक ही नाड़ी मे हो तो नाड़ी दोष माना जाता है ।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में नाडी का निर्धारण जन्म नक्षत्र से होता हैं.हर एक नक्षत्र में चार चरण होते हैं.नौ नक्षत्र की एक नाड़ी होती हैं.जन्म नक्षत्र के आधार पर नाडीयों को टी भागों में विभाजित किया जाता हैं.जो आदि ,मध्य,अंत ( वात,पित्त,कफ ) नाड़ी के नाम से जाना जाता हैं. ज्योतिष चिंतामणि के अनुसाररोहिणी, म्रिगशीर्ष, आद्र, ज्येष्ठ, कृतिका, पुष्य, श्रवण, रेवती, उत्तराभाद्र, नक्षत्रों को नाडी दोष लगता नहीं है|
अष्ट कूट गुण मिलन में 36 गुणों को निर्धारण किया जाता हैं. वर्ण,वश्य,तारा,योनी,ग्रह मैत्री ,गण ,भकूट,और नाडी के लिए 1+2+3+4+5+6+7+8 = 36 गुण .भावी दंपत्ति के मानसिकता एवं मनोदशा का मूल्याङ्कन किया जाता हैं.नाडी दोष भावी वर वधु के समान नाडी होने से नाडी दोष होता है जिस के कारण विवाह में निषेध माना जाता हैं.
नाडी दोष ब्राह्मण वर्ण की राशियों में जन्मे जातको पर विशेष प्रभावी नही होता..?
[यह एक भ्रम हें की नाडी ब्राहमण जाती पर प्रभावी को माना जाता जो व्यापक अधूरा ज्ञान हैं.]
ज्योतिष शास्त्र में सभी राशियों को चार वर्णों में विभाजित किया गया हैं.
ब्राह्मण वर्ण :- कर्क, वृश्चिक, मीन,
क्षत्रिय वर्ण :- मेष, सिह, धनु,
वैश्य वर्ण :- वृष, कन्या, मकर,
शूद्र वर्ण :- मिथुन, तुला, कुम्भ। 
आदि नाड़ी  :- अश्विनी, आद्रा, पुर्नवसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद। 
मध्य नाडी = भरनी, मृगशिर, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा,अनुराधा, पूर्वाषाढ़, घनिष्ठा,उत्तराभाद्रपद। 
अंत्य नाड़ी :- कृतिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढा, श्रवण और रेवती। 
नाडी दोष निवारण [ परिहार ] = मांगलिक कन्या को समंदोश वाले वर का दोष नही लगता
यदि कन्या के जो मंगल होवे और वर के उपरोक्त स्थानों में मंगल के बदले में शनी,सूर्य,राहू,केतु होवे तो मंगल का दोष दूर करता हैं पाप क्रांत शुक्र तथा सप्तम भाव पति को नेष्ट स्थिति भी मंगल तुल्य ही समजना चाहिए
पगड़ी मंगल चुनडी मंगल जिस वर या कन्या के जन्म कुंडली में लग्न से या चन्द्र से तथा वर के शुक्र से भी 1 – 4 -7 – 8- 12 स्थान भावो में मंगल होवे तो मांगलिक गुणधर्म की कुण्डली समझें.अधिक जानकारीपूर्ण अपने निकट ज्योतिष से सम्पर्क करे .
इन स्थितियों में नाड़ी दोष नहीं लगता ::
1. यदि वर-वधू का जन्म नक्षत्र एक ही हो परंतु दोनों के चरण पृथक हों तो नाड़ी दोष नहीं लगता है।
2. यदि वर-वधू की एक ही राशि हो तथा जन्म नक्षत्र भिन्न हों तो नाड़ी दोष से व्यक्ति मुक्त माना जाता है।
3. वर-वधू का जन्म नक्षत्र एक हो परंतु राशियां भिन्न-भिन्न हों तो नाड़ी दोष नहीं लगता है।
4. वर-वधु प्राय – क्षत्रीय , वेश्य , या शूद्र वर्ण (जाती ) में जन्म होने वाले वर वधु पर नाड़ी दोष को पूर्ण नहीं माना जाता है !
नाडीदोष से संतानहीनता :: अपनी आधार भूत पौराणिक एवं पारंपरिक मान्यताओं के ठोस आधार पर दृष्टिपात करने को ज़िल्लत, जाहिलो की चर्या एवं कल्पना आधारित एक ताना-बाना मान कर मानसिक रूप से भी गुलामी के बंधन में पूरी तरह बंध गए है.विचित्र, सुन्दर, सबसे अलग-थलग एवं सबकी नज़रो के आकर्षण केंद्र बनने के लिए विविध एवं विचित्र आभूषणों एवं रसायनों से शरीर सज्जा के लिए हम शारीरिक रूप से तो पराई सभ्यताओं के गुलाम हो ही गए है.
संतानोत्पादन के लिए लड़का लड़की का मात्र शारीरिक रूप से ही स्वस्थ रहना अनिवार्य नहीं है. बल्कि दोनों के शुक्राणुओ या गुणसूत्र या Chromosomes का संतुलित सामंजस्य भी स्वस्थ एवं समानुपाती होना चाहिए. अन्यथा हर तरह से स्वस्थ लड़का एवं लड़की भी संतान नहीं उत्पन्न नहीं कर सकते.
गुणसूत्र या Chromosomes के दो वर्ग होते है. एक तो X होता है तथा दूसरा Y. X पुरुष संतति का बोधक होता है. तथा Y महिला संतति का. यदि पुरुष एवं स्त्री के दोनों X मिल गए तो लड़का होगा. किन्तु यदि YY या XY हो गए तो लड़की जन्म लेगी. किन्तु यदि X ने Y को या Y ने X को खा लिया. तो फिर संतान हीनता का सामना करना पडेगा. क्योकि या तो फिर अकेले X बचेगा या फिर अकेले Y बचेगा. और ऐसी स्थिति में निषेचन क्रिया किसी भी प्रकार पूर्ण नहीं होगी. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की धाराओं में संतान उत्पन्न होने की यही प्रक्रिया है. और ज्योतिष शास्त्र में भी इसी कमी को नाडीदोष का नाम दिया गया है.
यदि किसी भी तरह लड़का एवं लड़की के गुणसूत्रों का पार्श्व एवं पुरोभाग अर्थात Front Portion चापाकृति में होगा तो निषेचन नहीं हो सकता है. इनमें से किसी एक का विलोमवर्ती होना आवश्यक है. तभी निषेचन संभव है. जिस तरह से चुम्बक के दोनों उत्तरी ध्रुव वाले सिरे परस्पर नहीं चिपक सकते. उन्हें परस्पर चिपकाने के लिए एक का दक्षिण तथा दूसरे का उत्तर ध्रुव का सिरा होना आवश्यक है. ठीक उसी प्रकार गुनासूत्रो के परस्पर निषेचित होने के लिए परस्पर विलोमवर्ती होना आवश्यक है. अन्यथा दोनों सदृश संचारी हो जायेगें तो सदिश संचार होने के कारण दोनों एक दूसरे से मिल ही नहीं पायेगें. और गुणसूत्रों के इस मूल रूप को परिवर्तित नहीं किया जा सकता. अन्यथा ये संकुचित और परिणाम स्वरुप विकृत या मृत हो जाते है. सदृश नाडी वाले युग्म के गुणसूत्रों का लेबोरटरी टेस्ट किया जा सकता है. वैसे अभी अब तक भ्रूण परिक्षण तो किया जा सकता है किन्तु गुणसूत्र परिक्षण अभी बहुत दूर दिखाई दे रहा है. सीमेन टेस्ट के द्वारा यह तो पता लगाया जा चुका है कि संतान उत्पादन क्षमता है या नहीं. किन्तु यह पता नहीं लगाया जा सका है कि सीमेन में किन सूत्रों के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है?
जब कभी लडके एवं लड़की के जन्म नक्षत्र के अंतिम चरण का विकलात्मक सादृश्य हो तभी यह नाडी दोष प्रभावी होता है.मुहूर्त मार्तंड. मुहूर्त चिंतामणि, विवाह पटल एवं पाराशर संहिता के अलावा वृहज्जातक में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है. उसमें बताया गया है क़ि नाडी दोष होते हुए भी यदि नक्षत्रो के अंतिम अंश सदृश मापदंड के तुल्य नहीं होते, तो साक्षात दिखाई देने वाला भी नाडीदोष प्रभावी नहीं हो सकता है. अतः नाडी दोष का निर्धारण बहुत ही सूक्ष्मता पूर्वक होनी चाहिए.
नाडी दोष की शान्ति संभव है. किन्तु इसमें कुछ शर्तें है——
उम्र साठ वर्ष से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.
शादी के बाद अधिक से अधिक आठ वर्ष तक प्रतीक्षा की जा सकती है. बारह वर्ष बीत जाने के बाद कुछ भी नहीं हो सकता है.
नाडी दोष सूक्ष्मता पूर्वक निर्धारित होना चाहिए. यदि अंत की अंशात्मक स्थिति नहीं बनाती है, तो साक्षात दिखाई देने वाला नाडी दोष भी निरर्थक होता है. अर्थात वह नाडी दोष में आता ही नहीं है.
पीयूष धारा ग्रन्थ के अनुसार – स्वर्ण दान, गऊ दान, वस्त्र दान, अन्न दान, स्वर्ण की सर्पाकृति बनाकर प्राणप्रतिष्ठा तथा महामृत्युञ्जय मंत्र का जप करवाने से नाड़ी दोष शान्त हो जाता है।
यदि उपरोक्त शर्तें है तो प्राथमिक स्तर पर निम्न उपाय किये जा सकते है. जीरकभष्म, बंगभष्म, कमल के बीज, शहद, जिमीकंद, गुदकंद, सफ़ेद दूब एवं चिलबिला का अर्क एक-एक पाँव लेकर शुद्ध घी में कम से कम सत्ताईस बार भावना दें. सत्ताईसवें दिन उसे निकाल कर अपने बलिस्त भर लबाई का रोल बना लें तथा उसके सत्ताईस टुकडे काट लें. इसके अलावा शिलाजीत, पत्थरधन, बिलाखा, कमोरिया एवं शतावर सब एक एक पाँव लेकर एक में ही कूट पीस ले. और नाकीरन पुखराज सात रत्ती का लेकर सोने की अंगूठी में जडवा लें.रोल बनाए गए मिश्रण को नित्य सुबह एवं शाम गर्म दूध के साठ निगल लिया करें. तथा शतावर आदि के चूर्ण को रोज एक छटाक लेकर गर्म पानी में उबाल लें जब वह ठंडा हो जाय तो उसे और थोड़े पानी में मिलकर रोज सूर्य निकलने के पहले स्नान कर ले. तथा उस पुखराज को तर्जनी अंगुली में किसी भी दिन शनि एवं मंगल छोड़ कर पहन लें.
वर एवं कन्या दोनो मध्य नाड़ी मे उत्पन्न हो तो पुरुष को प्राण भय रहता है । इसी स्थिति मे पुरुष को महामृत्यंजय जाप करना यदि अतिआवश्यक है । यदि वर एवं कन्या दोनो की नाड़ी आदि या अन्त्य हो तो स्त्री को प्राणभय की सम्भावना रहती है । इसलिए इस स्थिति मे कन्या महामृत्युजय अवश्य करे ।
नाड़ी दोष होने संकल्प लेकर किसी ब्राह्यण को गोदान या स्वर्णदान करना चाहिए।
अपनी सालगिराह पर अपने वजन के बराबर अन्न दान करे एवं साथ मे ब्राह्यण भोजन कराकर वस्त्र दान करे।
नाड़ी दोष के प्रभाव को दुर करने हेतु अनुकूल आहार दान करे अर्थातृ आयुर्वेद के मतानुसार जिस दोष की अधिकतम बने उस दोष को दुर करने वाले आंहार का सेवन करे ।
वर एवं कन्या मे से जिसे मारकेश की दशा चल रही हो उसको दशानाथ का उपाय दशाकाल तक अवश्य करना चाहिए ।
विशाखा, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवति, हस्त, स्वाति, आद्र्रा, पूर्वाभद्रपद इन 8 नक्षत्रो मे से किसी नक्षत्र मे वर कन्या का जन्म हो तो नाड़ी दोष नही रहता है।
उत्तराभाद्रपद, रेवती, रोहिणी, विषाख, आद्र्रा, श्रवण, पुष्य, मघा, इन नक्षत्र मे भी वर कन्या का जन्म नक्षत्र पडे तो नाड़ी दोष नही रहता है। उपरोक्त मत कालिदास का है ।
वर एवं कन्या के राषिपति यदि बुध, गुरू, एवं शुक्र मे से कोई एक अथवा दोनो के राशिपति एक ही हो तो नाड़ी दोष नही रहता है ।
नाड़ी दोष विप्र वर्ण पर प्रभावी माना जाता है । यदि वर एवं कन्या दोनो जन्म से विप्र हो तो उनमे नाड़ी दोष प्रबल माना जाता है । अन्य वर्णो पर नाड़ी पूर्ण प्रभावी नही रहता । यदि विप्र वर्ण पर नाड़ी दोष प्रभावी माने तो नियम नं घ का हनन होता हैं। क्योंकि बृहस्पती एवं शुक्र को विप्र वर्ण का माना गया हैं । यदि वर कन्या के राशिपति विप्र वर्ण ग्रह हों तो इसके अनुसार नाडी दोष नही रहता । विप्र वर्ण की राशियों में भी बुध व षुक्र राशिपति बनते हैं ।
सप्तमेश स्वगृही होकर शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो एवं वर कन्या के जन्म नक्षत्र चरण में भिन्नता हो तो नाडी दोष नही रहता हैं । इन परिहार वचनों के अलावा कुछ प्रबल नाडी दोष के योग भी बनते हैं जिनके होने पर विवाह न करना ही उचित हैं । यदि वर एवं कन्या की नाडी एक हो एवं निम्न में से कोई युग्म वर कन्या का जन्म नक्षत्र हो तो विवाह न करें ।
वर कन्या की एक राशि हो लेकिन जन्म नक्षत्र अलग-अलग हो या जन्म नक्षत्र एक ही हो परन्तु राशियां अलग हो तो नाड़ी नही होता है । यदि जन्म नक्षत्र एक ही हो लेकिन चरण भेद हो तो अति आवश्यकता अर्थात् सगाई हो गई हो, एक दुसरे को पंसद करते हों तब इस स्थिति मे विवाह किया जा सकता है.
शोधित नाडी दोष के सिद्ध हो जाने पर यह नुस्खा बहुत अच्छा काम करता है. किन्तु यदि नाडी दोष अंतिम अंशो पर है तो कोई उपाय या यंत्र-मन्त्र आदि काम नहीं करेगें. क्योकि सूखा हो, गिरा हो, टूटा हो या उपेक्षित हो, यदि कूवाँ होगा तो उसका पुनरुद्धार किया जा सकता है. किन्तु यदि कूवाँ होगा ही नहीं तो उसके पुनरुद्धार की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

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